राजा पृथु ने मुनिश्रेष्ठ नारद से कृष्णा और वेणी नदियों की कथा पूछी। नारदजी ने बताया कि कैसे ब्रह्मा ने यज्ञ करने का निर्णय लिया था और उस वक्त त्वरा और गायत्री के बीच विवाद हुआ। यज्ञ के समय त्वरा ने गायत्री को अपनी जगह बैठाने पर शाप दिया, कि सब देवता नदियां बन जाएंगे और गायत्री ने त्वरा को भी नदी बनने का श्राप दे दिया। इस पर देवता परेशान हुए और उनकी अनुपस्थिति के कारण यज्ञ में विघ्न आ गया। अंत में, सब देवता अपने अंशों से नदियाँ बने, जिसमें कृष्णा और वेणी शामिल हैं। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 24 मूल संस्कृत में
पृथुरुवाच
कृष्णवेण्योस्तटाद्यस्मात्च्छिवविष्णुगणैः पुरा । वणिक्शरीरात्कलहा निर्मिता कथिता त्वया ॥१॥
प्रभावोऽयं तयोर्नद्योः किंवा क्षेत्रस्य तस्य वा । तन्मे कथय धर्मज्ञ विस्मयोऽत्र महान्मम ॥२॥
नारद उवाच
कृष्णा कृष्णतनुः साक्षाद्वेण्यां देवो महेश्वरः । तत्संगमप्रभावं तु नालं वक्तुं चतुर्मुखः ॥३॥
तथापि तत्समुत्पत्तिं कीर्तयिष्यामि तच्छृणु । चाक्षुषस्यांतरे पूर्वं मनोर्देवः पितामहः ॥४॥
सह्याद्रिशिखरे रम्ये यजनायोद्यतोऽभवत् । स कृत्वा यज्ञसंभारान्सर्वदेवगणैर्वृतः ॥५॥
युक्तो हरिहराभ्यां च तद्गिरेः शिखरं ययौ । भृग्वादयो मुनिगणा मुहूर्ते ब्रह्मदैवते ॥६॥
तस्य दीक्षाविधानाय सभाजं तत्र चक्रिरे । अथ ज्येष्ठां स्वरां पत्नीं विष्णुराह्वयत द्विजैः ॥७॥
साशनैराययौ तावद्भृगुर्विष्णुमुवाच ह ।
भृगुरुवाच
विष्णो स्वरा त्वयाहूता आयाति न हि सत्वरा ॥८॥
मुहूर्त्तातिक्रमश्चायं कार्यो दीक्षाविधिः कथम् ।
विष्णुरुवाच
नायाति चेत्स्वरां शीघ्रं गायत्र्यत्र विधीयताम् ॥९॥
एषापि न भवेत्यस्य भार्या किं पुण्यकर्मणि ।
नारद उवाच
एवमेव हि रुद्रोऽपि विष्णोर्वाक्यममोदत ॥१०॥
तच्छ्रुत्वा स भृगुर्वाक्यं गायत्रीं ब्रह्मणस्तदा । निवेश्य दक्षिणे भागे दीक्षाविधिमथाकरोत् ॥११॥
यावद्दीक्षाविधिं तस्य विधेश्चक्रुर्विधानतः । तावदभ्याययौ तत्र स्वरा यज्ञस्थलं नृप ॥१२॥
ततस्तां दीक्षितां दृष्ट्वा गायत्रीं ब्रह्मणा सह । सपत्नीर्षापरा क्रोधात्स्वरा वचनमब्रवीत् ॥१३॥
स्वरोवाच
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां च व्यतिक्रमः । त्रीणि तत्र भविष्यंति दुर्भिक्षं मरणं भयम् ॥१४॥
येयं च दक्षिणेभागे ह्युपविष्टा मदासने । तस्माल्लोकैः सदाऽदृश्या तनुर्वहतु निम्नगा ॥१५॥
ममासने कनिष्ठेयं भवद्भिः सन्निवेशिता । तस्मात्सर्वे जडीभूता नादीरूपा भविष्यथ ॥१६॥
नारद उवाच
ततस्तच्छापमाकर्ण्य गायत्री कंपिता तदा । समुत्थायाशपद्देवैर्वार्यमाणापि तां स्वराम् ॥१७॥
गायत्र्युवाच
तव भर्त्ता यथा ब्रह्मा ममाप्येष तथा खलु । वृथाशपस्त्वं यस्मान्मां भव त्वमपि निम्नगा ॥१८॥
नारद उवाच
ततो हाहाकृताः सर्वे शिवविष्णुमुखाः सुराः । प्रणम्य दण्डवद्भूमौ स्वरां तत्र विजिज्ञपुः ॥१९॥
