स्त्री, शूद्र और कलयुग श्रेष्ठ क्यों है – Stri, Shudra & Kalyug kyu shreshth hai

स्त्री, शूद्र और कलयुग श्रेष्ठ क्यों है - Stri, Shudra & Kalyug kyu shreshth hai स्त्री, शूद्र और कलयुग श्रेष्ठ क्यों है - Stri, Shudra & Kalyug kyu shreshth hai

धर्म का उद्देश्य : आत्मकल्याण या विवाद

वर्त्तमान युग में देश की दशा देखते हुये यह पूर्णतः सिद्ध हो रहा है कि धर्म की चर्चा करते हुये भी परस्पर विवाद/द्वेष आदि करने की प्रवृत्ति पनप रही है, आत्मकल्याण करना है यह कोई नहीं सोच रहा है अपितु अधिकार की लड़ाई में उलझता जा रहा है। घृणित राजनीति करने वाले राजनेता दलित-वंचित आदि शब्द मढ़कर धर्म के नाम पर मंदिर में पुजारी बनने के लिये एवं अन्यान्य अनधिकृत कर्म में अधिकार के लिये जनमानस को उद्वेलित किया जाता है जो नरकगामी बनाने वाले हैं।

धर्म किसी को नरकगामी बनाने के लिये तो नहीं है न, किन्तु धर्म के नाम पर यदि शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके अधिकार की लड़ाई करेंगे, शास्त्र विरुद्ध आचरण/व्यवहार/कर्म करेंगे तो वह नरकगामी ही बनाता है।

धर्म-धर्म चिल्लाने वालों को यदि यह समझ ही नहीं आता है तो उनको धर्म-धर्म चिल्लाने का भी अधिकार नहीं होना चाहिये, किन्तु विडम्बना यह है कि धर्म के विषय में वही लोग देश को सिखाने-समझाने का प्रयास करते हैं। कुछ उदाहरण को समझते हैं :

सबसे बड़ा उदाहरण उक्त कथा के माध्यम से ही स्पष्ट होता है और वो यह है कि शूद्रों का कल्याण द्विजों की सेवा करने से होता है और इसी कारण शूद्र को साधु/धन्य/श्रेष्ठ कहा गया। वर्त्तमान में दलित/वंचित/शोषित वर्ग आदि की घृणित रजनीति के साथ उनके अधिकार की बात की जाती है और पूरे वर्ग के मन में द्विजों के प्रति घृणा का भाव भर दिया गया है।

  • सेवा करना तो दूर सेवा लेने का विपरीत आचरण/व्यवहार सिखाया जा रहा है, द्विजों को उत्पीड़ित कराया जा रहा है। यह विपरीत कार्य आत्मकल्याण का अधिकारी बनायेगा या नरकगामी बनायेगा इतना सोचने तक का अवकाश किसी को नहीं दिया जा रहा है।
  • शूद्र श्रेष्ठ/धन्य/साधु है इसका कारण द्विजाति की सेवा मात्र से आत्मकल्याण कर सकता है; यह है न कि यह अहंकार करने का विषय है किन्तु यदि यही चर्चा करेंगे तो सेवा भाव के लिये न करके अधिकार की लड़ाई जैसे मंदिर में पुजारी बनने का अधिकार, कर्मकांड का अधिकार आदि की। विचार करें ऐसा प्रयास आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है अथवा नरक का द्वार खोलता है ।
  • यदि शास्त्र के अनुसार द्विजाति की सेवा से शूद्र आत्मकल्याण का अधिकारी बनता है तो ये अधिकार की लड़ाई कहां से आ गयी ? श्रेष्ठता/साधुता का कारण द्विजाति की सेवा है तो इसके लिये क्यों नहीं प्रेरित करते हैं ? अधिकार की लड़ाई लगाकर नरक में धकेलने का पाप क्यों किया जा रहा है ? ऐसा कौन कर रहा है ? क्या घृणित राजनीति करने वाले नेता ही ऐसा नहीं कर रहे हैं ?

