माघ मास के कृष्णपक्ष में पड़ने वाली एकादशी का नाम षट्तिला एकादशी है। माघ मास में तिल के विशेष प्रयोग का विधान है और षट्तिला एकादशी में भी 6 प्रकार से तिल प्रयोग का विधान है। 6 प्रकार से तिल का प्रयोग करने संबंधी विधान के कारण इसका नाम षट्तिला एकादशी है। यहां षट्तिला एकादशी की कथा दी गयी है जिसमें षट्तिला एकादशी की व्रत विधि का भी वर्णन है।
सर्वप्रथम षट्तिला (माघ कृष्ण पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Shattila ekadashi vrat katha
षट्तिला एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
दाल्भ्य उवाच
मर्त्यलोके तु सम्प्राप्ताः पापं कुर्वन्ति जन्तवः । ब्रह्महत्यादिपापैश्च ह्यन्यैश्च विविधैर्युताः॥
परद्रव्यापहर्तारः परव्यसनमोहिताः । कथं नो यान्ति नरकान् ब्रह्मस्तद्ब्रूहि तत्त्वतः॥
अनायासेन भगवन् दानेनाल्पेन केनचित् । पापप्रशममायाति येन तद्वक्तुमर्हसि ॥
पुलस्त्य उवाच
साधु साधु महाभाग गुह्यमेतदुदाहृतम्। यन्न कस्यचिदाख्यातं ब्रह्मविष्ण्विन्द्रदैवतैः ॥
तदहं कथयिष्यामि त्वया पृष्टो द्विजोत्तम । ततो माघे तु सम्प्राप्ते शुचिः स्नातो जितेन्द्रियः ॥५॥
कामक्रोधाभिमानेर्ष्या लोभपैशुन्य वर्जितः। देवदेवं च संस्मृत्य पादौ प्रक्षाल्य वारिणा ॥
भूमावपतितं ग्राह्यं गोमयं तत्र मानवैः। तिलान् प्रक्षिप्य कार्पासं पिण्डकांश्चैव कारयेत् ॥
अष्टोत्तरशतं चैव नात्र कार्या विचारणा। ततो माघे च सम्प्राप्ते ह्याषाढर्क्षं भवेद्यदि ॥
मूले वा कृष्णपक्षस्यैकादश्यां नियमं ततः । गृह्णीयात् पुण्यफलदं विधानं तत्र मे शृणु ॥
देवदेवं समभ्यर्च्य सुस्नातः प्रयतः शुचिः । कृष्णनामानि संकीर्त्य एकादश्यामुपोषितः ॥१०॥
रात्रौ जागरणं कुर्याद्रात्रौ होमं च कारयेत् । अर्चयेद्देवदेवेशं शंखचक्रगदाधरम् ॥
चन्दनागरुकर्पूरैर्नैवेद्यैः शर्करादिभिः । संस्मृत्य नाम्ना च ततः कृष्णाख्येन पुनः पुनः ॥
कूष्माण्डैर्नारिकेलैश्च ह्यथवा बीजपूरकैः । सर्वाभावेऽपि विप्रेन्द्र शस्तं पुंगीफलं तदा ॥
अर्घ्यं दत्त्वा विधानेन पूजयित्वा जनार्दनम् । कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिप्रद ॥
संसारार्णवमग्नानां प्रसीद परमेश्वर । नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन ॥१५॥
सुब्रह्मण्य नमस्तेऽस्तु महापुरुषपूर्वज । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते ॥
ततस्तु पूजयेद् विप्रमुदकुम्भं प्रदापयेत् । छत्रोपानहवस्त्रैश्च कृष्णो मे प्रीयतामिति ॥
कृष्णा धेनुः प्रदातव्या यथाशक्त्या द्विजोत्तम । तिलपात्रं द्विजश्रेष्ठ दद्यात्तत्र विचक्षणः॥
स्नानप्राशनयोः शस्ताः श्वेताः कृष्णास्तिला मुने । तान् प्रदद्यात् प्रयत्नेन यथाशक्त्या द्विजोत्तम ॥
तिलप्ररोहजाः क्षेत्रे यावत्संख्यास्तिला द्विज । तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥२०॥
तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी । तिलभुक् तिलदाता च षट्तिलाः पापनाशकाः ॥
(इयमेव षट्तिलाख्या)
नारद उवाच
कृष्ण कृष्ण महाबाहो नमस्ते भक्तभावन । षट्तिलैकादशीभूतं कीदृशं फलमनश्नुते ॥
सोपाख्यानं मम ब्रूहि यदि तुष्टोऽसि यादव ।
श्रीकृष्ण उवाच
ब्रह्मन् मया यथावृत्तं दृष्टं तत् कथयामि ते ।
मर्त्यलोके पुराह्यासीद् ब्राह्मण्येका च नारद । ब्रह्मचर्यरता नित्यं देवपूजारता सदा ॥
मासोपवासनिरता मम भक्ता च सर्वदा । कृष्णोपवाससंयुक्ता मम पूजापरायणा ॥२५॥
शरीरं क्लेशितं नित्यमुपवासैर्द्विजोत्तम । दीनानां ब्राह्मणानां च कुमारीणां च भक्तितः॥
गृहादिकं प्रयच्छन्ती सर्वकालं महामतिः । अतिकृच्छ्ररता सा तु सर्वकालेषु वै द्विज ॥
ब्राह्मणानन्नदानेन तर्पिता देवता न च । ततः कालेन महता मया वै चिन्तितं द्विज ॥
शुद्धमस्याः शरीरं हि व्रतैः कृच्छ्रैर्न संशयः । अर्जितो वैष्णवो लोकः कायक्लेशेन वै तया॥
न दत्तमन्नदानं हि येन तृप्तिः परा भवेत्। एतज्जिज्ञासया ब्रह्मन्मर्त्यलोकमुपागतः॥३०॥
कापालं रूपामास्थाय भिक्षापात्रेण याचिता ॥
ब्राह्मण्युवाच
कस्मात्त्वमागतो ब्रह्मन् वद सत्यं ममाग्रतः ॥
पुनरेव मया प्रोक्तं देहि भिक्षां च सुन्दरि । तया कोपेन महता मृत्पिण्डस्ताम्रभाजने ॥
क्षिप्तो यावत्तया देव्या पुनः स्वर्गं गतो द्विज । ततः कालेन महता तापसी सुमहाव्रता ॥
सदेहा स्वर्गमायाता व्रतचर्याप्रभावतः । मृत्पिण्डस्य प्रभावेण गृहं प्राप्तं मनोहरम् ॥
परं तच्चैव विप्रर्षे धान्यकोशादिवर्जितम् । गृहं यावत्प्रविश्यैषा न किञ्चित् तत्र पश्यति ॥३५॥
तावद् गृहाद्विनिष्क्रम्य ममान्ते चागता द्विज । क्रोधेन महताविष्टात्विदं वचनमब्रवीत् ॥
मया व्रतैश्च कृच्छ्रैश्च उपवासैरनेकशः । पूजयाऽऽराधितो देवः सर्वलोकस्य भावनः ॥
न तत्र दृश्यते किञ्चित् गृहे मम् जनार्दन । ततश्चोक्ता मया सा तु गृहे गच्छ यथागतम् ॥
आगमिष्यन्ति सुतरां कौतूहलसमन्विताः । देवपन्यस्तु त्वां द्रष्टुं विस्मयेन समन्विताः ॥
द्वारं नोद्घाटनीयं हि षट्तिलापुण्यवाचनात् । एवं श्रुत्वा गता सा तु यदा वै मानुषी तदा ॥४०॥
अत्रान्तरे समायाता देवपन्यश्च नारद । ताभिश्च कथितं तत्र त्वां द्रष्टुं हि समागताः ॥
द्वारमुद्घाटय त्वं च पश्यामस्त्वां शुभानने ।
मानुष्युवाच
यदि द्रष्टुं समायाताः सत्यं वाच्यं विशेषतः ॥
षट्तिलाव्रतं पुण्यं द्वारोद्घाटनकारणात् । एकापि तत्र नावोचत् षट्तिलाव्रतनामतः ॥
अन्यथा कथितं तत्र द्रष्टव्या मानुषी मया । ततो द्वारं समुद्घाट्य दृष्टा ताभिश्च मानुषी ॥
न देवी न च गन्धर्वी नासुरी न च पन्नगी । दृष्टा पूर्वं तथा नारी यादृशीयं द्विजर्षभ ॥४५॥
देवीनामुपदेशेन षट्तिलाया व्रतं कृतम् । मानुष्या सत्यव्रतया भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ॥
रूपकान्ति समायुक्ता क्षणेन समवाप सा । धनं धान्यं च वस्त्रादिसुवर्ण रौप्यमेव च ॥