देवा ऊचुः
देवि सर्वे वयं शप्ताः ब्रह्माद्या यत्त्वयाऽधुना । यदि सर्वे जडीभूता भविष्यामोऽत्र निम्नगाः ॥२०॥
तदा लोकत्रयं ह्येतद्विनाशं यास्यति ध्रुवम् । अविवेककृतस्तस्माच्छापोऽयं विनिवर्त्यताम् ॥२१॥
स्वरोवाच
नार्चितो हि गणाध्यक्षो यज्ञादौ यत्सुरोत्तमाः । तस्माद्विघ्नं समुत्पन्नं मत्क्रोधजमिदं खलु ॥२२॥
नापि मद्वचनं ह्येतदसत्यं जायते खलु । तस्मात्स्वांशैर्जडीभूता यूयं भवत निम्नगाः ॥२३॥
आवामपि सपत्न्यौ च स्वांशाभ्यामपि निम्नगे । भविष्यावोऽत्र वै देवाः पश्चिमाभिमुखावहे ॥२४॥
नारद उवाच
इति तद्वचनं श्रुत्वा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । जडीभूताभवन्नद्यः स्वांशैरेव तदा नृप ॥२५॥
तत्र विष्णुरभूत्कृष्णा वेण्या देवो महेश्वरः । ब्रह्मा ककुद्मिनी चापि पृथगेवाभवत्तदा ॥२६॥
देवाः स्वानपितानंशान्जडीकृत्वा विचक्षणाः । सह्याद्रिशिखरेभ्यस्ताः पृथगंशास्तु निम्नगाः ॥२७॥
देवांशैः पूर्ववाहिन्यो बभूवुः सरितां वराः । तत्पत्न्यंशैः पृथक् तत्र शतशोऽथ सहस्रशः ॥२८॥
गायत्री च स्वरा चैव पश्चिमाभिमुखे तदा। योगेनाभवतां नद्यौ सावित्रीति प्रथां गते ॥२९॥
ब्रह्मणा स्थापितौ तत्र यज्ञे हरिहरावुभौ। महाबलातिबलिनौ नाम्ना देवौ बभूवतुः ॥३०॥
तयोर्नद्योस्तु माहात्म्यं नाहं वक्तुं क्षमो नृप । ययुर्ब्रह्मादयो देवाः स्वांशैस्तिष्ठंति चापगाः ॥३१॥
कृष्णोद्भवं पापहरं परं यः शृणोति यः श्रावयते च भक्त्या ।
स्यात्तस्य पुण्या सकलाक्रियापि तद्दर्शनस्नानसमुद्भवं फलम् ॥३२॥
॥ इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे कृष्णवेण्युत्पत्तिर्नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥
कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 24 हिन्दी में
राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाए जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना। हे नारदजी! यह काम उन दो नदियों के प्रभाव से हुआ था, कृपया यह मुझे बताने की कृपा कीजिए।
नारद जी बोले – हे राजन! कृष्णा नदी साक्षात भगवान श्रीकृष्ण महाराज का शरीर और वेणी नामक नदी भगवान शंकर का शरीर है। इन दोनों नदियों के संगम का माहात्म्य श्रीब्रह्माजी भी वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं फिर भी चूंकि आपने पूछा है इसलिए आपको इनकी उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनाता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो।
चाक्षसु मन्वन्तर के आरम्भ में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत के शिखर पर यज्ञ करने का निश्चय किया। वह भगवान विष्णु, भगवान शंकर तथा समस्त देवताओं सहित यज्ञ की सामग्री लेकर उस पर्वत के शिखर पर गए। महर्षि भृगु आदि ऋषियों ने ब्रह्ममुहूर्त में उन्हें दीक्षा देने का विचार किया। इस पर्वतीय स्थल की गरिमा को देखते हुए सभी देवता और ऋषि-महर्षि वहाँ उपस्थित हुए, और यज्ञ के महत्व को समझते हुए उन्होंने एक अद्भुत उत्साह के साथ तैयारी की।
