पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम सफला एकादशी है। एकादशी के नाम से एकादशी का महत्व भी स्पष्ट होता है। सफला एकादशी अर्थात वह एकादशी जो पापों का नाश करते हुये सफलता प्रदायक हो। इस प्रकार सफला एकादशी का व्रत करने से पापों का निवारण होता है जिससे अशुभ फल, बढ़ायें शांत होती है और शुभ फल का उदय होता है जिससे सफलता की प्राप्ति होती है। सफल एकादशी की कथा से भी यही ज्ञात होता है।
सर्वप्रथम सफला (पौष कृष्णपक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं।
सफला एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
युधिष्ठिर उवाच
पौषस्य कृष्णपक्षे तु केयमेकादशी भवेत्। किं नाम को विधिस्तस्याः को देवस्तत्र पूज्यते ॥१॥
एतदाचक्ष्व मे स्वामिन् विस्तरेण जनार्दन ।
श्रीकृष्ण उवाच
कथयिष्यामि राजेन्द्र भवतः स्नेहकारणात् ॥
तथा तुष्टिर्न मे राजन् ऋतुभिश्चाप्तदक्षिणैः । यथा तुष्टिर्भवेन्मह्यमेकादश्या व्रतेन वै ॥
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन कर्तव्यो हरिवासरः । पौषस्य कृष्णपक्षे तु द्वादशी या भवेन्नृप ॥
तस्याश्चैव च माहात्म्यं शृणुष्वैकाग्रमानसः । गदितायाश्च वै राजन्नेकादश्यो भवन्ति हि ॥५॥
तासामपि हि सर्वासां विकल्पं नैव कारयेत् । एकादश्यास्तथाऽप्यस्याः शृणु राजन् कथान्तरम् ॥
अतःपरं प्रवक्ष्यामि पौषस्यैकादशीं तव । लोकानां च हितार्थाय कथयिष्ये विधिं तव ॥
पौषस्य कृष्णपक्षे या सफला नाम नामतः । नारायणोऽधिदेवोऽस्याः पूजयेत्तं प्रयत्नतः ॥
पूर्वेण विधिना राजन् कर्त्तव्यैकादशी जनैः । नागानां च यथा शेषः पक्षिणां गरुडो यथा ॥
यथाश्वमेधो यज्ञानां नदीनां चैव जाह्नवी । देवानां च यथा विष्णुर्द्विपदां ब्राह्मणो यथा ॥
व्रतानां च तथा राजन् प्रवरैकादशी तिथिः॥
ते जना भरतश्रेष्ठ मम पूज्याश्च सर्वशः। हरिवासरसंसक्ता वर्त्तन्ते ये जनाभृशम्॥
सफला नाम या प्रोक्ता तस्याः पूजाविधिं शृणु ॥ फलैर्माम् पूजयेत्तत्र कालदेशोद्भवैः शुभैः॥
नारिकेलफलैः शुद्धैस्तथा वै बीजपूरकैः। जम्बीरैर्दाडिमैश्चैव तथा पुंगीफलैरपि॥
लवंगैर्विविधैश्चान्यैस्तथा चाम्रफलादिभिः। पूजयेद्देवदेवेशं धूपैर्दीपैर्यथाक्रमम्॥
सफलायां दीपदानं विशेषेण प्रकीर्तितम्। रात्रौ जागरणं तत्र कर्त्तव्यं च प्रयत्नतः ॥१५॥
यावदुन्मीलयेन्नेत्रं तावज्जागर्ति यो निशि। एकाग्रमानसो भूत्वा तस्य पुण्यफलं शृणु ॥
तत्समो नास्ति वै यज्ञस्तीर्थं तत्सदृशं न हि । तत्समं न व्रतं किञ्चिदिह लोके नराधिप ॥
पञ्चवर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा च यत्फलम् । तत्फलं समवाप्नोति सफलाया व्रतेन वै ॥
श्रूयतां राजशार्दूल सफलायाः कथानकम् । चम्पावतीति विख्याता पुरी माहिष्मतस्य च ॥
माहिष्मतस्य राजर्षेश्चत्वारश्चाभवन् सुताः । तेषां मध्ये तु यो ज्येष्ठः स महापाप संयुतः ॥२०॥
