कलयुग, शूद्र और स्त्री की श्रेष्ठता का निर्धारण विष्णु पुराण के छठे अंश के द्वितीय अध्याय में स्वयं व्यास जी ने किया है। यहां श्रेष्ठता का निर्धारण गुण-दोष आदि नहीं अपितु ‘साधना की सुगमता’ और ‘फल प्राप्ति’ का है अर्थात जिस प्रकार से सरलता पूर्वक आत्मकल्याण किया जा सके वही श्रेष्ठ है। आत्मकल्याण का मार्ग सरल नहीं है किन्तु इस प्रसंग में सरलता का ज्ञान भी प्राप्त होता है कि किस प्रकार बिना कठिन साधना के आत्मकल्याण किया जा सकता है।
स्त्री, शूद्र और कलयुग श्रेष्ठ क्यों है – Stri, Shudra & Kalyug kyu shreshth hai
श्रीमद्भागवतम् (१२.३.५१) का एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक है:
“कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः। कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्॥”
अर्थ: हे राजन! यद्यपि कलयुग दोषों का सागर है, फिर भी इसमें एक महान गुण है—केवल भगवान (कृष्ण) के नाम का संकीर्तन (कीर्तन/जाप) करने से ही मनुष्य भौतिक बंधनों से मुक्त हो जाता है और परम धाम को प्राप्त करता है।
कलयुग की इस विशेषता के साथ शूद्र और स्त्री की भी बड़ी विशेषता होती है और उन्हें आत्मकल्याण के लिये कठिन तप-व्रत आदि करने की आवश्यकता नहीं होती जो इस कथा के माध्यम से स्पष्ट होता है।
विष्णु पुराण की कथा के अनुसार एक बार मुनियों के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि “किस समय में थोड़ा सा पुण्य करके भी महान फल प्राप्त होता है और कौन सुखपूर्वक अर्थात बिना कष्ट का उसका अनुष्ठान कर सकता है ?” इसी प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने के लिये वे सभी व्यास जी के पास गये, वहां व्यास जी गंगा में स्नान कर रहे थे। मुनिगण प्रतीक्षा करने लगे और इसी क्रम में ने
- “कलयुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है” ऐसा कहकर डुबकी लगाया। पुनः
- “शूद्र ही साधु है, शूद्र ही धन्य है” ऐसा कहकर डुबकी लगाया। और तीसरी बार में
- “स्त्रियां ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है ?” ऐसा कहकर डुबकी लगाया।
मग्रोऽथ जाह्नवीतोयादुत्थायाह सुतो मम । कलिः साधुः कलिः साधुरित्येवं शृण्वतां वचः ॥
तेषां मुनीनां भूयश्च ममज्ज स नदीजले । साधु साध्विति चोत्थाय शूद्र धन्योऽसि चाब्रवीत् ॥
निमग्नश्च समुत्थाय पुनः प्राह महामुनिः । योषितः साधुधन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः ॥
सभी मुनि गण देख-सुन रहे थे, व्यास जी भी जान-बुझ कर सुना ही रहे थे।
तदनन्तर जब स्नानादि से निवृत्त होकर मुनियों से व्यास जी मिले तो अभिवादन आदि के उपरांत उन्होंने आने का प्रयोजन पूछा तो
- मुनियों ने कहा : हम तो एक संदेह निवारण के लिये आये थे किन्तु अब दूसरा संदेह उत्पन्न हो गया है एवं पहले तो उसका निवारण करें।
- व्यास जी ने कहा : ऐसा दूसरा संदेह कौन सा यहां उत्पन्न हो गया है वो बतावें।
- मुनियों ने कहा : आपने जब स्नान करके समय कई बार कहा – “कलयुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है, स्त्रियां ही साधु हैं, धन्य हैं” सो इसका कारण बतायें इसी विषय को पहले समझाने की कृपा करें।
अलं तेनास्तु तावन्नः कथ्यतामपरं त्वया । कलिः साध्विति यत् प्रोक्तं शूद्रः साध्विति योषितः ॥
यदाह भगवान् साधु धन्याश्चेति पुनः पुनः । तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामो न चेद्गुह्य महामुने ॥
व्यास जी ने कहा ठीक है तो पहले इसका ही कारण जान लें कि कलयुग, शूद्र और स्त्री को श्रेष्ठ/धन्य/साधु है।
कलयुग क्यों श्रेष्ठ है
सतयुग में जितना पुण्य १० वर्षों की तपस्या/व्रतादि से प्राप्त होता है त्रेतायुग में एक वर्ष में ही प्राप्त हो जाता है और वही द्वापर युग में एक मास में प्राप्त होता है एवं कलयुग में एक दिनरात में ही प्राप्त हो जाता है।
सतयुग में ध्यान से, त्रेता में यज्ञ से और द्वापर में देवार्चन करने से जो फल प्राप्त होता है वही फल कलयुग में भगवान श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करने मात्र से प्राप्त हो जाता है। कलयुग में अल्प प्रयास से महान पुण्य की प्राप्ति होती है इसलिये कलयुग श्रेष्ठ है, धन्य है।
यत्कृते दशभिर्वर्षैस्त्रेतायां हायनेन तत् । द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रेण तत् कलौ ॥
