मोक्षदा एकादशी व्रत की कथा राजा वैखानस से संबंधित है जिसमें राजा वैखानस अपने पिता के नरक में कष्ट भोगते देख कर मोक्ष के उपाय ढूंढते हैं। उन्हें मुनि का आशीर्वाद मिलता है, जो मोक्षदा एकादशी करने का सुझाव देते हैं। राजा वैखानस ने इस व्रत को विधिपूर्वक किया और भगवान विष्णु की उपासना की, जिसके बाद उन्होंने अपने पिता को स्वर्ग में स्थान प्राप्त करते देखा। इस प्रकार मोक्षदा एकादशी व्रत करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस आलेख में मोक्षदा एकादशी जो मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में होती है की कथा संस्कृत और हिन्दी में दी गयी है।
मोक्षदा एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
सर्वप्रथम मोक्षदा (मार्गशीर्ष शुल्क) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं।
युधिष्ठिर उवाच
वन्दे विष्णुं प्रभुं साक्षाल्लोकत्रयसुखप्रदम् । विश्वेशं विश्वकर्त्तारं पुराणं पुरुषोत्तमम् ॥१॥
पृच्छामि देवदेवेश संशयोऽस्ति महान् मम । लोकानां तु हितार्थाय पापानां शमनाय च ॥
मार्गशीर्षे सिते पक्षे किं नामैकादशी भवेत् । कीदृशश्च विधिस्तस्याः को देवस्तत्र पूज्यते ॥
एतदाचक्ष्व मे स्वामिन् विस्तरेण यथातथम् ।
श्रीकृष्ण उवाच
सम्यक् पृष्टं त्वया राजन् साधु ते विपुलं यशः ॥
कथयिष्यामि राजेन्द्र हरिवासरमुत्तमम् । उत्पन्ना साऽसिते पक्षे द्वादशी मम वल्लभा ॥५॥
मार्गशीर्षे समुत्पन्ना मम देहान्नराधिप । मुरासुरवधार्थाय प्रख्याता मम वल्लभा ॥
कथिता सा मया चैव त्वदग्रे राजसत्तम । पूर्वमेकादशी राजंस्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥
मार्गशीर्षेऽसिते पक्षे चोत्पत्तिरिति नामतः । अतः परं प्रवक्ष्यामि मार्गशीर्षसितां तथा ॥
मोक्षदा नाम विख्यातां सर्वपापहरां पराम् । देवं दामोदरं तस्यां पूजयेच्च प्रयत्नतः ॥
तुलस्या मंजरीभिश्च धूपदीपैर्मनोरमैः । शृणु राजेन्द्र वक्ष्यामि कथां पौराणिकीं शुभाम् ॥१०॥
यस्याः श्रवणमात्रेण वाजपेयफलं भवेत् । अधोगति गता ये वै पितृमातृसुतादयः ॥
अस्याः पुण्यप्रभावेण स्वर्गं यान्ति न संशयः । एतस्मात्कारणद्राजन् महिमानं शृणुष्व तम् ॥
चम्पके नगरे रम्ये वैष्णवैस्सुविभूषिते । वैखानसेति राजर्षिः पुत्रवत् पालयन् प्रजाः ।
द्विजाश्च न्यवसंस्तत्र चतुर्वेदपरायणाः । एवं स राज्यं कुर्वाणो रात्रौ तु स्वप्नमध्यतः ॥
ददर्श जनकं स्वं तु अधोयोनिगतं नृपः । एवं दृष्ट्वा तु तं राजा विस्मयोत्फुल्ललोचनः ॥१५॥
कथयामास वृत्तान्तं द्विजाग्रे स्वप्नसम्भवम् ॥
राजोवाच
मया तु स्वपिता दृष्टो नरके पतितो द्विजाः । तारयस्वेति मां तात अधोयोनिगतं सुत ॥
इति ब्रुवाणः स सदा मया दृष्टः पिता स्वयम् । तदा प्रभृति भो विप्रा नाहं शर्म लभाम्यहो ॥
एतद्राज्यं मम महदसह्यमसुखं तथा । अश्वा गजा रथाश्चैव न मे रोचन्ति सर्वथा ॥
न कोशोऽपि सुखायेति न किञ्चित् सुखदं मम । न दारा न सुता मह्यं रोचन्ते द्विजसत्तमाः ॥
