सतयुग में देश, त्रेता में ग्राम तथा द्वापर में कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था, लेकिन कलियुग में कर्त्ता को ही भोगना पड़ता है। संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं। मैथुन में एकत्र होना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का फल मिलता है। जो पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह अपने पुण्य का भाग देता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य या पाप बिना दिए भी मिल सकते हैं, किन्तु यह नियम कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 25 मूल संस्कृत में
श्रीकृष्ण उवाच
इति तद्वचनं श्रुत्वा पृथुर्विस्मितमानसः । संपूज्य नारदं भक्त्या विससर्ज तदा प्रियम् ॥१॥
तस्माद्व्रतत्रयं ह्येतन्ममातीव प्रियंकरम् । माघकार्तिकयोस्तद्वत्तथैवैकादशीव्रतम् ॥२॥
वनस्पतीनां तुलसी मासानां कार्तिकः प्रियः । एकादशी तिथीनां च क्षेत्राणां द्वारका मम ॥३॥
एतेषां सेवनं यस्तु करोति च जितेंद्रियः । स मे वल्लभतां याति न तथा यजनादिभिः ॥४॥
पापेभ्यो न भयं तेन कर्त्तव्यं नियमादपि । एतेषां सेवनं कांते कुर्वतां मत्प्रसादतः ॥५॥
सत्यभामोवाच
विस्मापनीयं तन्नाथ यत्त्वया कथितं मम । परदत्तेन पुण्येन कलहा मुक्तिमागता ॥६॥
इत्थं प्रभावो मासोऽयं कार्त्तिकस्ते प्रियंकरः । स्वामिद्रोहादिपापानि स्नानदानैर्गतानि यत् ॥७॥
दत्तं च लभते पुण्यं यत्परेण कृतं विभो । अदत्तं केन मार्गेण लभते चापि मानवः ॥८॥
श्रीकृष्ण उवाच
अदत्तान्यपि पुण्यानि पापानि च यथा नरैः । प्राप्यंते कर्मणा येन तद्यथावन्निशामय ॥९॥
देशग्रामकुलानि स्युर्भागभाञ्जि कृतादिषु । कलौ तु केवलं कर्त्ता फलभुक्पुण्यपापयोः ॥१०॥
अकृतेऽपि हि संसर्गे व्यवस्थेयमुदाहृता । संसर्गात्पुण्यपापानि यथा यांति निबोध तत् ॥११॥
एकत्रमैथुनाद्यानादेकपात्रस्थभोजनात् । फलार्द्धं प्राप्नुयान्मर्त्यो यथावत्पुण्यपापयोः ॥१२॥
अध्यापनाद्याजनाद्वाप्येकपंक्त्यशनादपि । तुर्यांशं पुण्यपापानां नित्यं प्राप्नोति मानवः ॥१३॥
एकासनादेकयानान्निःश्वासस्यांगसंगतः । षडंशं फलभागी स्यान्नयतं पुण्यपापयोः ॥१४॥
स्पर्शनाद्भाषणाद्वापि परस्य स्तवनादपि । दशांशं पुण्यपापानां नित्यं प्राप्नोति मानवः ॥१५॥
दर्शनश्रवणाभ्यां च मनोध्यानात्तथैव च । परस्य पुण्यपापानां शतांशं प्राप्नुयान्नरः ॥१६॥
परस्य निंदां पैशुन्यं धिक्कारं च करोति यः । तत्कृतं पातकं प्राप्य स्वपुण्यं प्रददाति सः ॥१७॥
कुर्वतः पुण्यकर्माणि सेवां यः कुरुते नरः । पत्नीभृतकशिष्येभ्यो यदन्यः कोऽपि मानवः ॥१८॥
तस्य सेवानुरूपेण द्रव्यं किंचिन्न दीयते । सोऽपि सेवानुरूपेण तत्पुण्यफलभाग्भवेत् ।
एकपंक्त्यश्नतां यस्तु लंघयेत्परिवेषणम् ॥१९॥
तस्य पापषडंशं तु लभेद्वै परिवेषकः । स्नानसंध्यादिकं कुर्वन्यः स्पृशेद्वा प्रभाषते ॥२०॥
स पुण्यकर्मषष्ठांशं दद्यात्तस्मै सुनिश्चितम् । धर्मोद्देशेन यो द्रव्यमपरं याचते नरः ॥२१॥
तत्पुण्यकर्मजं तस्य धनदस्त्वाप्नुयात्फलम् । अपहृत्य परद्रव्यं पुण्यकर्म करोति यः ॥२२॥
कर्मकृत्पापभाक्तत्र धनिनस्तद्भवं फलम् । नापनुद्य ऋणं यस्तु परस्य म्रियते नरः ॥२३॥
धनी तत्पुण्यमाधत्ते स्वधनस्यानुरूपतः । बुद्धिदस्त्वनुमंता च यश्चोपकरणप्रदः ॥२४॥
प्रेरकश्च्चापि षष्ठांशं प्राप्नुयात्पुण्यपापयोः । प्रजाभ्यः पुण्यपापानां राजा षष्ठांशमुद्धरेत् ॥२५॥
