कार्तिक माहात्म्य अध्याय 26 मूल संस्कृत में, अर्थ हिन्दी में

कार्तिक माहात्म्य - षड्विंशोऽध्यायः, कार्तिक माहात्म्य अध्याय 26

कार्तिक माहात्म्य छब्बीसवें अध्याय एक पापी ब्राह्मण धनेश्वर की कथा है जो मात्र कार्तिक मास करने वालों का संसर्ग प्राप्त करने से नरक की यातना से बच गया। वो पापाचारी था और व्यापार के सिलसिले में महिष्मतीपुरी गया। वहाँ नर्मदा नदी के पास कई भक्त कार्तिक मास कर रहे थे। धनेश्वर ने कुछ समय वहाँ बिताया और भक्तों के पुण्य का आनंद लिया। फिर सर्पदंश के कारण अचानक वह यमलोक को प्राप्त हुआ और वहां एक विशेष घटना देखी गयी। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।

कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 26 हिन्दी में

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – पूर्वकाल में अवन्तिपुरी (उज्जैन) में धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था, किन्तु वह नाममात्र का ही ब्राह्मण था, वास्तव में ब्राह्मणत्व नामक कोई तत्व धारण नहीं करता था और पापाचारी था, अर्थात कर्महीन, पापात्मा, दुर्मति था। उस पर की गई दया का कोई विचार नहीं कर रहा था; उसकी दिनचर्या में न तो श्रद्धा थी और न ही त्याग। वह रस, चमड़ा और कम्बल आदि का व्यापार करता था, अर्थात निषिध वृत्ति में रत था, असत्यभाषी और चोर भी था। उसका जीवन सदैव भ्रम और असत्य में लिप्त था, और यह सब उसकी नीच भावना और दुराचरण का परिणाम था।

वह वैश्यागामी और मद्यपान आदि बुरे कर्मों में लिप्त रहता था और इसी कारण उसका चित्त सदा दुःखी ही रहता था। वह रात-दिन पाप में रत रहता था और व्यापार करने नगर-नगर घूमता था। एक दिन वह क्रय-विक्रय के कार्य से घूमता हुआ महिष्मतीपुरी में जा पहुंचा, जो राजा महिष ने बसाई थी। वहाँ पापनाशिनी नर्मदा सदैव शोभा पाती है। उस नदी के किनारे कार्तिक का व्रत करने वाले बहुत से मनुष्य अनेक गाँवों से स्नान करने के लिए आये हुए थे। धनेश्वर ने उन सबको देखा और अपना सामान बेचता हुआ वह भी एक मास तक वहीं रहा।

वह अपने वस्तुओं को बेचता हुआ नर्मदा नदी के तट पर घूमता हुआ स्नान, जप और देवार्चन में लगे हुए ब्राह्मणों को देखता और वैष्णवों के मुख से भगवान विष्णु के नामों का कीर्तन सुनता था।

  • वह वहाँ रहकर उनको स्पर्श करता रहा, उनसे बातचीत करता रहा। वह कार्तिक के व्रत की उद्यापन विधि तथा जागरण भी देखता रहा।
  • उसने पूर्णिमा के व्रत को भी देखा कि व्रती ब्राह्मणों तथा गऊओं को भोजन करा रहे हैं, उनको दक्षिणा आदि भी दे रहे हैं।
  • उसने नित्य प्रति भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए होने वाली दीपमाला भी देखी।

त्रिपुर नामक राक्षस के तीनों पुरों को भगवान शिव ने इसी तिथि को जलाया था, इसलिए शिवजी के भक्त इस तिथि को दीप-उत्सव मनाते हैं। जो मनुष्य मुझमें और शिवजी में भेद करता है, उसकी समस्त क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।

इस प्रकार नर्मदा तट पर रहते हुए जब उसको एक माह व्यतीत हो गया, तो एक दिन अचानक उसे किसी काले साँप ने डस लिया। इससे विह्वल होकर वह भूमि पर गिर पड़ा। उसकी यह दशा देखकर वहाँ के दयालु भक्तों ने उसे चारों ओर से घेर लिया और उसके मुँह पर तुलसीदल मिश्रित जल के छींटे देने लगे। (यह जल उसके पापों को धोने का प्रतीक था) जब उसके प्राण निकल गये, तब यमदूतों ने आकर उसे बाँध लिया और कोड़े बरसाते हुए उसे यमपुरी ले गये।