तत्पश्चात भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया। वह बड़ी धीमी गति से आ रही थी, और उसकी विलंबता ने सभी को चिंता में डाल दिया। इसी बीच में भृगु जी ने भगवान विष्णु से पूछा – हे प्रभु! आपने त्वरा को शीघ्रता से बुलाया था, वह क्यों नहीं आई? ब्रह्ममुहूर्त निकल जाएगा। इस पर भगवान विष्णु बोले – यदि त्वरा यथासमय यहाँ नहीं आती है तो आप गायत्री को ही स्त्री मानकर दीक्षा विधान कर दीजिए। क्या गायत्री पुण्य कर्म में ब्रह्माजी की स्त्री नहीं हो सकती?
नारदजी ने कहा – हे राजन! भगवान विष्णु की इस बात का समर्थन भगवान शंकर जी ने भी किया, जो सभी देवताओं के प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा को दर्शाते हैं। यह बात सुनकर भृगुजी ने गायत्री को ही ब्रह्माजी के दायीं ओर बिठाकर दीक्षा विधान आरंभ कर दिया, जिससे यज्ञ में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। जिस समय ऋषिमण्डल गायत्री को दीक्षा देने लगे, उसी समय त्वरा भी यज्ञमण्डल में आ पहुँची, परंतु उसने देखा कि उसकी उपेक्षा की जा रही है। ब्रह्माजी के दायीं ओर गायत्री को बैठा देखकर ईर्ष्या से कुपित होकर;
त्वरा बोली – जहाँ अपूज्यों की पूजा और पूज्यों की अप्रतिष्ठा होती है वहाँ पर दुर्भिक्ष, मृत्यु तथा भय तीनों अवश्य हुआ करते हैं। यह गायत्री ब्रह्माजी की दायीं ओर मेरे स्थान पर विराजमान हुई है इसलिए यह अदृश्य बहने वाली नदी होगी। आप सभी देवताओं ने बिना विचारे इसे मेरे स्थान पर बिठाया है इसलिए आप सभी जड़ रूप नदियाँ होंगे।
नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! इस प्रकार त्वरा के शाप को सुनकर गायत्री क्रोध से आग-बबूला होकर अपने होठ चबाने लगी। देवताओं के मना करने पर भी उसने उठकर त्वरा को शाप दे दिया।
गायत्री बोली – त्वरा! जिस प्रकार ब्रह्माजी तुम्हारे पति हैं उसी प्रकार मेरे भी पति हैं। तुमने व्यर्थ ही शाप दे दिया है इसलिए तुम भी नदी हो जाओ। तत्पश्चात देवताओं में हाहाकार मच गई।
सभी देवता त्वरा को साष्टांग प्रणाम कर के बोले – हे देवि! तुमने ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं को जो शाप दिया है वह उचित नहीं है क्योंकि यदि हम सब जड़ रूप नदियाँ हो जाएंगे तो फिर निश्चय ही यह तीनों लोक नहीं बच पाएंगे। चूंकि यह शाप तुमने बिना विचार किए दिया है इसलिए यह शाप तुम वापस ले लो।
त्वरा बोली – हे देवगण! आपके द्वारा यज्ञ के आरम्भ में गणेश पूजन न किए जाने के कारण ही यह विघ्न उत्पन्न हुआ है। मेरा यह शाप कदापि खाली नहीं जा सकता इसलिए आप सभी अपने अंगों से जड़ीभूत होकर अवश्य नदियाँ बनोगे। हम दोनों सौतने भी अपने-अपने अंशों से पश्चिम में बहने वाली नदियाँ बनेंगी।