सर्वं गृहं सुसम्पन्नं षट्तिलायाः प्रसादतः । अति तृष्णा न कर्तव्या वित्तशाठ्यं विवर्जयेत् ॥
आत्मवित्तानुसारेण तिलान् वस्त्रादि दापयेत् । लभते चैवमारोग्यं मारोग्यं ततो जन्मनि जन्मनि ॥
दारिद्र्यं न च कष्टं वै न च दौर्भाग्यमेव च । न भवेद्वै द्विजश्रेष्ठ षट्तिलाया उपोषणात् ॥५०॥
अनेन विधिना राजन् तिलदाता न संशयः । मुच्यते पातकैः सर्वैर्नात्र कार्या विचारणा ॥
दानं च विधिना सम्यक् सर्वपापप्रणाशनम् । नानर्थभूतोनायासः शरीरे मुनिसत्तम ॥
॥ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे माघकृष्णषट्तिलैकादशीव्रतमाहात्म्यं समाप्तम् ॥
षट्तिला एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
दाल्भ्य ऋषि बोले – मनुष्यलोक में आकर लोग ब्रह्महत्यादि अनेक पापों को करते हैं, पराये धन को चुराते हैं दूसरों को कष्ट देते हैं, ऐसा करने पर भी वे नरक में न जायें। हे ब्रह्मन् ! ऐसा उपाय कहिये । हे भगवन् ! अल्पदान करने से अनायास पाप दूर हो जाय, उसे कहिये ।
पुलस्त्य मुनि बोले – हे महाभाग ! तुमने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है। जिसको ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्रादि देवताओं ने किसी से नहीं कहा; तुम्हारे पूछने पर उस गुप्त बात को तुमसे कहूँगा । माघ मास के आरम्भ में ही शुद्धता से स्नान करके इन्द्रियों को वश में करे । काम, क्रोध, घमण्ड, ईर्ष्या, लोभ और चुगली इनसे मन को हटाकर जल से हाथ-पैर धोकर भगवान् का स्मरण करे । ऐसा गोबर ले जो पृथ्वी पर न गिरा हो, उसमें तिल और कपास मिलाकर पिंड बना ले । बिना सोचे उसमें १०८ पिंड बनावे । यदि माघ के महीने में पूर्वाषाढ़ वा मूल नक्षत्र आ जाये तो उसमें नियम ले या कृष्णपक्ष की एकादशी को नियम ले ।

उसका पुण्य फल देने वाला विधान मुझसे सुनो। स्नान करके और पवित्र होकर कृष्ण के नामों का कीर्तन करके एकादशी का उपवास करे । रात्रि में जागरण करे और गोबर के बने हुए १०८ पिंडों से हवन करे । शंख-चक्र-गदाधारी भगवान् का पूजन करे, चन्दन, अगर, कपूर चढ़ावे । शक्कर मिला हुआ नैवेद्य चढ़ाकर बारम्बार कृष्ण का नाम स्मरण करे । हे विप्रेन्द्र ! पेठा, बिजौरा और नारियल आदि से पूजा करे। यदि इन सबका अभाव हो तो सुपारी ही श्रेष्ठ है ।
फिर अर्घ्य देकर जनार्दन का पूजन करके प्रार्थना करे । हे कृष्ण ! हे कृष्ण! तुम दयालु हो । पापियों को मोक्ष देने वाले हो । हे परमेश्वर ! संसार-सागर में जो डूबे हुए हैं उन पर प्रसन्न होइए। हे पुण्डरीकाक्ष ! हे विश्वभावन ! आपको नमस्कार है । हे सुब्रह्मण्य ! हे महापुरुष ! हे पूर्वज ! आपको नमस्कार है। हे जगत्पते ! मेरे दिये हुए अर्घ्य को लक्ष्मी सहित स्वीकार करें । फिर छत्र, उपानह और वस्त्र ब्राह्मण को देकर पूजन करे और जल से भरा हुआ कलश दे और कहे कि कृष्ण भगवान् मेरे ऊपर प्रसन्न हों । हे द्विजोत्तम ! काली गौ और तिलपात्र अपनी शक्ति के अनुसार उत्तम ब्राह्मण को देना चाहिए ।