मन में मीडिया/फिल्म जगत/सीरियल बनाने वाले आदि अनेकों घटक का चित्र आ सकता है किन्तु ये सभी नेताओं के घृणित राजनीति के कारण ही उत्पात मचा रहे हैं। नीति-निर्माता नेता यही सही से कार्य करने लगें तो ये सब भी उसी दिशा में कार्य करने लगेंगे।

स्त्री इसलिये धन्य/साधु/श्रेष्ठ है क्योंकि वह पातिव्रत्य धर्म का पालन करके ही आत्मकल्याण कर सकती है, अन्य कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है। तो फिर

  • स्त्रियां धार्मिक अधिकार की लड़ाई क्यों कर रही है ?
  • दुराचार क्यों बढ़ रहा है ?
  • लिविंग सामान्य घटना कैसे हो गयी और मान्यता प्राप्त कैसे हो गया ?
  • तलाक कहां से आ गया ?
  • क्या पतिव्रता स्त्री तलाक के बारे में सोच भी सकती है ?
  • जो दुराचार कर रही है, तलाक ले रही है, लिविंग में रह रही है, वो पतिव्रता है क्या यह सिद्ध हो सकता है ?
  • नेताओं ने तो यहां तक घृणित राजनीति कर दिया है कि अब स्त्रियां अपने पति पर बलात्कार का आरोप लगा सकती है, अपने ही पति को प्रताड़ित कर रही है अनेकों प्रताड़ित पतियों आत्महत्या किया है ?
  • पति की हत्या तक भी कर रही हैं और ऐसे अनेकों कांड हो रहे हैं। क्या यही धर्म है ?

कलयुग श्रेष्ठ इसलिये है कि मात्र नाम संकीर्तन से ही आत्मकल्याण सम्भव है तो फिर शूद्रों/स्त्रियों के मन में यज्ञ/पुजारी/कर्मकांड/व्यास (कथावाचक) आदि बनने दुर्विचार कैसे उत्पन्न हो रहा है ?

  • क्या ये घृणित राजनीति की देन नहीं है ?
  • क्या इस प्रकार धर्म का पालन किया जाता है ? और
  • क्या ऐसे धर्म पालन करके आत्मकल्याण संभव है ?

इस विषय में और अधिक स्पष्टता की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इतने में यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्त्तमान युग में घृणित राजनीति ने जनमानस को धर्म-धर्म चिल्लाना तो सिखाया है किन्तु धर्म का पालन करना नहीं, कर्तव्य कर्म के विषय में अधिकार की लड़ाई सिखाया और सभी आत्मकल्याण के पथ से भ्रष्ट होकर धर्म-धर्म चिल्लाते हुये भी नरकगामी बनते जा रहे हैं।

जातिवाद की आग लगा दी गई है और शूद्र द्विजाति की सेवा के स्थान पर द्विजाति का उत्पीड़न कर रहा है, अधिकार का अपहरण कर रहा है। स्त्रियां पतिव्रता बनने के स्थान पर पति का उत्पीड़न करने लगी हैं, लिविंग में रहती हैं, तलाक देती हैं, दुराचार करती हैं आदि-इत्यादि अधिक बोलना भी संभव नहीं है क्योंकि इतना पचा पाना भी संभव नहीं है।

धर्म आत्मकल्याण के लिये आवश्यक है या विवाद के लिये

यदि द्विजाति की बात करें तो धर्मपूर्वक अर्थोपार्जन का सिद्धांत प्रकट होता है और यहीं पर जो देखा जा रहा है वो यह कि लोग अर्थलोलुप हो गए हैं और अर्थातुरता इतनी है कि अर्थोपार्जन में रत्तीभर भी धर्म का विचार नहीं किया जाता है, पाप जितना अधिक कर सकें।

  • क्या इस प्रकार से आत्मकल्याण संभव है ?
  • क्या ऐसे ही लोग धर्म-धर्म नहीं चिल्लाते रहते हैं ?
  • अर्थोपार्जन में धर्म को स्थिर रखना और संचित अर्थ से धर्म करना यही आत्मकल्याण का मार्ग है तो इसका त्याग क्यों कर दिया गया है ?
  • क्या घृणित राजनीति ही इसका भी मुख्य कारण नहीं है ?

