पुत्रदा एकादशी वर्ष में तीन बार होती है जिसमें से एक पौष शुक्ल पक्ष की है। पुत्रदा का भाव ही है जो पुत्र प्रदान करने वाली हो अर्थात पुत्रदा एकादशी की मुख्य विशेषता यह है कि यह पुत्र प्रदायक है। सनातन में पुत्र का विशेष महत्व कहा गया है और पुत्र प्राप्ति हेतु सभी प्रकार के प्रयास करने चाहिये क्योंकि पुत्र पतन से रक्षा करता है। इस प्रकार पुत्र प्राप्ति के अनेकानेक उपायों में से एक उपाय पुत्रदा एकादशी का व्रत भी सिद्ध होता है।
सर्वप्रथम पुत्रदा (पौष शुक्ल पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं।
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
युधिष्ठिर उवाच
कथिता वै त्वया कृष्ण सफलैकादशी शुभा । कथयस्व प्रसादेन शुक्ला पौषस्य या भवेत् ॥१॥
किं नाम को विधिस्तस्याः को देवस्तत्र पूज्यते । कस्मै तुष्टा हृषीकेश त्वमेव पुरुषोत्तम ॥
श्रीकृष्ण उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि शुक्ला पौषस्य या भवेत् । तस्या विधिं महाराज लोकानां च हिताय वै ॥
पूर्वेण विधिना राजन् कर्त्तव्यैषा प्रयत्नतः । पुत्रदेति च नाम्नाऽसौ सर्वपापहरा परा ॥
नारायणोऽधिदेवोऽस्याः कामदः सिद्धिदायकः । नातः परतरा काचित् त्रैलोक्ये सचराचरे ॥५॥
विद्यावन्तं यशस्वन्तं करोति च नरं हरिः । शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि कथां पापहरां पराम् ॥
पुरी भद्रावती नाम्नी राजा तत्र सुकेतुमान् । तस्य राज्ञोऽथ राज्ञी च शैव्या नाम्नीति विश्रुता ॥
पुत्रहीनेन राज्ञा च कालो नीतो मनोरथैः । नैवात्मजं नृपो लेभे वंशकर्त्तारमेव च ॥
तेनैव राज्ञा धर्मेण चिन्तितं बहुकालतः किं करोमि क्व गच्छामि सुतप्राप्तिः कथं भवेत् ॥
न राष्ट्रे न पुरे सौख्यं लेभे राजा सुकेतुमान् । शैव्यया कान्तया सार्द्धं प्रत्यहं दुःखितोऽभवत् ॥१०॥
तावुभौ दम्पती नित्यं चिन्ताशोकपरायणौ । पितरोऽस्य जलं दत्तं कवोष्णमुपभुञ्जते ॥
राज्ञः पश्चान्न पश्यामो योऽस्मान् सन्तर्पयिष्यति। इत्येवं संस्मरन्तोऽस्य पितरो दुःखिनोऽभवन् ॥
तेषां तदुःखमूलं च ज्ञात्वा राजाऽप्यतप्यत । न बान्धवा न मित्राणि नामात्याः सुहृदस्तथा ॥
रोचन्ते तस्य भूपस्य न गजाश्वपदातयः । नैराश्यं भूपतेस्तस्य मनस्येवमजायत ॥
नरस्य पुत्रहीनस्य नास्ति वै जन्मनः फलम्। अपुत्रस्य गृहं शून्यं हृदयं दुःखितं सदा ॥१५॥
पितृदेवमनुष्याणां नानृणित्वं सुतं विना । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन सुतमुत्पादयेन्नरः ॥
इह लोके यशस्तेषां परलोके शुभा गतिः । येषां तु पुण्ये कर्तृणां पुण्यं जन्मशतोद्भवम्॥
आयुरारोग्यसम्पच्च तेषां गेहे प्रवर्तते । पुत्राः पौत्राश्च लोकाश्च भवेयुः पुण्यकर्मणाम् ॥
