तुलसी के मूल में भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिये ऐसा कार्तिक उद्यापन विधान में सुनने से राजा पृथु के मन में तुलसी के इस महत्व को जानने की इच्छा उत्पन्न हुयी और उन्होंने इसके विषय में नारद जी से प्रश्न किया। तुलसी की कथा जालंधर से संबद्ध है इस कारण नारद जी ने जालंधर के उत्पत्ति की कथा, नामकरण, विवाह तक की कथा कहने लगे।कार्तिक माहात्म्य के नौवें अध्याय में जालंधर उत्पत्ति प्रसंग का ही वर्णन है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 9 मूल संस्कृत में
पृथुरुवाच यत्त्वया
कथितं ब्रह्मन्व्रतमूर्जस्य विस्तरात् । तत्र या तुलसीमूले विष्णोः पूजा त्वयोदिता ॥१॥
तेनाहं प्रष्टुमिच्छामि माहात्म्यं तुलसीभवम् । कथं साऽतिप्रिया विष्णोर्देवदेवस्य शार्ङ्गिणः ॥२॥
कथमेषा समुत्पन्ना कस्मिंस्थाने च नारद । एतद्ब्रूहि समासेन सर्वज्ञोऽसि मतो हि मे ॥३॥
नारदउवाच
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि माहात्म्यं तुलसीभवम्। सेतिहासं पुरावृत्तं तत्सर्वं कथयामि ते ॥४॥
(प्रणम्य शिरसा रुद्रं देवा ब्रह्मादयोऽब्रुवन् । पुरा रुद्रेण दैत्येंद्रे सिंधुसूनौ निपातिते॥)
पुरा शक्रः शिवं द्रष्टुमगात्कैलासपर्वतम् । सर्वदेवैः परिवृतस्त्वप्सरोगणसेवितः ॥५॥
यावद्गतः शिवगृहं तावत्तत्राशु दृष्टवान् । पुरुषं भीमकर्माणं दंष्ट्रानयनभीषणम् ॥६॥
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो क्व गतो जगदीश्वरः । एवं पुनः पुनः पृष्टः स यदा नोचिवान्नृप ॥७॥
ततः क्रुद्धो वज्रपाणिस्तन्निर्भर्त्स्य वचोऽब्रवीत् । रे मया पृच्छमानोऽपि नोत्तरं दत्तवानसि ॥८॥
अतस्त्वां हन्मि वज्रेण कस्ते त्रातास्ति दुर्मते । इत्युदीर्य ततो वज्री वज्रेण चाहनद्दृढम् ॥९॥
तेनास्य कंठे नीलत्वमगाद्वज्रं च भस्मतां । ततो रुद्र प्रजज्वाल तेजसा प्रदहन्निव ॥१०॥
दृष्ट्वा बृहस्पतिस्तूर्णं कृतांजलिपुटोऽभवत् । इंद्रश्चदंडवद्भूमौ कृत्वा स्तोतुं प्रचक्रमे ॥११॥
बृहस्पतिरुवाच
नमो देवाधिदेवाय त्र्यंबकाय कपर्दिने । त्रिपुरघ्नाय शर्वाय नमोऽन्धकनिषूदिने ॥१२॥
विरूपायातिरूपाय बहुरूपाय शंभवे । यज्ञविध्वंसकर्त्रे च यज्ञानां फलदायिने ॥१३॥
कालांतकाय कालाय कालभोगिधराय च । नमो ब्रह्मशिरोहंत्रे ब्राह्मण्याय नमो नमः ॥१४॥
नारद उवाच
एवं स्तुतस्तदा शंभुः द्विजर्षभं जगाद ह । संहरन्नयनज्वालं त्रिलोकीदहनक्षमाम् ॥१५॥
वरं वरय भो ब्रह्मन्प्रीतः स्तुत्याऽनया तव । इंद्रस्यजीवदानेन जीवेति त्वं प्रथां व्रज ॥१६॥
बृहस्पतिरुवाच यदि तुष्टोऽसि देव त्वं पाहींद्रं शरणागतम् । अग्निरेष शमं यातु भालनेत्रसमुद्भवः ॥१७॥
ईश्वर उवाच
पुनः प्रवेशमायाति भालनेत्रे कथं त्वयम् । एनं त्यक्ष्याम्यहं दूरे यथेंद्रं नैव पीडयेत् ॥१८॥