हे मुने ! स्नान और भोजन में सफेद और काले तिल उत्तम हैं। इसलिए यश्वाशक्ति ब्राह्मण को भी देने चाहिए । खेत में तिल बोने से जितनी संख्या में तिल पैदा होते हैं उतने हजार वर्ष तक वह मनुष्य स्वर्ग में निवास करता है । तिल से स्नान करे, फिर तिल से उबटना करे, तिल से होम करे, तिल से तर्पण करे, तिल का भोजन करे, तिल का दान करे, ये छः प्रकार से तिल के प्रयोग की विधि पापों का नाश करती हैं । इसी से इस एकादशी का नाम षट्तिला है ।
नारदजी बोले – हे कृष्ण ! हे महाबाहो ! हे भक्तभाजन! षट्तिला एकादशी से क्या फल मिलता है । हे यादव ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो इतिहास समेत मुझसे कहिए ।
श्रीकृष्ण बोले – हे ब्रह्मन् ! जैसा वृत्तान्त मैंने देखा है, तुम से कहता हूँ। हे नारद ! एक ब्राह्मणी मनुष्यलोक में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती हुई देवताओं क पूजन करती थी। वह मेरी भक्ता थी और सदा व्रत में लगी थी। कृष्ण का उपवास करती हुई मेरी पूजा में लगी रहती थी। हे द्विजोत्तम ! नित्य व्रत करने से उसका शरीर दुर्बल हो गया। गरीब ब्राह्मण और कुमारी कन्याओं को भक्ति से वह अपना घर तक दान करने लगी और सदा कठिन व्रत करने लगी जिससे वह बहुत दुर्बल हो गई। हे द्विज ! उसने अन्न दान करके ब्राह्मण और देवताओं को तृप्त नहीं किया।
फिर बहुत दिनों के बाद मैंने मन में विचार किया कि। कठिन व्रतों के करने से इसका शरीर शुद्ध हो गया है। शरीर को सुखाकर इसने स्वर्ग जाने के योग्य अपनी देह बना ली है । उसने अन्न का दान नहीं किया जिससे कि सबकी तृप्ति होती है। हे ब्रह्मन् ! उसकी परीक्षा लेने मैं मनुष्यलोक में गया । भिक्षुक का रूप धारण करके भिक्षा पात्र लेकर ब्राह्मणी से भीख माँगने लगा। तब ब्राह्मणी बोली – हे ब्रह्मन् ! तुम कहाँ से आये हो, मुझ से सत्य कहो । फिर मैंने कहा –
हे सुन्दरी ! भिक्षा दो। तब उसने क्रोध में भरकर मिट्टी का बेला मेरे भिक्षा पात्र में डाल दिया। हे द्विज ! फिर मैं स्वर्ग को चला गया। महाव्रत करने वाली, तपस्विनी भी व्रत के प्रभाव से देह समेत स्वर्ग पहुँच गई । मिट्टी के पिंड के दान करने से उसको एक सुन्दर घर मिल गया । परन्तु उस घर में अन्न और धन नहीं था।
हे विप्रर्षे ! जो उसने प्रवेश किया तो वहाँ कुछ भी नहीं देखा। हे द्विज ! तब घर से निकल कर मेरे पास आई। और बहुत कुपित होकर बोली कि सब लोकों को रचने वाले विष्णु भगवान का मैंने बड़े कठिन व्रत, उपवास और पूजा से आराधन किया है । परन्तु हे जनार्दन ! मेरे घर में अन्न-धन कुछ भी नहीं है।
तब मैंने उससे कहा कि तू जैसे आई है उसी तरह अपने घर चली जा, कुछ काल में देवताओं की स्त्रियाँ कौतूहलवश तुझको देखने आएँगी, तब तू षट्तिला एकादशी का माहात्म्य बिना पूछे दरवाजा मत खोलना। तब ऐसा सुनकर वह मानुषी चली गई। हे नारद ! तब उसी समय देवताओं की स्त्रियाँ उसे देखने आईं और कहा कि हम तुम्हारे दर्शन के लिए आई हैं । हे शुभानने ! हम तुमको देखने के लिए आई हैं, तुम दरवाजा खोलो ।