अंतर्जातीय विवाह करके वर्णसंकर संतानों को उत्पन्न करना नरक का मार्ग है और व्यक्ति स्वयं ही नरकगामी नहीं बनता अपितु पितरों को भी नरक में ढकेलता है ऐसा गीता में कहा गया है। तो धर्म-धर्म चिल्लाने वाले ये अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित कैसे कर रहे हैं, स्वयं क्यों कर रहे हैं ?

  • विधवा का शील भंग करना भी बड़ा पाप है तो विधवा के साथ विवाह कैसे किया जा रहा है और यदि कर ही रहे हैं तो धर्म-धर्म क्यों चिल्लाते हैं ?
  • परस्त्री को भी नरक का द्वार कहा गया है फिर तलाक और पुनर्विवाह का खेल क्यों किया जा रहा है ? विवाह कानूनी निबंधन का नाम नहीं है, विधि पूर्वक विवाह किया जाना है और उसके बाद दम्पति पति-पत्नी हो जाते हैं और अन्य के लिये परस्त्री-परपुरुष कहलाते हैं और तब भी कहलाते हैं जब वो कानूनी तलाक ले लें, फिर उनसे पुनर्विवाह करने वाला नरक का भागी तो बनता ही है। और विडम्बना यह है कि ऐसे लोग भी धर्म-धर्म चिल्लाते रहते हैं।

धर्म क्या है

सरल शब्दों में धर्म आत्मकल्याण का साधन है और धर्म के बिना आत्मकल्याण संभव ही नहीं है। धर्म ही हमें व्यवस्थित जीवन जीने के लिये प्रेरित करता है जिससे परिवार-समाज-राष्ट्र में भी सुख-शांति-समृद्धि की स्थापना होती है और धर्म ही हमारा उद्धार भी करता है अर्थात धर्म से ही आत्मकल्याण के अधिकारी भी बनते हैं।

इसमें आगे एक गंभीर प्रश्न है धर्म का ज्ञान कहां से और कैसे प्राप्त करें ? क्योंकि सभी समस्याओं का मूल तो यही है कि हम धर्म का ज्ञान ही प्राप्त नहीं कर रहे हैं और तर्क-कुतर्क आदि करके मनगढंत व्याख्या करते रहते हैं, मनोनुकूल कार्य को ही धर्म सिद्ध करते रहते हैं। धर्म का ज्ञान गुरु/ब्राह्मण द्वारा ही प्राप्त हो सकता है जो शास्त्रों में वर्णित है।

यहां पुनः अगला प्रश्न है कि अब तो गुरु/ब्राह्मण भी मनोनुकूल सिद्धि ही करते हैं, तर्क-कुतर्क से ही सिद्धि भी करते हैं तो यहाँ उत्तर यह है कि शास्त्रानुकूल होने पर ही गुरु हो सकते हैं ज्ञान प्रदायक हो सकते हैं। ज्ञान देने वाले को शास्त्राधीन होना अनिवार्य है, यदि ज्ञानदाता शास्त्र से ज्ञान नहीं देता अपितु तर्क-कुतर्क मात्र से सिखाता-समझाता है तो वह गुरु नहीं है। गुरु से शास्त्र का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिये।

देश में ऐसे वातावरण का निर्माण कर दिया गया है कि जितने भी धूर्त/ठग/लुटेरे हैं वो नेता/कथावाचक आदि का चोला धारण कर लेते हैं और जनमानस को भ्रमित करते रहते हैं। प्रसिद्धि भी यही प्राप्त करते हैं क्योंकि वर्त्तमान में शास्त्रानुसार ज्ञान देने वाला प्रसिद्धि प्राप्त नहीं करता है लोगों में मनोनुकूल तर्क-कुतर्क से सिद्ध करने वाला प्रसिद्ध बनता है, साथ ही प्रसिद्ध करने का भी एक षड्यंत्र देश में चल रहा है और उसका आश्रय लेकर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है। ऐसे नेता हों या कथावाचक इन सबसे बचने का प्रयास करना चाहिये। नेताओं की तो कोई भी बात मान्य होती ही नहीं है यदि कुछ अपवादों का त्याग कर दें।

अर्थात जब हम गुरु को ढूंढें तो निम्न तथ्यों का विशेष ध्यान रखना होगा :