किं करोमि क्व गच्छामि शरीरं मे तु दह्यते ॥२०॥
दानं व्रतं तपो योगो येनैव मम पूर्वजाः । मोक्षमायान्ति विप्रेन्द्रस्तदेव कथयन्तु मे ॥
किं तेन जीवता लोके सुपुत्रेण बलीयसा ॥ पिता तु यस्य नरके तस्य जन्म निरर्थकम् ॥
ब्राह्मणा ऊचुः
पर्वतस्य मुनेरत्र आश्रमो निकटे नृप । गम्यतां राजशार्दूल भूतं भव्यं विजानतः ॥
तेषां श्रुत्वा ततो वाक्यं विषण्णो राजसत्तमः । जगाम तत्र यत्राऽसौ आश्रमे पर्वतो मुनिः।
ब्राह्मणैर्वेष्टितैः शान्तैः प्रजाभिश्च समन्ततः । आश्रमो विपुलस्तस्य मुनिभिः सन्निषेवितः ॥२५॥
ऋग्वेदिभिर्याजुषैश्च सामाथर्वणकोविदैः । वेष्टितो मुनिभिस्तत्र द्वितीय इव पद्मजः ॥
दृष्ट्वा तं मुनिशार्दूलं राजावैखानसस्तदा । जगाम चावनिं मूर्ध्ना दण्डवत्प्रणनाम च ॥
पप्रच्छ कुशलं तस्य सप्तस्वंगेष्वसौ मुनिः । राज्ये निष्कंटकत्वं च राजसौख्यसमन्वितम् ॥
राजोवाच
तव प्रसादाद्भो विप्र कुशलं मेऽङ्गसप्तके । विभवेष्वनुकूलेषु कश्चिद्विघ्न उपस्थितः ॥
एतन्मे संशयं ब्रह्मन् प्रष्टुं त्वां च समागतः । एवं श्रुत्वा नृपवचः पर्वतो मुनिसत्तमः ॥३०॥
ध्यानस्तिमितनेत्रेऽसौ भूतं भव्यं व्यचिन्तयत् । मुहूर्त्तमेकं ध्यात्वा च प्रत्युवाच नृपोत्तमम् ॥
मुनिरुवाच
जानेऽहं तव राजेन्द्र पितुः पापं विकर्मणः । पूर्वजन्मनि ते पित्रा सपत्नीकृतद्वेषतः ॥
कामासक्तेन चैकस्या ऋतुभंगः कृतः स्त्रियाः । त्राहि त्राहीति जल्पन्त्या अन्यस्याश्च नराधिप ॥
तेन वै तव पित्रा तु न दत्तो ऋतुराग्रहात्। कर्मणा तेन सततं नरके पतितो ह्ययम् ॥
राजोवाच
केन व्रतेन दानेन मोक्षस्तस्य भवेन्मुने । निरयात्पापसंयुक्त्तात्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥३५॥
मुनिरुवाच
मार्गशीर्षे सिते पक्षे मोक्षानाम्नी हरेस्तिथिः । सर्वैस्तु तद्व्रतं कृत्वा पित्रे पुण्यं प्रदीयताम् ॥
तस्याः पुण्यप्रभावेण मोक्षस्तस्य भविष्यति । मुनेर्वाक्यं ततः श्रुत्वा नृपः स्वगृहमागतः ॥
आग्रहायणिकी शुक्ला प्राप्ता भरतसत्तम । अन्तःपुरचरैः सर्वैः पुत्रदारैस्तदा नृपः ॥
व्रतं कृत्वा विधानेन पुण्यं दत्वा नृपाय तत् ॥ तस्मिन् दत्ते तदा पुण्ये पुष्पवृष्टिरभूद्दिवः ॥
वैखानसपिता तेन गतः स्वर्ग स्तुतो गणैः । राजानमन्तरिक्षाच्च शुद्धां गिरमभाषत ॥४०॥
स्वस्त्यस्तु ते पुत्र सदेत्यथ स त्रिदिवं गतः । एवं यः कुरुते राजन् मोक्षदैकादशीमिम् ॥
तस्य पापः क्षयं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् । नातः परतरा काचिन्मोक्षदा विमला शुभा ॥
पुण्यसंख्यां तु तेषां वै न जानेऽहं तु यैः कृता । चिन्तामणिसमा ह्येषा स्वर्गमोक्षप्रदायिनी ॥
॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे मार्गशीर्षशुक्लैकादशीव्रतमाहात्म्यं समाप्तम् ॥
मोक्षदा एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
