कार्तिक, माघ आदि मासों में प्रातः स्नान मुख्य कर्म होता है, कार्तिक माहात्म्य के छठे अध्याय में मुख्य रूप से स्नान की विधि बताई गयी है। घर, जलाशय आदि में स्नान करने संबंधी फलों का उल्लेख संगम/तीर्थों में स्नान के फल को अनंत बताया गया है। स्नानोपरांत तर्पण करने का निर्देश भी दिया गया है जो महत्वपूर्ण है। भगवान विष्णु की पूजा तो करे ही साथ ही ब्राह्मण की पूजा भी करे ऐसा भी बताया गया है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 6 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
नाडीद्वयावशिष्टायां रात्रौ गच्छेज्जलाशयम् । तिलदर्भाक्षतैः पुष्पगन्धाद्यैः सहितः शुचिः ॥१॥
मानुषे देवखाते च नद्यां नद्योश्च संगमे । क्रमाद्दशगुणं स्नानं तीर्थेऽनंतफलं स्मृतम् ॥२॥
विष्णुं स्मृत्वा ततः कुर्यात्संकल्पं स्नपनस्य तु । तीर्थादिदेवतादिभ्यश्च क्रमादर्घादि दापयेत् ॥३॥
(अर्घमंत्रः)
ॐ नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने । नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते ॥४॥
वैकुंठे च प्रयागे च तथा बदरिकाश्रमे । यतो विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा स निदधे पदम् ॥५॥
अतो देवा मामवंतु यतो विष्णुर्विचक्रमे । तैरेव सहितैः सम्यङ् मुनिर्वेदमखान्वितैः ॥६॥
कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःस्नानं सुरोत्तम । प्रीत्यर्थं देवदेवेश दामोदर यथाविधि ॥७॥
ध्यात्वा नत्वा च देवेशं जलेऽस्मिन्स्नातुमुद्यतः । तव प्रसादात्पापं मे दामोदर विनश्यतु ॥८॥
(अर्घमन्त्राः)
व्रतिनः कार्तिके मासि स्नातस्य विधिवन्मम । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥९॥
नित्यनैमित्तिके कृष्णे कार्तिके पापनाशने । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं दानवेन्द्रनिषूदन ॥१०॥
स्मृत्वा भागीरथीं विष्णुं शिवं सूर्यं जले विशेत् । नाभिमात्रे जले तिष्ठन्व्रती स्नायाद्यथाविधि ॥११॥
तिलामलकचूर्णेन गृही स्नानं समाचरेत् । विधवास्त्री यतीनां च तुलसीमूलमृत्तिका ॥१२॥
सप्तमी दर्श नवमी द्वितीया दशमीषु च । त्रयोदश्यां न वै स्नायाद्धात्रीफल तिलैः सह ॥१३॥
आदौ कुर्यान्मलस्नानं मंत्रस्नानं ततः परम् । स्त्री शूद्राणां न वेदोक्तैर्मंत्रैस्तेषां पुराणजैः ॥१४॥
(स्नान मन्त्राः)
त्रिधाऽभूद्देवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावनः । स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयाऽत्र माम् ॥१५॥
विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारकान् । रक्षंतु देवास्ते सर्वे मां पुनंतु सवासवाः ॥१६॥
वेदमंत्राः सबीजास्तु सरहस्या मखान्विताः । कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनंतु सदैव ते ॥१७॥
गंगाद्याः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः । ससप्तसागराः सर्वे मां पुनंतु जलाशयाः ॥१८॥
पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः । ओषध्यः पर्वताश्चाशु मां पुनंतु त्रिलोकजाः ॥१९॥
एभिः स्नात्वा व्रती मंत्रैर्हस्तन्यस्तपवित्रकः । देवर्षीमानवन्पितॄंस्तर्पयेच्च यथाविधि ॥२०॥
यावंतः कार्तिके मासि वर्तंते पितृतर्पणे । तिलास्तत्संख्यकाब्दानि पितरः स्वर्गवासिनः ॥२१॥
ततो जलाद्विनिष्क्रम्य शुचिवस्त्रावृतो व्रती । प्रातःकालोदितं कर्म समाप्यार्चेद्धरिं पुनः ॥२२॥
तीर्थादिदेवान्संस्मृत्य पुनरर्घ्यं प्रदापयेत् । गंधपुष्पफलैर्युक्तो भक्तितत्परमानसः ॥२३॥
(अर्घमंत्रः)
व्रतिनः कार्तिके मासि स्नातस्य विधिवन्मम । गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥२४॥