पुण्यं विना न च प्राप्तिर्विष्णुभक्ति विना तथा । पुत्राणां सम्पदो वाऽपि विद्यायाश्चेति मे मतिः ॥
एवं विचिन्त्यमानोऽसौ राजा शर्म न लब्धवान् । प्रत्यूषेऽचिन्तयद्राजा निशीथेऽचिन्तयत्तथा ॥२०॥
ततश्चात्मविनाशं वै विचार्याऽथ सुकेतुमान् । आत्मघाते दुर्गतिं च चिन्तयित्वा तदा नृपः ॥
दृष्ट्वाऽऽत्मदेहं प्रक्षीणमपुत्रत्वं तथैव च । पुनर्विचार्यात्मबुद्धया ह्यात्मनो हितकारणम् ॥
अश्वारूढस्ततो राजा जगाम गहनं वनम् । पुरोहितादयः सर्वे न जानन्ति गतं नृपम् ॥
गम्भीरे विपिने राजा मृगपक्षिनिषेविते । विचचार तदा तस्मिन् वने वृक्षान् विलोकयन् ॥
वटानश्वत्थविल्वांश्च खर्जूरान् पनसाँस्तथा । वकुलान् सप्तपर्णांश्च तिन्दुकांस्तिलकानपि ॥२५॥
शालास्तालांस्तमालांश्च ददर्श सरलान् नृपः। इङ्गुदीककुभांश्चैव श्लेष्मातकबिभीतकान् ॥
शल्लकीकरमर्दांश्च पाटलान् खदिरानपि। शाकांश्चैव पलाशांश्च शोभितान् ददृशे पुनः ॥
मृगव्याघ्रवराहांश्च सिंहाञ्छागमृगानपि । ददर्श भुजगान् राजा वल्मीकादभिनिस्सृतान् ॥
तथा वनगजान् मत्तान् कलभैः सह संगतान् । गवयान् कृष्णसारांश्च शृगालाञ्छशकानपि ॥
वनमार्जारकान् क्रूराञ्छल्लकांश्चमरामपि । यूथपांश्च चतुर्दन्ता करिणीगणमध्यगान् ॥३०॥
तान् दृष्ट्वा चिन्तयामास आत्मनः सगजान् नृपः । तेषां स विचरन् मध्ये राजा शोकनवाप ह ॥
महदाश्चर्यसंयुक्तं ददर्श विपिनं नृपः । क्वचिच्छिवारुतं शृण्वन्नुलूकविरुतं तथा ॥
तांस्तान् पक्षिगणान् पश्यन् बभ्राम वनमध्यगः । एवं ददर्श गहनं नृपो मध्यं गते रवौ ॥
क्षुत्तृभ्यां पीडितो राजा इतश्चेतश्च धावति । चिन्तयामास नृपतिः संशुष्कगलकन्धरः ॥
मया तु किं कृतं कर्म प्राप्तं दुःखं यदीदृशम्। मया च तोषिता देवा यज्ञैः पूजाभिरेव च ॥३५॥
तथैव ब्राह्मणा दानैस्तोषिता मिष्टभोजनैः । प्रजाश्चैव तथाकालं पुत्रवत्परिपालिताः ॥
कस्मादुःखं मया प्राप्तमीदृशं दारुणं महत् । इति चिन्तावशो राजा जगामाथाऽग्रतो वनम् ॥
सुकृतस्य प्रभावेण सरो दृष्टं मनोरमम् । मानसेन स्पर्धमानं पद्मिनीपरिशोभितम् ॥
कारण्डवैश्चक्रवाकैः राजहंसैश्च नादितम् । मकरैर्बहुभिर्युक्तं मत्स्यैर्जलचरैर्युतम् ॥
समीपे सरसस्तत्र मुनीनामाश्रमान् बहून् ॥ ददर्श राजा लक्ष्मीवान्निमित्तैः शुभशंशिभिः ॥४०॥
सव्यात्परतरं चक्षुरपसव्यस्तथा करः । स्फुरितस्तस्य राज्ञश्च संशितं शुभलक्षणम् ॥
तस्य तीरे मुनीन् दृष्ट्वा कुर्वाणान्नैगमं जपम् । अवतीर्य हयात्तस्मान्मुनीनामग्रतः स्थितः ॥
पृथक् पृथक् ववन्दे स मुनीस्तांञ्छंसितव्रतान् । कृताञ्जलिपुटो भूत्वा दण्डवच्च प्रणम्य सः ॥
हर्षेण महताऽविष्टो बभूव नृपसत्तमः । तमूचुस्तेऽपि मुनयः प्रसन्नाः स्मो वयं तव ॥