युधिष्ठिर बोले – तीनों लोकों को सुख देने वाले, विश्व के स्वामी, संसार के रचने वाले, पुराण पुरुषोत्तम, साक्षात् प्रभु विष्णु को मैं प्रणम करता हूँ। हे देव ! हे देवेश ! मुझे बड़ा संदेह है। इस कारण संसार का हित करने के लिये और पापों के नाश के हेतु मैं आपसे पूछता हूँ : “मार्गशीर्ष (अग्रहायण) शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है ? उसकी क्या विधि है और उसमें किस देवता का पूजन होता है ? हे स्वामिन् ! विस्तारपूर्वक उसकी विधि मुझसे कहिये ।”
श्रीकृष्ण भगवान् बोले – हे राजन् ! तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है। तुम्हारा यश संसार में फैल रहा है। हे राजेन्द्र ! मैं भली-भांति एकादशी माहात्म्य का वर्णन करूँगा । मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की जो उत्पन्ना नाम की एकादशी है वह मुझको बहुत प्रिय है। हे नराधिप ! यह एकादशी मुरदैत्य को मारने के लिए मार्गशीर्ष के महीने में मेरे शरीर से उत्पन्न हुई है इसलिये मुझे अत्यंत प्रिय है। हे राजसत्तम । मैं तुम्हारे सामने चर, अचर तीनों लोकों के हित के लिए एकादशी को कह चुका हूँ। मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष में उत्पन्न हुई एकादशी का नाम उत्पन्ना है।
अब मैं मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी का वर्णन करूंगा; इसका नाम मोक्षदा है; यह सब पापों को हरने वाली है। इसमें दामोदर भगवान् की अच्छी तरह पूजा करे ॥ तुलसी की मंजरी और धूप-दीप से अच्छी तरह भगवान् की आराधना करे। हे राजेन्द्र । मैं पौराणिक कथा कहता हूँ उसको सुनो : जिसके सुनने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है जिसके पिता, माता, पुत्र अधोगति में हों ; वे इस कथा के पुण्य के प्रभाव से निःसंदेह स्वर्ग को चले जाते हैं । हे राजन् ! इस कारण इसकी महिमा को सुनो।
वैष्णवों से सुशोभित चंपक नामक सुन्दर नगर में प्रजा की, पुत्र की तरह रक्षा करने वाला वैखानस नाम का राजर्षि था, उसके नगर में चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण रहते थे । इस तरह राज्य करते हुए एक दिन राजा ने रात्रि में स्वप्न में अधोगति को प्राप्त हुए अपने पिता को देखा । उसको देखकर आश्चर्य से उसके नेत्र खुल गये। उसने ब्राह्मणों से स्वप्न का वृत्तान्त कहा।
राजा बोला – हे ब्राह्मणो ! मैंने स्वप्न में अपने पिता को नरक में गिरा हुआ देखा है। पिताजी ने मुझे संबोधन करके कहा है कि हे पुत्र ! मैं अधोगति में हूँ, मेरा उद्धार करो । इस प्रकार कहते हुए पिता को मैंने स्वयं देखा है । हे ब्राह्मणो ! तब से मुझको शांति नहीं है। यह बड़ा राज्य मुझको असत्य और दुःखदायी मालूम होता है। घोड़े, हाथी और रथ मुझको अच्छे नहीं लगते। कोश से भी सुख प्राप्त नहीं होता, मेरे लिए कुछ भी सुखदायी नहीं है।
“हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो ! स्त्री, पुत्र ये सब कुछ भी मुझको प्रिय नहीं लगते। मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरा शरीर जला जाता है। हे ब्राह्मणो ! जिस विधि से मेरे पूर्वजों को मोक्ष हो जाय; ऐसा दान, व्रत, तप, योग कुछ बतलाइये । जिसका पिता नरक में है, उस बलवान् पुत्र के जीवन से क्या लाभ ? उस पुत्र का जन्म वृथा है ।”