  • वो धरातल पर प्रसिद्ध हों, मीडिया/सोशल मीडिया/दूरदर्शन आदि पर नहीं।
  • उनके शिष्यों की संख्या सहस्रों में ही हो लक्षों में नहीं।
  • वो शास्त्रोक्त चर्चा अधिक करते हों, प्रमाणों से पुष्टि करते हों, तर्क मात्र से नहीं।
  • धर्म के सभी विषयों में शास्त्र को ही प्रमाण मानते हों और सभी शास्त्र की प्रामाणिकता स्वीकारते हों, प्रक्षिप्तवाद के प्रचारक न हों।
  • भोगी न हों अर्थात विलासितापूर्ण जीवन न जीते हों।
  • किसी भी राजनीतिक दल के नेता/कार्यकर्त्ता/अंधसमर्थक न हों।
  • कर्मकाण्ड में वस्तु की शुद्धता के प्रति सजग रहते हों।
  • आहार के विषय में इतने सजग हों कि होटल के बने तो दूर, पाचक/परिवेषक आदि का परिक्षण किये बिना भोज भी न खाते हों। बाजार में बनी कोई भी वस्तु न खाते हों, बोतल का पानी आदि न पीते हों।
  • बलि के निंदक नहीं हों किन्तु प्याज-लहसुन को पूर्णतः निषिद्ध मानते हों। आज के सभी कथित संत/धर्मगुरु आदि मांसाहार/बलि की निंदा तो करते हैं किन्तु जो वास्तव में अभक्ष्य है उसकी नहीं करते।
  • किसी भी प्रकार का NGO आदि चलाने का कार्य न करते हों।
  • किसी भी प्रकार से वेतनभोगी न हों अर्थात सेवा वृत्ति स्वीकार करने वाले सेवक न हों।
  • किसी भी प्रकार से वेतनभोगी न हों अर्थात सेवा वृत्ति स्वीकार करने वाले सेवक न हों और व्यापारी भी न हों अर्थात किसी भी प्रकार का विक्रय न करते हों।

इसके साथ ही और भी अनेकों विषय हो सकते हैं जो वर्त्तमान काल के अनुसार विचार करके ही गुरु बनाना चाहिये। जब हम शास्त्र और धर्म के प्रति निष्ठावान व्यक्ति को गुरु बनायेंगे तभी हम शास्त्र का ज्ञान प्राप्त हो सकता है। यदि हम गुरु ही भोगी-विलासी/अर्थातुर आदि को बना लें तो वो हमें शास्त्रज्ञान नहीं प्रदान कर सकते, धर्म का ज्ञान नहीं दे सकते। जब हम सही व्यक्ति को गुरु बनाकर उनसे शास्त्र ज्ञान प्राप्त करेंगे तभी हमें धर्म का ज्ञान हो सकता है अन्यथा नहीं।

समाधान

जो अंतर्जातीय विवाह का, विधवा विवाह का या अन्य शास्त्र निषिद्ध किसी भी विषय का समर्थक हो उसके धर्म/सनातन/हिन्दू आदि चिल्लाने का कोई औचित्य नहीं है, वह अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये राष्ट्रवाद का नारा लगा सकता है, सनातन-सनातन, धर्म-धर्म चिल्ला सकता है किन्तु वास्तव में वह धर्म के लिये नहीं, आत्मकल्याण के लिये नहीं, सांसारिक प्रसिद्धि; धन आदि के लिये कार्य कर रहा है एवं धर्म के विषय में अवांछित व्यक्ति है।

धर्म/सनातन/हिन्दू/हिन्दूराष्ट्र आदि कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि शास्त्र निषिद्ध कर्मों को करें अपितु यह है कि शास्त्र सम्मत कार्य ही करें। अभी के बड़े-बड़े ढोंगी भगवा धारण करके वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। जातिवाद मिटाओ जैसे नारे लगाते रहते हैं। ये तो इतने मूढ़ हैं कि इन्हें यह ज्ञात ही नहीं कि जाति-व्यवस्था भी शास्त्रोक्त है और वर्ण-व्यवस्था तो है ही। यदि यह धर्म का मुख्य स्तम्भ है तो इससे रहित धर्म कैसा होगा, कैसे होगा ? संभव ही नहीं है।