तपसो ब्रह्यचर्य्यस्य जपादेश्च फलं द्विजाः । प्राप्नोति पुरुषस्तेन कलिस्साध्विति भाषितम् ॥
ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्च्चयन् । यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्त्य केशवम् ॥
शूद्र क्यों श्रेष्ठ है
द्विजातियों को सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुये वेदाध्ययन करना होता है, फिर धर्मपूर्वक धनोपार्जन अर्जित धन द्वारा पुनः विधिपूर्वक यज्ञ करना होता है और इनमें अनेकों विधि-निषेध होते हैं जिनका उल्लंघन करने पर पतन हो जाता है। आगे वो भोजन आदि में भी शास्त्राज्ञा से बंधे होते हैं और यदि स्वेच्छाचार करें अर्थात शास्त्र विरुद्ध जीवन-यापन करें तो पतन के अधिकारी हो जाते हैं। इस प्रकार आत्मकल्याण के लिये द्विजातियों को अत्यंत क्लेश सहन करने होते हैं।
किन्तु शूद्र द्विजों की सेवा मात्र करने से ही सद्गति प्राप्त कर लेता है। शूद्र हेतु भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय आदि का कोई विचार नहीं है। इसलिये शूद्र को श्रेष्ठ कहा, धन्य कहा, साधु कहा।
द्विजशुश्रूषयैवैष पाकयज्ञाधिकारवान् । निजान्जयति वै लोकाञ्छूद्रो धन्यतरस्ततः ॥
भक्ष्याभक्ष्येषु नास्यास्ति पेयापेयेषु वै यतः । नियमो मुनिशार्दूलास्तेनासौ साध्वितीरितः ॥
स्त्री क्यों श्रेष्ठ है
पुरुषों को आत्मकल्याण के लिये धर्मपूर्वक धनार्जन करके उससे दान, यज्ञ आदि विधिपूर्वक करना होता है। एक तो धनोपार्जन में कष्ट, दूसरा रक्षण में क्लेश ऊपर से दुरुपयोग करने पर भी बड़ा दुःख भोगना पड़ता है। इस प्रकार पुरुषों को आत्मकल्याण के लिये बड़े कष्ट भोगने होते हैं किन्तु स्त्रियों को मात्र मनसा, वाचा, कर्मणा पति सेवा से ही अनायास कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। इसलिये स्त्रियों को श्रेष्ठ, धन्य कहा।
एभिरन्यैस्तथा क्लेशैः पुरुषा द्विजसत्तमाः । निजाञ्जयन्ति वै लोकान्प्राजापत्यादिकान्क्रमात् ॥
योषिच्छुश्रूषणाद्भर्त्तुः कर्म्मणा मनसा गिरा । तद्धिता शुभमाप्नोति तत्सालोक्यं यतो द्विजाः ॥
कलयुग, शूद्र और स्त्रियों को मैंने साधुवाद क्यों दिया, धन्य क्यों कहा; उसका रहस्य यही है। अब आप अपना संदेह प्रकट करें जिसके लिये यहां आये हैं उसका भी निराकरण करूँगा।
व्यास जी के इस प्रकार कहने पर मुनियों ने कहा मेरा जो संदेह था और जो मैं जानना चाहता था वो इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में अपने बता दिया, इसलिये अब और कुछ संदेह शेष नहीं है।
निष्कर्ष : आत्मकल्याण करने के लिये ही सभी को मानव शरीर की प्राप्ति होती है जिसमें द्विजाति को बड़े ही क्लेश होते हैं। किन्तु स्त्री और शूद्रों को आत्मकल्याण के लिये अधिक श्रम/क्लेश करने की आवश्यकता नहीं होती है, स्त्री पति की सेवा मात्र से और शूद्र द्विजों की सेवा मात्र से आत्मकल्याण के अधिकारी हो जाते हैं एवं इसी कारण धन्य कहे गये हैं। इसके साथ ही सतयुग, त्रेता, द्वापर इन तीनों युगों की तुलना में कलयुग में बहुत ही अल्प प्रयास मात्र नाम संकीर्तन से ही आत्मकल्याण हो जाता है इसलिये अन्य सभी युगों की तुलना में कलयुग श्रेष्ठ होता है।
उक्त कथा का प्रकरण यहां स्पष्ट होने के साथ ही वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कुछ और भी स्पष्ट होता है। देश की वर्त्तमान दशा का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि नेताओं ने ऐसा घृणित वातावरण निर्मित कर रखा है कि किसी को भी आत्मकल्याण के विषय में सोचने का भी अवकाश नहीं है, परस्पर सभी द्वेष से भरे हुये हैं और पतन के अधिकारी बनते जा रहे हैं। संदर्भ से उत्पन्न होने वाले कुछ जटिल प्रश्न इस प्रकार हैं जिनका विचार करना अत्यावश्यक है :
- हिन्दू/हिंदुत्व/सनातन/धर्म आदि की चर्चा तो बहुत की जा रही है किन्तु क्या आत्मकल्याण के मार्ग का कोई विचार किया जाता है ?
- यदि लोगों को आत्मकल्याण का विचार ही नहीं करना है तो धर्म-धर्म चिल्लाने से क्या लाभ ?
- सभी लोग/वर्ग परस्पर द्वेष कर रहे हैं तो क्या आत्मकल्याण संभव है अथवा नरकगामी बन रहे हैं ?
- क्या घृणित राजनीति करने वाले राजनेताओं ने ही देश का ऐसा वातावरण बना दिया है जिसमें सभी परस्पर द्वेष करने लगे हैं ?
- समाधान क्या है ?
आगे हम इन सभी प्रश्नों के ऊपर व्यापक विमर्श करेंगे और यह समझने का प्रयास करते हुये इसके समाधान की दिशा में क्या-क्या अपेक्षित है उसे भी समझेंगे……. आगे पढ़ें….