कथयस्वाद्य वै राजन् यत्ते मनसि वर्तते ।
राजोवाच
के यूयमुग्रतपसः का आख्या भवतामपि ॥४५॥
किमर्थमागता यूयं वदन्तु मम तत्त्वतः ॥
मुनय ऊचुः
विश्वेदेवा वयं राजन् स्नानार्थमिह चागताः ॥
माघो निकटमायात एतस्मात्पञ्चमेऽहनि । अद्य ह्येकादशी राजन् पुत्रदा नाम नामतः ॥
पुत्रं ददात्यसै शुक्ला पुत्रदा पुत्रमिच्छताम्।
राजोवाच
ममापि यत्नो मुनयः सुतस्योत्पादने महान् ॥
यदि तुष्ट भवन्तो मे पुत्रो वै दीयतां शुभः ॥
मुनय ऊचुः
अस्मिन्नेव दिने राजन् पुत्रदा नाम वर्तते ॥
एकादशीति विख्याता क्रियतां व्रतमुत्तमम् । आशीर्वादेन चास्माकं केशवस्य प्रसादतः ॥५०॥
अवश्यं तव राजेन्द्र पुत्रप्राप्तिर्भविष्यति । इत्येवं वचनात्तेषां कृतं राज्ञा व्रतं शुभम् ॥
द्वादश्यां पारणं कृत्वा मुनीन्नत्वा पुनः पुनः । आजगाम गृहं राजा राज्ञी गर्भ समादधे ॥
मुनीनां वचनेनैव पुत्रदायाः प्रभावतः । पुत्रो जातस्तथाकाले तेजस्वी पुण्यकर्मकृत् ॥
पितरं तोषयामास प्रजापालो बभूव सः । एतस्मात्कारणाद्राजन् कर्त्तव्यं पुत्रदाव्रतम् ॥
लोकानां च हितार्थाय तवाग्रे कथितं मया । एतद्व्रतं तु ये मर्त्याः कुर्वन्ति पुत्रदाभिधम् ॥५५॥
पुत्रं प्राप्येहलोके तु मृतास्ते स्वर्गगामिनः । पठनाच्छ्रवणाद्राजन्नश्वमेधफलं लभेत् ॥
॥ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे पौषशुक्ला पुत्रदा एकादशीव्रतकथा समाप्ता ॥
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
युधिष्ठिर बोले – हे कृष्ण ! आपने सुन्दर सफला एकादशी का वर्णन किया। अब कृपा करके पौष शुक्ल एकादशी का वर्णन करिये। उसका नाम और विधि क्या है ? किस देवता का पूजन होता है ? हे पुरुषोत्तम ! हे हृषीकेश ! किस एकादशी के व्रत से आप प्रसन्न होते हैं ?
श्रीकृष्णजी बोले – हे राजन् ! लोकों का उपकार करने के लिए पौषशुक्ला एकादशी की विधि मैं कहूँगा । हे राजन् ! पूर्वोक्त विधि से इसको करना चाहिए; इसका नाम पुत्रदा है। यह सब पापों को दूर करने वाली है। सिद्धि और कामना को पूर्ण करने वाले नारायण इसके देवता हैं । चर अचर तीनों लोकों में इससे श्रेष्ठ और नहीं है। कथा के सुनने से हरि भगवान् मनुष्य को विद्यावान् और यशस्वी बनाते हैं। उन पापों को हरने वाली कथा को मैं कहूँगा, तुम सुनो ।
भद्रावती नाम की एक पुरी थी, वहाँ सुकेतुमान् नाम का राजा था, शैव्या नाम से प्रसिद्ध उसकी रानी थी । वह राजा पुत्रहीन था। उनको सोच-विचार करते हुए बहुत समय बीत गया, परन्तु वंश की उन्नति करने वाला पुत्र नहीं हुआ बहुत दिनों तक राजा धर्म-चिन्तन में लगा रहा। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, सन्तान की प्राप्ति कैसे होवे ?