धर्म के आधार-स्तम्भ तो वर्णाश्रम-व्यवस्था ही हैं। शूद्र वर्ण ही नहीं होगा तो शूद्र धन्य कैसे सिद्ध होगा। कैसी विचित्र परिस्थिति है सभी स्वयं को वर्ण परिवर्तन करके (कर्मणा) ब्राह्मण बनाना भी चाहते हैं और अहर्निश ब्राह्मणों की निंदा ही करते रहते हैं। ब्राह्मणों का निन्दक धर्मात्मा हो ही नहीं सकता है और उसे धर्म के विषय में कुछ भी प्रलाप करने का अधिकार नहीं हो सकता।

देश की अराजकतापूर्ण स्थिति का रोना तो शासक भी रोते हैं एवं अन्य सभी पक्ष भी चाहे-अनचाहे करते हैं। इन लोगों को लगता है कि ऐसा कानून बनाने से सुधार होगा, ऐसा करने से सुधार होगा, किन्तु सुधार होने का नाम नहीं ले रही है। वास्तव में यह सोच ही त्रुटिपूर्ण है कि धर्म का त्याग करके कानून आदि से सुख-शांति की प्राप्ति हो सकती है। शोधन तो उन कानून निर्माताओं का भी अपेक्षित है फिर उनके बनाये कानून क्या शोधन कर सकते हैं। शोधन के लिये कुछ और ही अपेक्षित है जिसे अब समाधान में समझेंगे।

यदि हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ना चाहें तो हमें इन विषयों के लिये वातावरण का निर्माण करना चाहिये :

शास्त्रार्थ की स्वस्थ परम्परा : छोटे-बड़े सभी स्तरों पर शास्त्रार्थ की परम्परा का पुनरारंभ होना चाहिये। सोशल मीडिया/मीडिया/दूरदर्शन आदि पर शास्त्रार्थों का प्रसारण होना चाहिये। यदि जनसामान्य को धर्म का ज्ञान चाहिये, शास्त्र का ज्ञान चाहिये तो यह आवश्यक है कि सभी माध्यमों से उन्हें शास्त्रार्थ देखने-सुनने को मिले। वो शास्त्रार्थ भी कैसा हो तो उसमें वेद-पुराण-स्मृति-उपनिषद-रामायण-महाभारत आदि सभी ग्रंथों को मानने वाले विद्वान करें, ऐसा नहीं कि वेद ही मान्य है शेष सभी प्रक्षिप्त है अथवा जहां अनुकूल होगा वहां ग्राह्य और जहां प्रतिकूल होगा वहां अग्राह्य।

जैसे बहुत सारे संस्था/संगठन धर्म के नाम पर बने हुये हैं जो गीता को तो स्वीकारते हैं किन्तु महाभारत को नहीं। गीता को स्वीकारते भी हैं किन्तु वर्णसंकर को नहीं स्वीकारते। कर्मणा वर्णव्यवस्था होने पर वर्णसंकर उत्पन्न ही नहीं हो सकते क्योंकि जो भी बच्चा जन्म लेगा वह अपने कर्म के द्वारा अपने वर्ण को सिद्ध करेगा, घोषित करेगा, जब मन होगा परिवर्तित करेगा, फिर वर्णसंकर कैसे हो सकता है। जब कर्म से वर्ण का निर्धारण होगा तो वर्णसंकर होगा कैसे ?

अब सोचिये ये बात गीता के भी विरुद्ध है अथवा नहीं और गीता को स्वीकार करके भी यदि कोई कर्मणा वर्ण सिद्ध करे तो वर्णसंकर का क्या होगा और यदि वर्णसंकर को स्वीकार ही न करे तो गीता कैसे स्वीकार किया ?