शिष्याद्गुरुः स्त्रियो भर्त्ता पितापुत्रात्तथैव च । स्वपतेरपि पुण्यस्य योषिदर्द्धमवाप्नुयात् ॥२६॥
चित्तस्यानुव्रता शश्वद्वर्तते तुष्टिकारिणी । परहस्तेन दानादि कुर्वतः पुण्यकर्मणि ॥२७॥
विना भृतकपुत्राभ्यां कर्त्ता षष्ठांशमुद्धरेत् । वृत्तिदो वृत्तिसंभोक्तुः पुण्यमष्टांशमुद्धरेत् ॥२८॥
आत्मनो वा परस्यापि यदि सेवां न कारयेत् ॥२९॥
इत्थं ह्यदत्तान्यपि पुण्यपापान्या यांति नित्यं परसंचितानि ।
कलौ त्वयं वै नियमो न कार्यः कर्तैव भोक्ता खलु पुण्यपापयोः ॥३०॥
शृणुष्व चेमं इतिहासमग्र्यं पुराभवं पुण्यमतिप्रदं च ॥३१॥
॥ इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे पुण्यपापांशकथनंनाम पंचविंशोऽध्यायः ॥
कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 25 हिन्दी में
भगवान श्रीकृष्ण बोले – हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उनको विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी; यह तीन व्रत मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। वनस्पतियों में तुलसी, महीनों में कार्तिक, तिथियों में एकादशी और क्षेत्रों में प्रयाग मुझे बहुत प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है वह मुझे यज्ञ करने वाले मनुष्य से भी अधिक प्रिय है। जो मनुष्य विधिपूर्वक इनकी सेवा करते हैं, मेरी कृपा से उन्हें समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर ;
सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आपने बहुत ही अद्भुत बात कही है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गयी। यह प्रभावशाली कार्तिक मास आपको अधिक प्रिय है जिससे पतिद्रोह का पाप केवल स्नान के पुण्य से ही नष्ट हो गया। दूसरे मनुष्य द्वारा किया हुआ पुण्य उसके देने से किस प्रकार मिल जाता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण भगवान बोले – प्रिये! जिस कर्म द्वारा बिना दिया हुआ पुण्य और पाप मिलता है उसे ध्यानपूर्वक सुनो। सतयुग में देश, त्रेता में ग्राम तथा द्वापर में कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था किन्तु कलियुग में केवल कर्त्ता को ही पाप तथा पुण्य का फल भोगना पड़ता है। संसर्ग न करने पर भी वह व्यवस्था की गई है और संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं, उसकी व्यवस्था भी सुनो।
मैथुन में एकत्र होना, एकत्र होकर यात्रा, पढ़ाना, यज्ञ कराना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का आधा फल मिलता है। एक आसन पर बैठने तथा सवारी पर चढ़ने से, श्वास के आने-जाने से (संसर्ग/मिलन) पुण्य व पाप का चौथा भाग जीवमात्र को मिलता है। छूने से, भोजन करने से और दूसरे की स्तुति करने से पुण्य और पाप का छठवाँ भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा, चुगली और धिक्कार करने से उसका (पाप का) सातवाँ भाग मिलता है।
पुण्य करने वाले मनुष्यों की जो कोई सेवा करता है वह सेवा का भाग लेता है और अपना पुण्य उसे देता है। नौकर और शिष्य के अतिरिक्त जो मनुष्य दूसरे से सेवा करवाकर उसे पैसे नहीं देता, वह सेवक उसके पुण्य का भागी होता है। जो व्यक्ति पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह उसे (जिसकी पत्तल उसने लांघी है) अपने पुण्य का छठवाँ भाग देता है। स्नान तथा ध्यान आदि करने के बाद जिस मनुष्य से जो व्यक्ति बातचीत करता है या उसे छूता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग दे डालता है।