उस सुकेतुमान् को राज्य और पुरी में कहीं भी सुख नहीं मिलता था। अपनी रानी शैव्या के साथ प्रतिदिन दुखी रहता था। वे दोनों राजा-रानी चिन्ता और शोक में मग्न रहते थे। इस कारण राजा का तर्पण से दिया हुआ जल पितरों को उष्ण होकर मिलता था ।
पितृगण चिन्ता करते थे कि राजा के मरने के बाद हमारे कुल में ऐसा कोई नहीं है जो हमारा तर्पण करेगा, इस प्रकार पितृगण दुखी हुए । उनके दुःख के मूल को जानकर राजा भी सन्ताप करने लगा ।

बन्धु, मित्र, सुहृद, हाथी, घोड़े, पैदल आदि राजा को कुछ भी अच्छे नहीं लगते थे। उसके मन में निराशा छा गयी । पुत्रहीन मनुष्य के जन्म का फल नहीं है। बिना पुत्र के घर सूना रहता है और सदा हृदय दुखी रहता है। पुत्र के बिना पित्रीश्वर, देवता और मनुष्य के ऋण से नहीं छूटता । इसलिए मनुष्य को प्रयत्न करके पुत्र उत्पन्न करना चाहिये । जिनके घर में पुत्र है उनका इस लोक में यश होता है और परलोक में भी सद्गति होती है।
जिन पुण्यात्माओं का सैकड़ों जन्मों का पुण्य होता है, उनकी आयु, आरोग्य और घर में संपत्ति होती है। पुण्यवानों के ही पुत्र और पौत्र होते हैं । पुण्य और भगवान् की भक्ति के बिना धन और विद्या नहीं मिलती, यह मेरा सिद्धान्त है । इस प्रकार चिन्ता करते हुए राजा को शान्ति नहीं मिलती थी। दिन-रात चिन्ता में मग्न रहता था।
फिर सुकेतुमान् ने आत्महत्या का विचार किया । परन्तु उससे परलोक में दुर्गति समझ कर वह विचार छोड़ दिया। संतान के अभाव से अपने शरीर को दुर्बल देख कर अपनी बुद्धि से अपना हित सोच कर घोड़े पर बैठ कर राजा घोर वन में चला गया। पुरोहित आदि किसी को यह ज्ञात भी नहीं हुआ । मृग और पक्षियों से युक्त उस गम्भीर वन में राजा वृक्षों का अवलोकन करता हुआ भ्रमण करने लगा ।
बड़, पीपल, बेल, खजूर, कटहल, मौलसिरी, सप्तपर्ण, तिन्दू, तिलक, साल, ताल, तमाल, सरल, गोंदी, ककुभ, श्लेष्मातक, भिलाया, सल्लक करमर्द, गुलाब, खैर, शाक, ढाक इत्यादि सुन्दर वृक्ष देखे। फिर राजा ने मृग, व्याघ्र, वराह, सिंह, बन्दर और बिल से निकले हुए सर्प देखे। बच्चे समेत मतवाले जंगली हाथी, रोज, कालेमृग, सियार, खरगोश, बनबिलाव, सेह, सुरही, गौ, हथिनियों के झुण्ड में चार दाँत के यूथप हाथियों को राजा ने देखा। उनको देखकर राजा को अपने हाथियों की याद आ गई। उनके बीच में भ्रमण करता हुआ राजा दुखी हुआ ।
कहीं शृगाल का शब्द, कहीं उल्लुओं का शब्द सुन राजा आश्चर्यचकित होकर वन को देखने लगा । उन पक्षियों को देखते हुए वन में विचरते हुए राजा मध्याह्न का समय हो गया । भूख-प्यास से राजा का कंठ सूख गया, इधर-उधर दौड़ता हुआ चिन्ता करने लगा ।
मैंने ऐसा कौन सा बुरा काम किया जिससे ऐसा दुःख मिला ! मैंने यज्ञ और पूजा से देवताओं को सन्तुष्ट किया, मिष्ठान्न भोजन तथा दक्षिणा देकर ब्राह्मणों को संतुष्ट किया, समयानुसार प्रजा का पुत्र की तरह पालन किया । यह सब करने पर भी मुझको ऐसा कठिन दुःख क्यों मिला? इस प्रकार चिन्ता करता हुआ आगे वन में चला गया ।
पुण्य के प्रभाव से कुमुदिनी से सुशोभित मानसरोवर के समान एक सुन्दर सरोवर को देखा। यह सरोवर बकोर, चकवा और राजहंसों से शब्दायमान था । उसमें मगर, मछलियाँ और जल के जानवर थे । ऐश्वर्यवान् राजा ने सरोवर के पास बहुत से मुनियों के आश्रम देखे और अच्छे शकुन होने लगे। राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा। इन अंगों का फड़कना शुभ प्रतीत हुआ ।