ब्राह्मण बोले – हे नृप ! यहाँ निकट में ही पर्वत मुनि का आश्रम है, हे राजशार्दूल ! वे भूत, भविष्य, वर्तमान सबको जानते हैं, उनके पास आप जाइये । वह दुखी राजा उनका वचन सुनकर जहाँ पर्वत मुनि थे, उस आश्रम में गया । वह आश्रम बहुत विशाल था । शान्त प्रकृति के ब्राह्मण, प्रजा और मुनीश्वरों से सुशोभित था। ऋग्वेदी, यजुर्वेदी, सामवेदी, अथर्ववेदी मुनियों के बीच में बैठे हुए पर्वत मुनि ऐसे प्रतीत होते थे मानो दूसरे ब्रह्मा हैं। वैखानस राजा उन मुनीश्वर को देखकर वहाँ गया और पृथ्वी पर साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने राज्य के सातों अंगों की कुशल पूछी और कहा कि तुम्हारा राज्य निष्कंटक तो है और राज्य में सुख-शांति तो है ?

राजा बोला – हे विप्र ! आपकी कृपा से सातो अंग सकुशल हैं। राज्य और ऐश्वर्य अनुकूल होने पर भी कुछ विघ्न उपस्थित हो गया है। हे ब्रह्मन् ! मुझे कुछ संदेह है उसके निवारण हेतु आया हूँ। पर्वत मुनि राजा के इस वचन को सुनकर ध्यानावस्थित होकर नेत्र बंद करके भूत-भविष्य को सोचने लगे। फिर दो घड़ी तक ध्यान करके राजा से बोले।
मुनि बोले – हे राजेन्द्र ! आपके अकर्मी पिता के पाप को मैंने जान लिया है। पूर्वजन्म में सपत्नी के द्वेष से तुम्हारे पिता ने काम के वशीभूत होकर एक स्त्री को रति दी और दूसरी स्त्री के ‘रक्षा करो’, ‘रक्षा करो’ इस प्रकार पुकारने पर भी उसको ऋतु दान नहीं दिया। इतना आग्रह करने पर भी दूसरी रानी को ऋतुदान नहीं दिया, इसी कर्म से वह नरक में पड़ा है।
राजा बोला – हे मुने ! किस व्रत और दान से उस पापयुक्त नरक से मेरे पिता का उद्धार होवे; वह उपाय मुझासे कहिये।
मुनि बोले – मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में मोक्षदा नाम की एकादशी है। तुम सब लोग उसका व्रत करके उसका पुण्य पिता को दे दो । उसके पुण्य के प्रभाव से उसको मोक्ष हो जाएगा।
मुनि के इस वचन को सुनकर राजा अपने घर आ गया । हे भरतकुल में श्रेष्ठ ! जब मार्गशुक्ल एकादशी आई तब स्त्री, पुत्र और राजमहल समेत सबने विधिपूर्वक व्रत करके उसका पुण्य राजा को दिया। उस पुण्य के देने पर स्वर्ग से फूलों की वर्षा हुई । वैखानस का पिता देवताओं से स्तुति किया हुआ स्वर्ग को गया और आकाश से स्पष्ट शब्दों में राजा से बोला।
‘हे पुत्र ! तेरा सदा कल्याण हो ।’ यह कहकर वह स्वर्ग को चला गया ।
हे राजन् ! इस प्रकार जो इस मोक्षदा एकादशी का व्रत करता है; उसका पाप दूर हो जाता है और अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है । इससे बढ़कर निर्मल, शुभ और मोक्ष देने वाली कोई एकादशी नहीं है। जिन मनुष्यों ने एकादशी का व्रत किया है उनके पुण्य की संख्या हम नहीं कह सकते । चिन्तामणि की तरह ये स्वर्ग और मोक्ष को देने वाली है ॥