परदाराभिगामी च द्यूतवेश्यारतः सदा । पितुर्द्रव्यं स पापिष्ठो गमयामास सर्वशः ॥
असवृत्तिरतो नित्यं देवताद्विजनिन्दकः । वैष्णवानां च देवानां नित्यं निन्दारतः स वै ॥
ईदृग्विधं तदादृष्ट्वा पुत्रं माहिष्मतो नृपः । राज्यान्निष्कासयामास लुम्पकं नाम पुत्रकम् ॥
राज्यान्निष्कासितस्तेन पित्रा चैवापि बन्धुभिः । परिवारजनैः सर्वैस्त्यक्तो राज्ञो भयादिति ॥
लुम्पकोऽपि तदात्यक्तश्चिन्तयामास विभ्रमः । मयाऽत्र किं प्रकर्त्तव्यं त्यक्तेन पितृबान्धवः ॥२५॥
इति चिन्तापरो भूत्वामतिं पापे तदाऽकरोत् । मया तु गमनं कार्यं वने त्यक्त्वा पुरीं पितुः ॥
तस्माद्वनात्पितुः सर्वं व्यापयिष्ये पुरं निशि । दिवा वने चरिष्यामि रात्रावपि पितुः पुरे॥
इत्येवं स मतिं कृत्वा लुम्पको दैवपातितः । निर्जगाम पुरात्तस्माद्गतोऽसौ गहनं वनम् ॥
जीवघातकरो नित्यं नित्यं स्तेयपरायणः । सर्वं च नगरं तेन मूषितं पापकर्मणा ॥
गृहीतश्च परित्यक्तो राज्ञो माहिष्मतेर्भयात् । जन्मान्तरीयपापेन राज्यभ्रष्टः स पापकृत् ॥३०॥
आमिषाभिरतो नित्यं नित्यं वै फलभक्षकः । आश्रमस्तस्य दुष्टस्य वासुदेवस्य सम्पतः ॥
अश्वत्थो वर्तते तत्र जीर्णो बहुलवार्षिकः । देवत्वं तस्य वृक्षस्य वर्तते तद्वने महत् ॥
तत्रैव निवसँश्चासौ लुम्पकः पापबुद्धिमान् । एवं कालक्रमेणैव वसतस्तस्य पापिनः ॥
दुष्कर्मनिरतस्यास्य कुर्वतः कर्मनिन्दितम् । पौषस्य कृष्णपक्षे तु सम्प्राप्तं सफलादिनम् ॥
दशमीदिवसे राजन् निशायां शीतपीडितः । लुम्पको वस्त्रहीनो वै निश्चेष्टो ह्यभवत्तदा ॥३५॥
पीड्यमानस्तु शीतेन अश्वत्थस्य समीपतः । न निद्रा न सुखं तस्य गतप्राणा इवाभवत् ॥
पीडयन्दशनैर्दन्तानेवं च गमिता निशा । भानूदयेऽपि तस्याथ न संज्ञा समजायत ॥
लुम्पको गतसंज्ञस्तु सफलादिवसे तदा । मध्याह्नसमये प्राप्ते संज्ञां लेभे स लुम्पकः ॥
प्राप्तसंज्ञो मुहूर्तेन चोत्थितोऽसौ तदाऽऽसनात् । प्रस्खलँश्च पदन्यासैः पङ्गुवच्चलितो मुहुः ॥
वनमध्ये गतस्तत्र क्षुत्तृषापीडितोऽभवत् । न शक्तिर्जीवघातेऽस्य लुम्पकस्य दुरात्मनः ॥४०॥
फलानि भूमौ पतितान्याजहार स लुम्पकः । यावत्स चागतस्तत्र तावदस्तमगाद्रविः ॥
किं भविष्यति तातेति विललापातिदुःखितः । फलानि तानि सर्वाणि वृक्षमूले न्यवेदयत् ॥
प्रत्युवाच फलैरेभिः प्रीयतां भगवान् हरिः । उपविष्टो लुम्पकश्च निद्रां लेभे न वै निशि ॥
तेन जागरणं जातं भगवान् मधुसूदनः । फलानां पूजनं मेने सफलायास्तथा व्रतम् ॥
कृतमेवं लुम्पकेन ह्येकस्माद्व्रतमुत्तमम् । तेन व्रतप्रभावेण प्राप्तं राज्यमकण्टकम् ॥४५॥
पुण्याङ्कुरोदयाद्राजन् यथा प्राप्तं तथा शृणु । रवेरुदयवेलायां दिव्योऽश्वश्चाजगाम ह ॥
दिव्यवस्तुपरीवारो लुम्पकस्य समीपतः । तस्थौ स तुरगो राजन् वागुवाचाशरीरिणी ॥