सरोवर के किनारे मन्त्रों का जप करते हुए मुनियों को देखकर घोड़े से उतर कर राजा उनके सामने खड़ा हो गया । व्रत करने वाले मुनियों को अलग-अलग प्रणाम किया । हाथ जोड़कर राजा ने सबके लिए दण्डवत् किया। राजा को बहुत हर्ष हुआ । वे मुनीश्वर भी प्रसन्न होकर बोले कि हम आपसे प्रसन्न हैं । हे राजन् ! आपकी क्या इच्छा है, वह कहिए।
राजा बोला – हे तपस्वियो ! आप कौन हैं और आपका क्या नाम है ? आप यहाँ किसलिए आये हैं ? यह मुझसे स्पष्ट कहिये ।
मुनि बोले – हम विश्वेदेवा हैं और स्नान करने के लिए यहाँ आये हैं। माघ का महीना निकट आ रहा है, आज से पाँचवें दिन माघ लग जाएगा, आज पुत्रदा नाम की एकादशी है। हे राजन् ! यह पौषशुक्ला एकादशी पुत्र की इच्छा करने वालों को पुत्र देती है । तब
राजा बोला – पुत्र उत्पन्न करने के लिए मैंने भी बड़ा प्रयत्न किया है ॥ यदि आप प्रसन्न हैं तो मेरे लिए सुन्दर पुत्र दीजिये। तब
मुनीश्वर बोले – हे राजन् ! आज पुत्रदा नाम की प्रसिद्ध एकादशी है । आज ही इस उत्तम व्रत को करिये । हमारे आशीर्वाद से और भगवान् की कृपा से, हे राजेन्द्र ! आपको अवश्य ही पुत्र प्राप्त होगा ।
इस प्रकार उनकी आज्ञा से राजा ने पुत्रदा एकादशी का उत्तम व्रत किया। द्वादशी में पारण करके मुनियों को बारम्बार प्रणाम करके राजा अपने घर पर आ गया । रानी के गर्भवती हो गई। मुनियों की आज्ञा से और व्रत के प्रभाव से समय पर तेजस्वी और पुण्यात्मा पुत्र पैदा हुआ। वह बालक पिता को प्रसन्न रखता था।
फिर वह सिंहासन पर बैठकर प्रजा का पालन करने लगा। हे राजन् ! इसलिए पुत्रदा एकादशी का व्रत करना चाहिए । संसार के हित के लिए मैंने यह तुमसे कहा है। इस पुत्रदा के व्रत को जो मनुष्य करते हैं; वे मनुष्य इस लोक में पुत्र को प्राप्त करके मरने पर स्वर्ग को जाते हैं। हे राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है ॥
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
पौष शुक्ल एकादशी का व्रत विशेष रूप से पुत्र की प्राप्ति की इच्छा रखने वालों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। भगवान श्री कृष्ण के द्वारा महाराज युधिष्ठिर को सुनाई गयी इस कथा के अनुसार, पौष शुक्ल एकादशी को पुत्रदा नाम से जाना जाता है और इसका पालन करने से सभी पाप दूर होते हैं एवं कामनायें पूर्ण होती हैं। पुत्रदा एकादशी की कथा में राजा सुकेतुमान पुत्रहीनता से दुखी था, लेकिन इस एकादशी के व्रत के प्रभाव से उसे पुत्र की प्राप्ति हुई। मुनियों की कृपा से राजा ने यह व्रत किया और सफलतापूर्वक एक तेजस्वी पुत्र पाया। यह व्रत न केवल इस लोक में पुत्र देता है, बल्कि मृत्यु के उपरांत स्वर्ग में भी स्थान दिलाता है।
- शास्त्रों के अनुसार आत्मकल्याण के लिये पुत्र आवश्यक होता है।
- पुत्रहीनों को पुत्र प्राप्ति के लिये यथासंभव उपाय करने चाहिये।
- पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है।
- इस एकादशी व्रत के प्रभाव से पुत्रहीनता के दोष का निवारण होता है और सत्पुत्र की प्राप्ति होती है।
- पुत्र प्राप्ति का तात्पर्य नास्तिक/अधर्मी पुत्र प्राप्त करना नहीं होता है वह नरकगामी ही बनाता है। पुत्र प्राप्ति का तात्पर्य सत्पुत्र प्राप्त करना होता है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।