ततश्च ब्राह्मणान्भक्त्या भोजयेद्वेदपारगान् । गंधपुष्पैः सतांबूलैः प्रणमेच्च पुनः पुनः ॥२५॥
तीर्थानि दक्षिणे पादे वेदाश्च मुखमाश्रिताः । सर्वांगे संस्थिता देवाः पूजिताः स्युर्द्विजार्चनात् ॥२६॥
अव्यक्तरूपिणो विष्णोः स्वरूपं ब्राह्मणा भुवि । नावमान्या नो विरोध्याः कदाचिच्छुभमिच्छता ॥२७॥
ततो हरिप्रियां देवीं तुलसीमर्चयेद्व्रती । प्रदक्षिणां नमस्कारान्कुर्यादेकाग्रमानसः ॥२८॥
देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः । नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ॥२९॥
ततो विष्णुकथां श्रुत्वा पौराणीं स्निग्धमानसः । तं ब्राह्मणं मुनिं विप्रं पूजयेद्भक्तिमान्व्रती ॥३०॥
एवं पूर्णविधिं सम्यक्पूर्वोक्तं भक्तिमान्नरः । करोति यः स लभते नारायणसलोकताम् ॥३१॥
रोगापहं पापविनाशकृत्परं सद्बुद्धिदं पुत्रधनादिसाधनम् ।
मुक्तेर्निदानं न हि कार्तिकव्रताद्विष्णुप्रियादन्यतमं हि भूतले ॥३२॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यासंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 6 हिन्दी में
नारद जी बोले : जब दो घड़ी रात बाकी रहे तब तुलसी की मृत्तिका, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय पर जाये। कार्तिक में जहां कहीं भी प्रत्येक जलाशय के जल में स्नान करना चाहिए।
गरम जल की अपेक्षा ठण्डे जल में स्नान करने से दस गुना पुण्य होता है। उससे सौ गुना पुण्य बाहरी कुएं के जल में स्नान करने से होता है। उससे अधिक पुण्य बावड़ी में और उससे भी अधिक पुण्य पोखर में स्नान करने से होता है। उससे दस गुना झरनों में और उससे भी अधिक पुण्य कार्तिक में नदी स्नान करने से होता है। उससे भी दस गुना पुण्य वहाँ होता हैं जहां दो नदियों का संगम हो और यदि कहीं तीन नदियों का संगम हो तब तो पुण्य की कोई सीमा ही नहीं।
स्नान से पहले भगवान का ध्यान कर के स्नानार्थ संकल्प करना चाहिए फिर तीर्थ में उपस्थित देवताओं को क्रमश: अर्घ्य, आचमनीय आदि देना चाहिए।
अर्घ्य मन्त्र इस प्रकार है : हे कमलनाथ्! आपको नमस्कार है, हे जलशायी भगवान! आपको प्रणाम है, हे ऋषिकेश! आपको नमस्कार है। मेरे दिए अर्घ्य को आप ग्रहण करें। वैकुण्ठ, प्रयाग तथा बद्रिकाश्रम में जहां कहीं भगवान विष्णु गये, वहाँ उन्होंने तीन प्रकार से अपना पांव रखा था। वहाँ पर ऋषि वेद यज्ञों सहित सभी देवता मेरी रक्षा करते रहें।
हे जनार्दन, हे दामोदर, हे देवेश! आपको प्रसन्न करने हेतु मैं कार्तिक मास में विधि-विधान से ब्रह्ममुहूर्त में स्नान कर रहा हूँ। आपकी कृपा से मेरे सभी पापों का नाश हो। हे प्रभो! कार्तिक मास में व्रत तथा विधिपूर्वक स्नान करने वाला मैं अर्घ्य देता हूँ, आप राधिका सहित ग्रहण करें। हे कृष्ण! हे बलशाली राक्षसों का संहार करने वाले भगवन्! हे पापों का नाश करने वाले! कार्तिक मास में प्रतिदिन दिये हुए मेरे इस अर्घ्य द्वारा कार्तिक स्नान का व्रत करने वाला फल मुझे प्राप्त हो।
तत्पश्चात विष्णु, शिव तथा सूर्य का ध्यान कर के जल में प्रवेश कर नाभि के बराबर जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए। गृहस्थी को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर तथा विधवा स्त्री व यती को तुलसी की जड़ की मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, त्रयोदशी, द्वितीया, दशमी आदि तिथियों को आंवला तथा तिल से स्नान करना वर्जित है।