प्राप्नुहि स्वं नृपसुत त्वं राज्यं हतकण्टकम् । वासुदेवप्रसादेन सफलायाः प्रभावतः॥
पितुः समीपं गच्छ त्वं भुङ्क्ष्व राज्यमकण्टकम्। यथेत्युक्त्वा त्वसौ तत्र दिव्यरूपधरोऽभवत् ॥
कृष्णे मतिश्च तस्यासीत्परमा वैष्णवी तथा । दिव्याभरणशोभाद्यस्तातं नत्वा स्थितो गृहे ॥५०॥
वैष्णवाय ततो दत्तं पित्रा राज्यमकण्टकम् । कृतं राज्यं तु तेनैव वर्षाणि सुबहून्यपि ॥
हरिवासरसंल्लीनो विष्णुभक्तिरतः सदा । मनोज्ञास्तस्य पुत्राः स्युर्दाराः कृष्णप्रसादतः ॥
ततः स वार्धके प्राप्ते राज्यं पुत्रे निवेश्य च। वनं गतः संयतात्मा विष्णुभक्तिपरायणः ॥
साधयित्वा तथात्मानं विष्णुलोकं जगाम ह । गतः कृष्णस्य सान्निध्ये यत्र गत्वा न शोचति ॥
एवं ये वै प्रकुर्वन्ति सफलैकादशीव्रतम् । इह लोके यशः प्राप्य मोक्षं यास्यन्त्यसंशयम् ॥५५॥
धन्यास्ते मानवा लोके सफलाव्रतकारिणः । तस्मिन् जन्मनि ते मोक्षं लभन्ते नात्र संशयः ॥
सफलायाश्च माहात्म्यं श्रवणाद्धि विशाम्पते । राजसूयफलं प्राप्य वसेत् स्वर्गे च मानवः ॥
॥ इति श्रीपौषकृष्णसफला एकादशी माहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥
सफला एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
युधिष्ठिर बोले – पौष कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसका क्या नाम है ? क्या विधि है और किस देवता का पूजन होता है? हे स्वामिन् ! हे जनार्दन ! ये सब मुझसे विस्तार से कहिये ।
श्रीकृष्ण भगवान् बोले – हे राजेन्द्र ! आपके स्नेह के कारण मैं कहूँगा । है राजन् ! एकादशी के व्रत से मैं जितना प्रसन्न होता हूँ, उतना अधिक दक्षिणा वाले यज्ञ से भी प्रसन्न नहीं होता । इसलिए यत्नपूर्वक एकादशी का व्रत करना चाहिये । पौष कृष्णपक्ष में जो द्वादशी युक्त एकादशी होती है, उसका माहात्म्य एकाग्र चित्त से सुनिये । जितनी एकादशियाँ होती हैं, यद्यपि उनमें भेद न करना चाहिये, तो भी इस एकादशी की और भी कथा सुनिये। अब मैं लोकों के हित के लिए पौष की एकादशी की विधि तुमसे कहूँगा । पौष कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम सफला है; इसके नारायण अधिदेव हैं। इसमें विधिपूर्वक उनका पूजन करे।
हे राजन् ! पूर्वोक्त विधि से ही मनुष्यों को एकादशी का व्रत करना चाहिये । नागों में जैसे शेषनाग श्रेष्ठ हैं, पक्षियों में गरुड़, यज्ञों में जैसे अश्वमेध, नदियों में जैसे गंगा, देवताओं में जैसे विष्णु, मनुष्यों में जैसे ब्राह्मण उसी प्रकार व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है। हे भरतवंश में श्रेष्ठ! जो सदा एकादशी का व्रत करते हैं। वे सर्वथा मेरे प्रिय हैं । सफला नाम की जो एकादशी कही है उसके पूजन की विधि सुनो।
व्रत के दिन अच्छे ऋतु-फलों से मेरा पूजन करना चाहिये; स्वच्छ नारियल का फल, बिजौरे, जम्बीरी, अनार, सुपारी, लौंग और अनेक प्रकार के आम के फल और धूप, दीप से विधिपूर्वक भगवान का पूजन करे।