जो मनुष्य धर्म के कार्य के लिए दूसरों से धन मांगता है, वह पुण्य का भागी होता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि दान करने वाला पुण्य का भागी होता है। जो मनुष्य धर्म का उपदेश करता है और उसके बाद सुनने वाले से याचना करता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग उसे दे देता है।
जो मनुष्य दूसरों का धन चुराकर उससे धर्म करता है, वह चोरी का फल भोगता है और शीघ्र ही निर्धन हो जाता है और जिसका धन चुराता है, वह पुण्य का भागी होता है। बिना ऋण उतारे जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उनको ऋण देने वाले सज्जन पुरुष पुण्य के भागी होते हैं।
शिक्षा देने वाला, सलाह देने वाला, सामग्री को जुटाने वाला तथा प्रेरणा देने वाला, यह पाप और पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करते हैं। राजा प्रजा के पाप-पुण्य के षष्ठांश का भोगी होता है, गुरु शिष्यों का, पति पत्नी का, पिता पुत्र का, स्त्री पति के लिए पुण्य का छठा भाग पाती है। पति को प्रसन्न करने वाली आज्ञाकारी स्त्री पति के लिए पुण्य का आधा भाग ले लेती है।
जो पुण्यात्मा पराये लोगों को दान करते हैं, वह उनके पुण्य का छठा भाग प्राप्त करते हैं। जीविका देने वाला मनुष्य जीविका ग्रहण करने वाले मनुष्य के पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य अथवा पाप बिना दिये भी दूसरे को मिल सकते हैं किन्तु यह नियम जो कि मैंने बतलाये हैं, ये कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो एकमात्र कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। इस संबंध में एक बड़ा पुराना इतिहास है जो कि पवित्र भी है और बुद्धि प्रदान करने वाला कहा जाता है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 25 भावार्थ/सारांश
भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा से बोले – हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उन्हें विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी; यह तीन व्रत मुझे प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है, वह मुझे यज्ञ करने वाले से भी अधिक प्रिय है।
सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आपने कहा है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गई। कृपया बताएं कि पुण्य दूसरे को कैसे मिल जाता है।
श्रीकृष्ण बोले – प्रिये! सतयुग में देश, त्रेता में ग्राम तथा द्वापर में कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था, लेकिन कलियुग में कर्त्ता को ही भोगना पड़ता है। संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं। मैथुन में एकत्र होना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का फल मिलता है। जो पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह अपने पुण्य का भाग देता है।
बिना ऋण उतारे मृत्यु को प्राप्त होने पर ऋण देने वाले पुण्य के भागी होते हैं। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य या पाप बिना दिए भी मिल सकते हैं, किन्तु यह नियम कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।