स्नान करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए – जिस भक्तिभाव से भगवान ने देवताओं के कार्य के लिए तीन प्रकार का रूप धारण किया था, वही पापों का नाश करने वाले भगवान विष्णु अपनी कृपा से मुझे पवित्र बनाएं। जो मनुष्य भगवान विष्णु की आज्ञा से कार्तिक व्रत करता है, उसकी इन्द्रादि सभी देवता रक्षा करते हैं इसलिए वह मुझको पवित्र करें। बीजों, रहस्यों तथा यज्ञों सहित वेदों के मन्त्र कश्यप आदि ऋषि, इन्द्रादि देवता मुझे पवित्र करें। अदिति आदि सभी नारियां, यज्ञ, सिद्ध, सर्प और समस्त औषधियाँ व तीनो लोकों के पहाड़ मुझे पवित्र करें।
इस प्रकार कहकर स्नान करने के बाद मनुष्य को हाथ में पवित्री धारण कर के देवता, ऋषि, मनुष्यों तथा पितरों का विधिपूर्वक तर्पण करना चाहिए। तर्पण करते समय तर्पण में जितने तिल रहते हैं, उतने वर्ष पर्यन्त व्रती के पितृगण स्वर्ग में वास करते हैं। उसके बाद व्रती को जल से निकलकर शुद्ध वस्त्र धारण करने चाहिए। सभी तीर्थों के सारे कार्यों से निवृत्त होकर पुन: भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए।
सभी तीर्थो के सारे देवताओं का स्मरण करके भक्तिपूर्वक सावधान होकर चन्दन, फूल और फलों के साथ भगवान विष्णु को फिर से अर्ध्य देना चाहिए।
अर्घ्य के मंत्र का अर्थ इस प्रकार है – मैंने पवित्र कार्तिक मास में स्नान किया है। हे विष्णु! राधा के साथ आप मेरे दिये अर्घ्य को ग्रहण करें! तत्पश्चात चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि से वेदपाठी ब्राह्मणों का श्रद्धापूर्वक पूजन करें और बारम्बार नमस्कार करें। ब्राह्मणों के दाएं पांव में तीर्थों का वास होता है, मुँह में वेद और समस्त अंगों में देवताओं का वास होता है। अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इनका न तो अपमान करना चाहिए और न ही इनका विरोध करना चाहिए।
फिर एकाग्रचित्त होकर भगवान विष्णु की प्रिय तुलसी जी की पूजा करनी चाहिए, उनकी परिक्रमा कर के उनको प्रणाम करना चाहिए.. – हे देवि! हे तुलसी! देवताओं ने ही प्राचीनकाल से तुम्हारा निर्माण किया है और ऋषियों ने तुम्हारी पूजा की है। हे विष्णुप्रिया तुलसी! आपको नमस्कार है। आप मेरे समस्त पापों को नष्ट करो।
इस प्रकार जो मनुष्य भक्तिपूर्वक कार्तिक व्रत का अनुष्ठान करते हैं, वे संसार के सुखों का भोग करते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 6 भावार्थ/सारांश
कार्तिक, माघ आदि मासों में प्रातः स्नान मुख्य कर्म होता है, एवं प्रातः स्नान के लिये सूर्योदय से दो घटी पूर्व का काल निर्धारित किया गया है।
गरम जल की अपेक्षा ठण्डे जल में स्नान करने से दस गुना पुण्य होता है। उससे सौ गुना पुण्य बाहरी कुएं के जल में स्नान करने से होता है। उससे अधिक पुण्य बावड़ी में और उससे भी अधिक पुण्य पोखर में स्नान करने से होता है। उससे दस गुना झरनों में और उससे भी अधिक पुण्य कार्तिक में नदी स्नान करने से होता है। उससे भी दस गुना पुण्य वहाँ होता हैं जहां दो नदियों का संगम हो और यदि कहीं तीन नदियों का संगम हो तब तो पुण्य की कोई सीमा ही नहीं।
तीर्थादि में स्नान करने से पूर्व भगवान विष्णु को अर्घ्य देकर कवच धारण करे। तत्पश्चात नाभिमात्र जल में जाकर स्नान करे। गृहस्थी को तिल और आँवले का चूर्ण लगाकर तथा विधवा स्त्री व यती को तुलसी की जड़ की मिट्टी लगाकर स्नान करना चाहिए। सप्तमी, अमावस्या, नवमी, त्रयोदशी, द्वितीया, दशमी आदि तिथियों को आंवला तथा तिल से स्नान करना वर्जित है।
स्नान करके तर्पण करे फिर शुद्ध वस्त्रादि धारण करके भगवान विष्णु की पूजा करे। भगवान विष्णु की पूजा करने के उपरांत ब्राह्मण और तुलसी की पूजा करे।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।