नारदजी राजा पृथु से बोले – हे राजन! त्वरा के ये वचन सुनकर भगवान विष्णु, शंकर आदि सभी देवता अपने-अपने अंशों से नदियाँ बन गए। भगवान विष्णु के अंश से कृष्णा, भगवान शंकर के अंश से वेणी तथा ब्रह्माजी के अंश से ककुदमवती नामक नदियाँ उत्पन्न हो गईं।
समस्त देवताओं ने अपने अंशों को जड़ बनाकर वहीं सह्य पर्वत पर फेंक दिया। तब उन लोगों के अंश पृथक-पृथक नदियों के रूप में बहने लगे।

देवताओं के अंशों से सहस्त्रों की संख्या में पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ उत्पन्न हो गईं। गायत्री और त्वरा दोनों पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ होकर एक साथ बहने लगीं, उन दोनों का नाम सावित्री पड़ा।
ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर की प्रतिष्ठा की, जिससे यज्ञ का वातावरण और भी पवित्र हो गया। दोनों देवता महाबल तथा अतिबल के नाम से प्रसिद्ध हुए, उनके बल की प्रशंसा समस्त देवताओं के बीच होने लगी। हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी की उत्पत्ति का यह वर्णन जो भी मनुष्य सुनेगा या सुनाएगा, उसे नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त होगा।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 24 भावार्थ/सारांश
राजा पृथु ने कहा – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने कलहा द्वारा मुक्ति पाए जाने का वृत्तान्त मुझसे कहा जिसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना। नारद जी बोले – हे राजन! कृष्णा नदी भगवान श्रीकृष्ण का शरीर और वेणी नदी भगवान शंकर का है। इन नदियों के संगम का माहात्म्य भी वर्णन नहीं किया जा सकता। चाक्षसु मन्वन्तर में ब्रह्माजी ने सह्य पर्वत पर यज्ञ करने का निश्चय किया, जहाँ सभी देवता और ऋषि-महर्षि उपस्थित हुए। भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी की भार्या त्वरा को बुलवाया, परंतु उसकी विलंबता से भृगु जी चिंतित हो गए। भगवान विष्णु ने कहा कि यदि त्वरा समय पर नहीं आती, तो गायत्री को दीक्षा दीजिए।
नारदजी ने कहा – भगवान विष्णु की बात का समर्थन भगवान शंकर ने भी किया। भृगु जी ने गायत्री को दीक्षा देकर यज्ञ में नई ऊर्जा का संचार किया। त्वरा ने ईर्ष्या से शाप दिया कि सभी देवता जड़ रूप नदियाँ बनें। देवताओं ने उसे समझाने का प्रयास किया, लेकिन त्वरा ने कहा कि उनका यह शाप खाली नहीं जाएगा। इसके परिणामस्वरूप भगवान विष्णु और शंकर के अंश से कृष्णा और वेणी नदियाँ उत्पन्न हुईं। ब्रह्माजी ने यज्ञ स्थान पर भगवान विष्णु और भगवान शंकर की प्रतिष्ठा की। हे राजन! कृष्णा और वेणी नदी का यह वर्णन सुनने से नदियों के दर्शन और स्नान का फल प्राप्त होगा।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।