देश भर में स्वस्थ शास्त्रार्थ हो इसके लिये यह आवश्यक है कि इसके लिये एक स्वतंत्र संस्था बनाई जाय जो सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो किन्तु संरक्षित हो। यह संस्था ग्राम स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक शास्त्रार्थ का आयोजन और उसका प्रचार-प्रसार करे। विजेताओं को अलंकृत करे। निसंदेह यह संस्था शंकराचार्य, वैष्णवाचार्य आदि के द्वारा ही बनायी जा सकती है और इसके लिये समर्पण भाव से उनको भी कार्य करने की आवश्यकता होगी।

नेता आदि को धर्म का ज्ञान देना – अब इन विजेताओं को यह अधिकार होना चाहिये कि ये नेता, कर्मचारी, मीडिया, उद्यमी, अभिनेता आदि सभी वर्गों को अपने-अपने स्तर पर धर्म का उपदेश दें। उसके धर्म विरुद्ध कार्यों को धर्मविरुद्ध घोषित करके उसे पदमुक्त करने तक का संदेश उचित प्राधिकरण को दें और उसपर विचार एवं समुचित कार्यवाही भी हो। अभी क्या है जिस भी क्षेत्र में देखें चाहे राजनीति हो, मीडिया हो, फिल्म जगत हो, उद्योग जगत हो सर्वत्र धर्म विरुद्ध कार्य ही किये जा रहे हैं भले ही धर्म-धर्म कितना भी चिल्लाते हों।

प्रमाणन : देश के नेता हों, अभिनेता हों, मीडिया हो या उद्यमी हों इन सबके लिये इनके कार्यों के धर्म-सम्मत होने का प्रमाणक वो संस्था हो जो शास्त्रार्थ के लिये बनाई जाय। फिल्म-सीरियल-उद्योग आदि के लिये तो उक्त संस्था से भी धर्म-सम्मत का प्रमाणपत्र लेने का नियम बना देना चाहिये। देश में जो कानून आदि बनाये जाते हैं उसके लिये भी धर्म-सम्मत का प्रमाणन होना चाहिये। इसका अभाव होने के कारण ही सारे कानून धर्म-विरुद्ध बना दिये गये हैं।

सांप्रदायिक व्यवहार : सांप्रदायिक व्यवहार में स्पष्ट नीति बनाने की आवश्यकता है कि भारत हिन्दुओं का ही राष्ट्र है और अन्य जो भी सम्प्रदाय (बौद्ध-जैन आदि) हैं वो भी भारतीय हैं। इस्लाम-ईसाईयत आदि विदेश मजहब-रिलिजन हैं इनको रहने का तो अधिकार हो सकता है किन्तु सनातन से समानता करने का नहीं, स्वयं को धर्म घोषित करने का नहीं क्योंकि धर्म एक ही है जिसका नाम है सनातन। वर्त्तमान व्यवस्था पूर्णतः विपरीत है यह ध्यातव्य है।

सोचिये आपका घर है और को बेघर आपके घर में आया आपने उसे एक कोने में आश्रय दे दिया तो उसका कितना अधिकार होना चाहिये। उसमें भी तब जबकि उसने अपने कोने को घर से तोड़कर अलग कर लिया हो और कहने लगा हो कि यह मेरा घर है, फिर से एक दूसरे कोने में रहने लगा हो। देश का विभाजन तो यही है न।

निष्कर्ष : भारत कर्मभूमि है जो शास्त्रों में वर्णित है एवं भारत के अतिरिक्त अन्यान्य क्षेत्र भोगभूमि हैं। भारत को अन्यान्य देशों से सीखने की आवश्यकता नहीं है अन्यथा यह भी भोग-भूमि बन जायेगा और बहुत अंशों में तो बन गया है। भारत में जन्म लेने वालों को मोक्ष प्राप्ति का अवसर प्राप्त होता है और इसी दिशा में सक्रीय होना होगा। वर्त्तमान व्यवस्था भोगवादी बना रही है और भोगवादी ही संघर्ष कर रहे हैं, अशांति मचा रखी है, उपद्रव-उत्पात कर रहे हैं।

इसका निराकरण न तो कानून बनाने से हो सकता है न ही शासन के अन्यान्य प्रयासों से। निराकरण मात्र एक है कि धर्म को शास्त्रानुसार स्वीकार किया जाय और शास्त्रों में जो भारतीय शास्त्र हैं उनके अनुसार न कि विदेशी किताबों के अनुसार।

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कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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