नारद उवाच
इत्युक्त्वा तं करे धृत्वा प्राक्षिपल्लवणांभसि । सोऽपतत्सिंधुगंगायाः सागरस्य च संगमे ॥१९॥
तदा स बालरूपत्वमगात्तत्र रुरोद च । रुदतस्तस्य शब्देन प्राकंपद्धरणी मुहुः ॥२०॥
स्वर्गश्च सत्यलोकश्च तत्स्वनाद्बधिरीकृतौ । श्रुत्वा ब्रह्मा ययौ तत्र किमेतदिति विस्मितः ॥२१॥
तावत्समुद्रस्योत्संगे तं बालं स ददर्श ह । ततो ब्रह्माऽब्रवीद्वाक्यं कस्यायं शिशुरद्भुतः ॥२२॥
निशम्येति वचो धातुर्वाक्यं तु सागरोऽब्रवीत् । दृष्ट्वा ब्राह्मणमायांतं समुद्रोऽपि कृतांजलि ॥२३॥
प्रणम्य शिरसा बालं तस्योत्संगे न्यवेशयेत् । भो ब्रह्मन्सिधुगंगायां जातोऽयं मम पुत्रकः ॥२४॥
जातकर्मादि संस्कारान्कुरुष्वास्य जगद्गुरो ।
नारद उवाच
इत्थं वदति पाथोधौ स बालः सागरात्मजः ॥२५॥
ब्रह्माणमग्रहीत्कूर्चे विधुन्वंस्तं मुहुर्मुहुः । धुन्वतस्तस्य कूर्चं तु नेत्राभ्यामागमज्जलम् ॥२६॥
कथंचिन्मुक्तकूर्चोऽथ ब्रह्मा प्रोवाच सागरम्।
ब्रह्मोवाच
नेत्राभ्यां विधृतं यस्मादनेनैतज्जलं मम ॥२७॥
तस्माज्जलंधर इति ख्यातो नाम्ना भवत्यसौ। याति यत्र समुद्भूतस्तत्रेदानीं गमिष्यति ॥२८॥
नारद उवाच
इत्युक्त्वा शुक्रमाहूय राज्ये तं चाभ्यषेचयत् । आमंत्र्य सरितां नाथं ब्रह्मांतर्द्धानमन्वगात् ॥२९॥
अथ तद्दर्शनोत्फुल्लनयनः सागरस्तदा । कालनेमिसुतां वृंदां तद्भार्यार्थमयाचत ॥३०॥
ते कालनेमिप्रमुखास्ततोऽसुरास्तस्मै सुतां तां प्रददुः प्रहर्षिताः ।
स चापि तान्प्राप्यसुहृद्वरान्वशी शशास गां शुक्रसहायवान्बली ॥३१॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यासंवादे नवमोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 9 हिन्दी में
राजा पृथु ने कहा : हे मुनिश्रेष्ठ नारद जी! आपने कार्तिक माह के व्रत में जो तुलसी की जड़ में भगवान विष्णु का निवास बताकर उस स्थान की मिट्टी की पूजा करना बतलाया है, अत: मैं श्री तुलसी जी के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ। तुलसी जी कहाँ और किस प्रकार उत्पन्न हुई, यह बताने की कृपा करें।
नारद जी बोले : एक बार देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र भगवान शंकर का दर्शन करने कैलाश पर्वत की ओर चले तब भगवान शंकर ने अपने भक्तों की परीक्षा लेने के लिए जटाधारी दिगम्बर का रुप धारण कर उन दोनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया यद्यपि वह तेजस्वी, शान्त, लम्बी भुजा और चौड़ी छाती वाले, गौर वर्ण, अपने विशाल नेत्रों से युक्त तथा सिर पर जटा धारण किये वैसे ही बैठे थे तथापि उन भगवान शंकर को न पहचान कर इन्द्र ने उनसे उनका नाम व धाम आदि पूछते हुए कहा कि क्या भगवान शंकर अपने स्थान पर हैं या कहीं गये हुए हैं?