मानुषी बोली – यदि तुम विशेष रूप से देखना चाहती हो तो सत्य कहना। दरवाजा खोलने से पहले षट्तिला का व्रत, पुण्य और माहात्म्य कहना होगा । वहाँ किसी ने भी नहीं कहा । उनमें से एक ने माहात्म्य सुना दिया और कहा कि हे मानुषी ! दरवाजा खोल दो, तुमको देखना आवश्यक है। उ
सने दरवाजा खोल दिया, उन सबने मानुषी को देख लिया। हे द्विजश्रेष्ठ ! वह न तो देवी है, न गन्धर्वी है, न आसुरी है, न नागिन है। जैसी स्त्री पहले उन्होंने देखी थी वैसी ही वह भी थी। देवियों के उपदेश से सत्य पर चलने वाली उस मानुषी ने भुक्ति और मुक्ति को देने वाली षट्तिला का व्रत किया ।
तब वह मानुषी क्षण भर में रूपवती, कान्तियुक्त हो गई और उसके यहाँ धन, धान्य, वस्त्र, सुवर्ण, चाँदी ये सब हो गया। षट्तिला के प्रभाव से सब धन-धान्य से पूर्ण हो गया। लोभ के वश होकर बहुत तृष्णा नहीं करनी चाहिए, अपने धन के अनुसार तिल, वस्त्र आदि का दान करे ।
इससे जन्मान्तर में आरोग्य लाभ होता है। हे द्विजश्रेष्ठ ! षट्तिला का उपवास करने से दरिद्रता, मन्द भाग्य और अनेक प्रकार के कष्ट नहीं होते। हे राजन् ! इस विधि से तिल का दान करने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है, इसमें सन्देह नहीं है । विधिपूर्वक किया हुआ दान सब पापों को नाश करता है। हे मुनिसत्तम ! इससे शरीर में थकावट, अनर्थ अथवा कष्ट नहीं होता ।
षट्तिला एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
दाल्भ्य ऋषि ने मनुष्यों द्वारा किए गए पापों और उनके निवारण के उपायों का प्रश्न किया जिसका उत्तर देते पुलस्त्य मुनि षट्तिला एकादशी की कथा कही। उन्होंने बताया कि माघ महीने की षट्तिला एकादशी पर विशेष पूजा और तिल का दान करते हुए पापों का नाश किया जा सकता है। इसमें स्नान, उपवास और भगवान कृष्ण का स्मरण आदि करना चाहिये। पाठ में एक ब्राह्मणी की कथा भी है, जिसने कठिन व्रतों से स्वर्ग प्राप्त किया किन्तु अन्नदान नहीं करने के कारण उसके घर में धन और अन्न की कमी थी। अंततः उसने षट्तिला एकादशी का व्रत किया, जिससे उसे समृद्धि प्राप्त हुई। इस विधि का पालन करने से मनुष्य सभी कष्टों से मुक्त होता है।
षट्तिला एकादशी व्रत की कथा में दान का महत्व भी बताया गया है। बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो पूजा-पाठ-जपादि तो करते हैं किन्तु दान नहीं करना चाहते हैं अथवा दान के स्थान पर अन्य विकल्प यथा भिक्षा देना, ट्रस्ट को डोनेशन देना आदि ग्रहण करते हैं किन्तु योग्य ब्राह्मण को विधिवत दान नहीं देते, इस कथा में उनके लिये भी महत्वपूर्ण सीख है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।