उसे देखकर चित्रगुप्त ने यमराज से कहा – इसने बाल्यावस्था से लेकर आज तक केवल पापाचार ही किए हैं, इसके जीवन में तो पुण्य का लेशमात्र भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि मैं पूरे एक वर्ष तक भी आपको सुनाता रहूँ, तो भी इसके पापों की सूची समाप्त नहीं होगी। यह महापापी है, इसलिए इसको एक कल्प तक घोर नरक में डालना चाहिए।

चित्रगुप्त की बात सुनकर यमराज ने कुपित होकर कालनेमि के समान अपना भयंकर रूप दिखाते हुए अपने अनुचरों को आज्ञा देते हुए कहा – हे प्रेत सेनापतियों! इस दुष्ट को मुगदरों से मारते हुए कुम्भीपाक नरक में डाल दो। सेनापतियों ने मुगदरों से उसका सिर फोड़ते हुए कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तेल के कड़ाहे में डाल दिया।

प्रेत सेनापतियों ने उसे जैसे ही तेल के कड़ाहे में डाला, वैसे ही वहाँ का कुण्ड शीतल हो गया, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पूर्वकाल में प्रह्लादजी को डालने से दैत्यों की जलाई हुई आग ठण्डी हो गई थी। यह विचित्र घटना देखकर प्रेत सेनापति यमराज के पास गये और उनसे सारा वृत्तान्त कहा। सारी बात सुनकर यमराज भी आश्चर्यचकित हो गये और इस विषय में पूछताछ करने लगे।

इसी समय नारदजी वहाँ आये और यमराज से कहने लगे – सूर्यनन्दन! यह ब्राह्मण नरकों का उपभोग करने योग्य नहीं है। जो मनुष्य पुण्य कर्म करने वाले लोगों का दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्य का षष्ठांश (छठा अंश) प्राप्त कर लेता है। यह धनेश्वर तो एक मास तक श्रीहरि के कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करने वाले असंख्य मनुष्यों के सम्पर्क में रहा है। अत: यह उन सबके पुण्यांश का भागी हुआ है।

इसको अनिच्छा से पुण्य प्राप्त हुआ है, इसलिए यह यक्ष की योनि में रहे और पाप भोग के रूप में सब नरक का दर्शन मात्र करके ही यम यातना से मुक्त हो जाए। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – सत्यभामा! नारदजी के इस प्रकार कहकर चले जाने के पश्चात धनेश्वर को पुण्यात्मा समझते हुए यमराज ने दूतों को उसे नरक दिखाने की आज्ञा दी।

कार्तिक माहात्म्य अध्याय 26 भावार्थ/सारांश

पूर्वकाल में अवन्तिपुरी में धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो नाममात्र का ही ब्राह्मण था, जो वास्तव में पापाचारी और दुर्मति था। वह रस, चमड़ा और कम्बल आदि का व्यापार करता था और असत्यभाषी था। उसका जीवन भ्रम और असत्य में लिप्त था। एक दिन वह महिष्मतीपुरी पहुँचा, जहाँ पापनाशिनी नर्मदा के तट पर कार्तिक का व्रत करने वाले लोग स्नान कर रहे थे। धनेश्वर ने ब्राह्मणों को देखकर उन सभी के साथ रहकर भगवान विष्णु के नामों का कीर्तन सुना और दीपमाला भी देखी।

एक महीने बाद, एक दिन उसे काले साँप ने डस लिया, जिससे वह गिर पड़ा। भक्तों ने उसकी मदद की, लेकिन यमदूतों ने उसे यमपुरी ले जाकर चित्रगुप्त से कहा कि इसके जीवन में पुण्य का अभाव है। चित्रगुप्त ने सुझाव दिया कि उसे नरक में डाल दिया जाए। यमराज के दूतों ने उसे कुम्भीपाक नरक में डाला, लेकिन वहाँ का तेल ठंडा हो गया। प्रेत सेनापतियों ने यमराज को बताया, जिससे यमराज अचंभित हो गए।

उसी समय नारदजी आए और कहा कि धनेश्वर ने पुण्यात्माओं के दर्शन-संभाषण-स्पर्श आदि संसर्ग से पुण्य प्राप्त किया है। उन्होंने कहा कि धनेश्वर के पाप नष्ट हो चुके हैं क्योंकि यह पुण्य कर्म करने वाले लोगों के संपर्क में रहा है। इसके बाद यमराज ने धनेश्वर को नरक दिखाने की आज्ञा दी।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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