इस पर तपस्वी रूप भगवान शिव कुछ नहीं बोले। इन्द्र को अपने त्रिलोकीनाथ होने का गर्व था, उसी अहंकार के प्रभाव से वह चुप किस प्रकार रह सकता था, उसने क्रोधित होते हुए उस तपस्वी को धुड़ककर कहा :
अरे! मैंने तुझसे कुछ पूछा है और तू उसका उत्तर भी नहीं देता, मैं अभी तुझ पर वज्र का प्रहार करता हूँ फिर देखता हूँ कि कौन तुझ दुर्मति की रक्षा करता है। इस प्रकार कहकर जैसे ही इन्द्र ने उस जटाधारी दिगम्बर को मारने के लिए हाथ में वज्र लिया वैसे ही भगवान शिव ने वज्र सहित इन्द्र का हाथ स्तम्भित कर दिया और विकराल नेत्र कर उसे देखा। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह दिगम्बर प्रज्वलित हो उठा है और वह अपने तेज से जला देगा।
भुजाएँ स्तम्भित होने के कारण इन्द्र दुखित होने के साथ-साथ अत्यन्त कुपित भी हो गया परन्तु उस जटाधारी दिगम्बर को प्रज्वलित देखकर बृहस्पति जी ने उन्हें भगवान शंकर जानकर प्रणाम किया और दण्डवत होकर उनकी स्तुति करने लगे। बृहस्पति भगवान शंकर से कहने लगे :
हे दीनानाथ! हे महादेव! आप अपने क्रोध को शान्त कर लीजिए और इन्द्र के इस अपराध को क्षमा कीजिए। बृहस्पति के यह वचन सुनकर भगवान शंकर ने गम्भीर वाणी में कहा : मैं अपने नेत्रों से निकाले हुए क्रोध को किस प्रकार रोकूँ?
तब बृहस्पति ने कहा : भगवन्! आप अपना भक्तवत्सल नाम सार्थक करते हुए अपने भक्तों पर दया कीजिए। आप अपने इस तेज को अन्यत्र स्थापित कीजिए और इन्द्र का उद्धार कीजिए। तब भगवान शंकर गुरु बृहस्पति से बोले :
मैं तुम्हारी स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने इन्द्र को जीवनदान दिलवाया है। मुझे विश्वास है कि मेरे नेत्रों की अग्नि अब इन्द्र को पीड़ित नहीं करेगी। बृहस्पति से इस प्रकार कहकर भगवान शिव ने अपने मस्तक से निकाले हुए अग्निमय तेज को अपने हाथों में ले लिया और फिर उसे क्षीर सागर में डाल दिया तत्पश्चात भगवान शंकर अन्तर्ध्यान हो गये। इस प्रकार जिसको जो जानने की कामना थी उसे जानकर इन्द्र तथा बृहस्पति अपने-अपने स्थान को चले गये।
राजा पृथु बोले – हे ऋषिश्रेष्ठ नारद जी! आपको प्रणाम है। कृपया अब यह बताने की कृपा कीजिए कि जब भगवान शंकर ने अपने मस्तक के तेज को क्षीर सागर में डाला तो उस समय क्या हुआ?