सफला एकादशी में दीप दान विशेष उत्तम कहा है, रात्रि में विधिपूर्वक दीप दान करना चाहिये। जब तक नेत्र खुले रहें तब तक एकाग्रचित्त से जो रात्रि में जागरण करे; उसके पुण्य का फल सुनो। हे नराधिप ! उसके समान न तो यज्ञ है, न तीर्थ है, न संसार में कोई व्रत है । पाँच हजार वर्ष तपस्या करने से जो फल मिलता है, वह सफला एकादशी के व्रत करने से मिलता है।

हे राजशार्दूल ! अब सफला एकादशी की कथा सुनो । माहिष्मत राजा की चंपावती नाम की प्रसिद्ध पुरी थी, माहिष्मत राजा के चार पुत्र थे । उनमें जो बड़ा लड़का या वह बड़ा पापी था । परस्त्रीगामी, जुआ खेलने वाला और सदा वेश्याओं से रति करने वाला था । उस पापी ने पिता का सब धन नष्ट कर दिया, नित्य बुरे आचरण में लगा रहता था। देवता और ब्राह्मणों की निन्दा करता था। वैष्णवों की नित्य निन्दा करता था ।
माहिष्मत राजा ने पुत्र को ऐसी दशा में देखकर लुम्पक को राज्य से निकाल दिया । लुम्पक का निकलना सुनकर राजा के भय से बन्धु और कुटुम्ब के सब मनुष्यों ने भी उसको छोड़ दिया । तब लुम्पक अपने मन में सोचने लगा कि पिता और बन्धुओं ने मुझको त्याग दिया है, अब मुझको क्या करना चाहिए ?
इस प्रकार चिन्ता करते हुए उसने पाप करने का विचार किया; कि मैं पिता की पुरी को छोड़ कर वन में जाऊँगा । फिर रात को वन से आकर पिता की पुरी में रहूँगा, फिर दिन में वन विचरण करूँगा, रात्रि में फिर पिता के नगर में विचरूँगा । इस प्रकार विचार करके वह मंदभाग्य लुम्पक नगर को छोड़कर सघन वन में चला गया ।
नित्य जीव हिंसा करता और नित्य चोरी करता था। इस प्रकार उस पापी ने सब नगर में चोरी की। मनुष्यों ने उसको पकड़ लिया परन्तु माहिष्मत राजा के भय से उसको छोड़ दिया। जन्मान्तर के पाप से वह पापी राज्य से भ्रष्ट हो गया । नित्य मांस भक्षण करता और फल खाता था । उस दुष्ट का आश्रम भगवान् को अच्छा लगता था ।
वहां अति प्राचीन बहुत वर्षों का पीपल का पेड़ था । उस वन में लोग उस वृक्ष को देवता की तरह मानते थे, उसी स्थान पर वह पापी लुम्पक रहता था । निन्दित और दुष्कर्म करते हुए उसको पौष कृष्णा सफला एकादशी का दिन आया ।
हे राजन् ! दशमी की रात्रि को वस्त्रहीन होने के कारण शीत से पीड़ित होकर बेहोश हो गया । शीत के कारण पीपल के नीचे उसको नींद नहीं आई और मृतक के समान हो गया । दाँतों को कटकटाते हुए रात बीत गईं, सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं हुआ ।
सफला एकादशी के दिन लुम्पक बेहोश पड़ा रहा। जब मध्याह्न हुआ तब उसको होश आया । चैतन्य होने पर थोड़ी देर पीछे वह अपने आसन से उठा। वह पग-पग पर गिरता पड़ता लँगड़े की तरह चलने लगा । वह भूख-प्यास से पीड़ित होकर वन में गया। उस दुष्ट लुम्पक को जीव-हिंसा की शक्ति नहीं रही । जो फल भूमि पर पड़े हुए थे उनको वह उठा लाया ।
