जया एकादशी व्रत कथा – Jaya ekadashi vrat katha

माघशुक्ल जया एकादशी कथा - Jaya Ekadashi

माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम जया एकादशी है, इसका अन्य नाम भैमी एकादशी भी है। जया एकादशी के अधिदेवता भगवान वासुदेव हैं। इस एकादशी को करने से ब्रह्महत्यादि बड़े-बड़े पापों का भी नाश हो जाता है। यह पिशाचत्व और प्रेतत्व का भी निवारण करने वाली है। इसकी कथा पढ़ने-सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है। इस प्रकार माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का भी बहुत ही महत्व है। इस आलेख में जया एकादशी की व्रत कथा दी गयी है।

सर्वप्रथम जया (माघ शुक्ल पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Jaya ekadashi vrat katha

॥ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे माघशुक्ला जया एकादशीव्रतमाहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥

युधिष्ठिर राजा बोले – हे आदिदेव ! हे जगत्पते ! हे कृष्ण ! स्वेदज, अंडज, उद्भिज् और जरायुज ये चार प्रकार के जीव कहे गए हैं; उन्हें उत्पन्न करने वाले, पालन करने वाले और नाश करने वाले आप ही हैं। माघ कृष्णपक्ष की जो ष‌ट्तिला एकादशी है उसका आपने अच्छी तरह वर्णन किया । अब कृपा करके माघशुक्ला एकादशी का वर्णन करिए। उसका क्या नाम है और व्रत की विधि क्या है? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

श्रीकृष्णजी बोले – हे राजेन्द्र ! माघ शुक्लपक्ष में जया नाम की एकादशी प्रसिद्ध है; जो सब पापों को दूर करने वाली है, उसे मैं कहूँगा । यह पवित्र एकादशी सभी पापों और पिशाचयोनि को नष्ट करने वाली है। इसका व्रत करने से मनुष्यों को प्रेतयोनि नहीं मिलती । हे राजन् ! इससे बढ़कर पापों को दूर करने वाली और मोक्षदायक कोई दूसरी तिथि नहीं है; इसलिए यत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये । हे राजशार्दूल ! इसकी सुन्दर कथा जो पुराण में कही है, उसे सुनिये। मैंने पद्मपुराण में इसकी महिमा वर्णन की है ।

एक समय इन्द्र स्वर्ग लोक में राज्य कर रहे थे, देवता उस मनोहर स्थान में सुख से निवास करते थे । देवता अमृत पान करते थे और अप्सराएँ उनका सेवन करती थीं। वहाँ कल्पवृक्षों से सुशोभित नन्दन नाम का वन था, जहां अप्सराओं के साथ देवता क्रीड़ा करते थे। हे नृप ! एक समय इन्द्र भी अपनी इच्छा से विहार करने लगे । इन्द्र ने बहुत प्रसन्नता से पचास करोड़ नायिकाओं से नृत्य कराने लगे, गन्धर्व गान करने लगे, वहाँ पुष्पदन्त नाम का गन्धर्व गान कर रहा था ।

चित्रसेन नाम का गन्धर्व, उसकी पुत्री मालिनी और चित्रसेन की स्त्री वहाँ आई, मालिनी के पुष्पवान् नाम का पुत्र और पुष्पवान् के माल्यवान् नाम का पुत्र हुआ । पुष्पवती नाम की गन्धर्षी माल्यवान् गन्धर्व पर मोहित हो गई। कामदेव के पैने बाणों से उसका शरीर घायल हो गया । उसने अपने सुन्दरता से युक्त स्वरूप तथा भाव और कटाक्ष से माल्यवान् को वश में कर लिया। उसके रूप को सुनो; उसकी भुजा तो मानो कामदेव ने गले की फाँसी बनाई है, चन्द्रमा के समान मुख और नेत्र कान तक लम्बे थे ।

हे नृपोत्तम ! कानों में कुण्डल शोभा दे रहे थे, वह सुन्दर आभूषणों से सुशोभित थी । शंख के समान उसका कंठ था पैने और ऊँचे स्तन थे । मुट्ठी के प्रमाण की पतली कमर थी, बड़े नितम्ब और जाँघे लम्बी थीं, लाल कमल के समान शोभायमान चरण थे। ऐसी पुष्पवती पर माल्यवान् भी मोहित हो गया । इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए नृत्य के लिए वे दोनों आये । अप्सराओं के साथ गान करने लगे और मोहित होने से उनका चित्त विचलित हो गया । इससे शुद्ध गायन नहीं कर सके। परस्पर दोनों की दृष्टि बँध गई और इस प्रकार दोनों काम के वशीभूत हो गये ।

ताल और राग की गति बिगड़ने से इन्द्र इन दोनों के मन की बात को जान गया । तब इन्द्र ने अपमान समझ कर कुपित होकर उन दोनों को शाप दे दिया : “मेरी आज्ञा भंग करने वाले मूर्ख पापियो ! तुमको धिक्कार है ! तुम दोनों पिशाच रूप हो जाओ । मनुष्यों के लोक में जाकर अपने कर्म का फल भोगो।”

इस प्रकार इन्द्र के शाप को पाकर वे दोनों बड़े दुखी हुए । इन्द्र के शाप से मोहित होकर वे दोनों हिमालय पर्वत पर पिशाच होकर बड़े दुखी हुए । पिशाच योनि से उन दोनों को बहुत सन्ताप और कष्ट हुआ। शाप से मोहित होने के कारण उनको गंध, रस और स्पर्श का ज्ञान नहीं होता था । शरीर में जलन होती थी, उससे शरीर पीड़ित होकर गिरा जाता था, नींद नहीं आती थी । उस गंभीर पर्वत पर भ्रमण करते हुए शीत से पीड़ित वे दोनों परस्पर वार्तालाप करने लगे । शीत के कारण दाँत कटकटाने लगे और शरीर में रोमांच हो गये । पिशाच शीत से पीड़ित होकर अपनी स्त्री से बोला :