नारद जी बोले – हे राजन्! जब भगवान शंकर ने अपना वह तेज क्षीर सागर में डाल दिया तो उस समय वह शीघ्र ही बालक होकर सागर के संगम पर बैठकर संसार को भय देने वाला रूदन करने लगा। उसके रूदन से सम्पूर्ण जगत व्याकुल हो उठा। लोकपाल भी व्याकुल हो गये। चराचर चलायमान हो गया। शंकर सुवन के रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याकुल हो गया। यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि व्याकुल होकर ब्रह्माजी की शरण में गये और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। उन सभी ने ब्रह्मा जी से कहा –
हे पितामह! यह तोन बहुत ही विकट परिस्थिति उत्पन्न हो गई है। हे महायोगिन! इसको नष्ट कीजिए। देवताओं के मुख से इस प्रकार सुनकर ब्रह्माजी सत्यलोक से उतरकर उस बालक को देखने के लिए सागर तट पर आये। सागर ने ब्रह्मा जी को आता देखकर उन्हें प्रणाम किया और बालक को उठाकर उनकी गोद में दे दिया।
आश्चर्य चकित होते हुए ब्रह्मा जी ने पूछा – हे सागर! यह बालक किसका है, शीघ्रतापूर्वक कहो।
सागर विनम्रतापूर्वक बोला – प्रभो! यह तो मुझे ज्ञात नहीं है परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि यह गंगा सागर के संगम पर प्रगट हुआ है इसलिए हे जगतगुरु! आप इस बालक का जात कर्म आदि संस्कार कर के इसका जातक फल बताइए। नारद जी
राजा पृथु से बोले – सागर ब्रह्माजी के गले में हाथ डालकर बार-बार उनका आकर्षण कर रहा था। फिर तो उसने ब्रह्माजी का गला इतनी जोर से पकड़ा कि उससे पीड़ित होकर ब्रह्मा जी की आँखों से अश्रु टपकने लगे। ब्रह्माजी ने अपने दोनों हाथों का जोर लगाकर किसी प्रकार सागर से अपना गला छुड़वाया और सागर से कहा –
हे सागर! सुनो, मैं तुम्हारे इस पुत्र का जातक फल कहता हूँ। मेरे नेत्रों से जो यह जल निकला है इस कारण इसका नाम जलन्धर होगा। उत्पन्न होते ही यह तरुणावस्था को प्राप्त हो गया है इसलिए यह सब शास्त्रों का पारगामी, महापराक्रमी, महावीर, बलशाली, महायोद्धा और रण में विजय प्राप्त करने वाला होगा। यह बालक सभी दैत्यों का अधिपति होगा। यह किसी से भी पराजित न होने वाला तथा भगवान विष्णु को भी जीतने वाला होगा। भगवान शंकर को छोड़कर यह सबसे अवध्य होगा। जहां से इसकी उत्पत्ति हुई है यह वहीं जायेगा। इसकी पत्नी बड़ी पतिव्रता, सौभाग्यशालिनी, सर्वांगसुन्दरी, परम मनोहर, मधुर वाणी बोलने वाली तथा शीलवान होगी।
सागर से इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने शुक्राचार्य को बुलवाया और उनके हाथों से बलक का राज्याभिषेक कराकर स्वयं अन्तर्ध्यान हो गये। बालक को देखकर सागर की प्रसन्नता की सीमा न रही, वह हर्षित मन से घर आ गया। फिर सागर में उस बालक का लालन-पालन कर उसे पुष्ट किया, फिर कालनेमि नामक असुर को बुलाकर वृन्दा नामक कन्या से विधिपूर्वक उसका विवाह करा दिया। उस विवाह में बहुत बड़ा उत्सव हुआ। श्री शुक्राचार्य के प्रभाव से पत्नी सहित जलन्धर दैत्यों का राजा हो गया।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 9 भावार्थ/सारांश
राजा पृथु को तुलसी के महत्व के बारे में जानने की उत्सुकता थी, इसलिए उन्होंने नारद जी से इसके बारे में पूछा। कार्तिक माहात्म्य के नवम अध्याय में राजा पृथु ने नारद जी से तुलसी के महत्व की कथा सुनी। नारद जी ने उन्हें जालंधर की उत्पत्ति और उसका महत्व बताया, जो भगवान शिव के क्रोध से समुद्र में उत्पन्न हुआ था।
जब इन्द्र और बृहस्पति भगवान शंकर के दर्शन के लिए गए, तो शंकर जी ने उनकी परीक्षा लेने हेतु जटाधारी रूप धारण किया। इन्द्र के अहंकार के कारण भगवान शिव से वाद-विवाद हुआ, भगवान शिव के नेत्रों से जो क्रोध निकला, उसे समुद्र में फेंक दिया, जिसके परिणामस्वरूप रुदन करता एक बालक उत्पन्न हुआ जिसे जलंधर कहा गया।
इसे जलंधर कहा गया, जिसका पालन-पोषण समुद्र ने किया। कालनेमि की पुत्री वृंदा से इसका विवाह हुआ। इस प्रकार कार्तिक माहात्म्य अध्याय 9 में जलंधर के उत्पत्ति, ब्रह्मा द्वारा नामकरण और कालनेमि की पुत्री वृंदा से विवाह होने संबंधी कथा का वर्णन है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।