जब तक वह आया सूर्य अस्त हो गया । हे तात! अब क्या होगा, ऐसा कह कर दुःखी होकर विलाप करने लगा। वे सब फल पेड़ के नीचे रख दिये । वह लुम्पक बोला – इन फलों से भगवान् हरि प्रसन्न हों ऐसा कहकर वह वहीं बैठ गया; रात में भी उसको नींद नहीं आई । इससे उसको जागरण हो गया। मधुसूदन भगवान् ने उन फलों का पूजन और सफला एकादशी का व्रत स्वीकार कर लिया। इस प्रकार लुम्पक ने अकस्मात् व्रत कर लिया ।
इस व्रत के प्रभाव से उसको निष्कंटक राज्य मिल गया । हे राजन् ! पुण्य का अंकुर उदय होने से लुम्पक को जैसे मिला सो सुनो। सूर्य के उदय होने पर एक दिव्य घोड़ा आया ।
दिव्य वस्तुओं से युक्त वह घोड़ा लुम्पक के पास खड़ा हो गया। उसी समय आकाशवाणी हुई :
“हे राजा के पुत्र ! वासुदेव की कृपा से और सफला के प्रभाव से अपने निष्कंटक राज्य को ग्रहण करो । पिता के पास जाकर निष्कंटक राज्य का उपभोग करो।”
बहुत अच्छा कह कर उसने स्वीकार कर लिया, और वह दिव्यरूप हो गया । कृष्ण भगवान् में उसकी परम भक्ति हो गई । सुन्दर आभूषणों को धारण करके पिता को नमस्कार करके घर में रहने लगा । उस वैष्णव पुत्र को पिता ने निष्कंटक राज्य दे दिया।
उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया । एकादशी के दिन वह भगवान् की भक्ति में लीन रहने लगा। भगवान् की कृपा से सुन्दर स्त्रियाँ आईं और सुन्दर पुत्र हुए । फिर वृद्धावस्था प्राप्त होने पर पुत्र को राजगद्दी देकर मन को स्थिर करके विष्णु की भक्ति में तत्पर होकर वन को चला गया । अपनी आत्मा को वश में करके कृष्ण के समीप वैकुण्ठ लोक को चला गया, जहाँ जाने से चिन्ता नहीं रहती । इस प्रकार जो सफला एकादशी का व्रत करते हैं, वे इस लोक में यश लेकर निःसंदेह मोक्ष को प्राप्त करेंगे । हे विशांपते ! सफला के माहात्य को सुनने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाकर स्वर्गलोक में निवास करता है ।
कथा का सारांश : पौष कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम ‘सफला एकादशी’ है। इस दिन नारायण का पूजन करनी चाहिए और अच्छे ऋतु-फलों से भगवान का पूजन करना चाहिए; स्वच्छ नारियल, बिजौरे, जम्बीरी, अनार, सुपारी आदि से विधिपूर्वक पूजन करें। व्रत वाले दिन दीपदान करने और जागरण करने का भी विशेष महत्व है। इस व्रत की कथा में लुम्पक की कथा है जो एकादशी व्रत के प्रभाव से पापमुक्त हो गया। लुम्पक नामक एक पापी राजकुमार को इस एकादशी का व्रत करने पर भगवान की कृपा से राजसत्ता भी मिली। एकादशी के व्रत से मोक्ष की प्राप्ति होती है और जो इसे करते हैं, वे स्वर्ग में निवास करते हैं।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।