सारांश : युधिष्ठिर द्वारा मोक्षदा एकादशी की कथा पूछने पर भगवान श्रीकृष्ण ने प्राचीन कथा सुनाई। कथा के अनुसार चम्पक नगर का राजा वैखानस जो धर्मात्मा था और अपनी प्रजा को प्यार करता था। एक रात उसने स्वप्न देखा कि उसके पिता नरक में यातनाएं भुगत रहे हैं, जिससे वह विचलित हो गया।
प्रातः काल ब्राह्मणों से उपाय पूछने पर उन्होंने राजा को पर्वत ऋषि के पास जाने का परामर्श दिया। पर्वत मुनि के आश्रम जाकर राजा ने उनसे प्रार्थनापूर्वक अपनी स्वप्न के बारे में बताते हुये पिता की सद्गति का उपाय पूछा। पर्वत मुनि ने बताया कि उसके पिता ने एक अनाचार किया था जिसके कारण नरक में हैं और मोक्षदा एकादशी करके उसका पुण्य पिता को प्रदान करने का उपदेश दिया। राजा ने वैसा ही किया, जिससे उसके पिता को मुक्ति मिली।
मार्गशुक्ल एकादशी जिसका नाम मोक्षदा एकादशी एकादशी है की कथा से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य जिनपर सामान्य रूप से ध्यानाकृष्ट नहीं होता वो आगे बताये गये हैं :
- पुत्र की आवश्यकता ही नरकादि दुःखों से त्राण प्राप्त करने हेतु है, यदि पुत्र ऐसा न करे तो पुत्र की कोई आवश्यकता नहीं होती। अतः स्वयं भी अपने पितरों की सद्गति का प्रयास करें और पुत्रों को भी धर्माचरण का ज्ञान दें, नास्तिक-पापाचारी-विधर्मी न बनने दें अन्यथा नरकगामी हो सकते हैं।
- जिस विषय का ज्ञान न हो उसका कुछ भी उत्तर नहीं दे देना चाहिये, अपितु प्रश्नकर्ता को योग्य विद्वान के पास प्रेषित करना चाहिये जो समुचित/शास्त्रसम्मत उत्तर दे सकें। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि जिसे कर्मकांड का “क” भी ज्ञात नहीं होता वह उपदेश कर रहा होता है, सोशल मीडिया, दूरदर्शन आदि पर बड़ा बाबा बनकर भ्रमित करता रहता है।
- किसी भी व्रत आदि को स्वयं ही येन-केन-प्रकारेण (दूरदर्शन/सोशल मीडिया आदि से) जानकर करना फलदायी नहीं हो सकता। व्रत आदि कुछ भी करने के लिये विद्वान ब्राह्मण से अनुमति/उपदेश लेना अनिवार्य है तभी फल की सिद्धि हो सकती है।
F & Q ?
प्रश्न : मोक्षदा एकादशी का महत्व क्या है?
उत्तर : मोक्षदा एकादशी का पापों से मुक्ति प्रदान करने वाली है और नरक से मोक्ष प्रदान करती है। यह किसी अन्य पापी के लिये करने पर उसके पापों का भी नाश करती है।
प्रश्न : मोक्षदा एकादशी व्रत में क्या खाना चाहिए?
उत्तर : एकादशी व्रत खाने के लिये नहीं किया जाता है, नहीं खाना हो तो एकादशी किया जाता है। यदि कोई भर दिन भूखा रह जाये तो दूसरे शब्दों में कहता है एकादशी हो गयी। जो लोग एकादशी व्रत में खाने की ही चिंता करते हैं उन्हें व्रत करना ही क्यों है ? नक्त, एकभक्त आदि विधि से करने वाले उसकी विधि का योग्य विद्वान से उपदेश लें तभी फलित होगा ।
प्रश्न : मोक्षदा एकादशी कब है 2024 ?
उत्तर : 2024 में मोक्षदा एकादशी 11 दिसंबर, बुधवार को है, जो स्मार्त व वैष्णव सबके लिये है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।