“हमने ऐसा कौन सा दुःखदायी पाप किया है, जिस दुष्कर्म से हम दोनों को पिशाच योनि प्राप्त हुई । मैं पिशाचयोनि को कठोर और निन्दित नरक समझता हूँ, इसलिए किसी प्रकार भी पाप नहीं करना चाहिए ।”

इस प्रकार वे दुःख से घबराकर चिन्ता करने लगे । दैव योग से माघशुक्ला एकादशी आ गई। तिथियों में श्रेष्ठ जया नाम की प्रसिद्ध तिथि आ गई, और संयोगवाश उस दिन उन दोनों ने कुछ आहार नहीं किया ।

हे नृपते ! उस दिन उन दोनों ने जल भी नहीं पिया, न जीव-हिंसा की, न पत्ते और फल ही खाये ।

वे दोनों दुखी होकर पीपल के पेड़ के पास पड़े रहे, उसी तरह पड़े हुए उनको सूर्य अस्त हो गया। अत्यन्त शीतकारिणी रात हो गई, जाड़े से वे से वे काँपने लगे और जड़ हो गये । शरीर और भुजाओं से परस्पर आलिंगन किये हुए पड़े रहे। न नींद आई, न सुख मिला, न मैथुन की इच्छा हुई ।

हे राजशार्दूल ! इस प्रकार इन्द्र के शाप से पीड़ित उन दोनों दुखियों की रात्रि बड़े कष्ट से व्यतीत हुई । परन्तु एकादशी के व्रत और रात्रि में जागरण करने से उन दोनों को व्रत के प्रभाव से जो फल मिला, उसे सुनो । हे नृपते । जया एकादशी का व्रत करने से और विष्णु भगवान के प्रभाव से द्वादशी के दिन दोनों पिशाचयोनि से छूट गए ।

पुष्पवती और माल्यवान् पहले की तरह रूपवान हो गए। पूर्ववत ही स्नेहयुक्त और आभूषणों से सुशोभित हो गये, वे दोनों विमान में बैठ गये, अप्सरागण सेवा करने लगीं, तुम्बुरु आदि गन्धर्व स्तुति करने लगे । हावभाव से युक्त दोनों स्वर्ग लोक में गये । इन्द्र के सम्मुख जाकर प्रसन्नता से प्रणाम किया । उनको पूर्ववत शापमुक्त स्वरूप को देखकर इन्द्र को आश्चर्यचकित हुआ ।

इन्द्र बोले – किस पुण्य के प्रभाव से पिशाचयोनि दूर हुई ? किस देवता ने तुमको मेरे शाप से छुड़ाया है ?

माल्यवान् बोला – भगवान वासुदेव की कृपा से और जया एकादशी के व्रत से हमारा शाप मोचन हुआ है । हे स्वामिन् ! यह बात सत्य है कि उनकी भक्ति के प्रभाव से पिशाचत्व छूट गया। यह सुनकर फिर

इन्द्र बोले – एकादशी का व्रत और विष्णु की भक्ति करने से तुम पवित्र हो गये और मेरे भी पूज्य हो गए । जो मनुष्य शिव तथा विष्णु की भक्ति में लीन हैं वे निःसंदेह हमारे भी पूज्य और वंदनीय हैं। अब पुष्पवती के साथ स्वर्ग में सुख से विहार करो । हे राजन् ! इसलिए एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए ।

हे राजेन्द्र ! जया एकादशी का व्रत ब्रह्महत्या को दूर करने वाला है। जिसने इस व्रत को किया है, हे नृप ! उसको सब दान और यज्ञों का फल प्राप्त हो गया । जिसने जया एकादशी व्रत कर लिया उसको सब तीर्थों के स्नान का फल मिलता है जो कोई श्रद्धा और भक्ति से जया का व्रत करता है, वह करोड़ों कल्प तक बैकुण्ठ में आनन्द प्राप्त करता है। इस एकादशी के माहात्म्य का पाठ करने और कथा सुनने से अग्निहोत्र यज्ञ का फल मिलता है ।

जया एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ

माघ मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी होती है उसका नाम जया एकादशी है। कथा के अनुसार पुष्पवती गंधर्वी और माल्यवान गन्धर्व एक बार इन्द्र की सभा में नृत्य करते हुए काममोहित हो गए तो इंद्र ने उन्हें पिशाच बनने का श्राप दे दिया जिसके कारण दोनों हिमालय पर्वत पर पिशाच बनकर कष्ट भोगने लगे। कष्टमय जीवन व्यतीत करते हुये एक समय माघ शुक्ल एकादशी प्राप्त हुयी। अत्यधिक ठंढ के कारण दोनों दुःखी थे और उस दिन किसी तरह की हिंसा न करते हुए भोजन भी नहीं किया। रात काटना भी मुश्किल था अतः परस्पर आलिंगन करते हुये रात काटी किन्तु मैथुन नहीं किया।

अगले दिन प्रातः काल जया एकादशी की कृपा से दोनों शापमुक्त होकर पुनः स्वर्ग लोक चले गये और जब इंद्र ने शापमुक्ति का कारण पूछा तो उसने जया एकादशी और भगवान वासुदेव की कृपा बताया। तब इन्द्र ने भी भगवान विष्णु के भक्त और एकादशी करने वाले को वंदनीय घोषित किया।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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