वृंदा से विवाहित जलंधर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था, एक बार संयोग से उसे राहु का कटा सिर दिखा जिसके बारे में उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य से प्रश्न किया तो शुक्राचार्य ने समुद्रमंथन से अमृत-रत्नादि निकलने से लेकर अमृतपान करने वाले राहु का भगवान विष्णु द्वारा सिर कटने की पूरी कथा बताई, जिसे सुनकर जलंधर अत्यंत क्रुद्ध हुआ और दैत्यों की सेना जुटाकर देवताओं से युद्ध करने लगा। कार्तिक माहात्म्य के दशवें अध्याय में देवताओं का जलंधर से युद्ध के अमरावतीपुरी पर जलंधर का अधिकार उपरांत देवताओं के गुफाओं में छिपने की कथा है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 10 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
ये देवैर्निर्जिताः पूर्वं दैत्याः पातालसंस्थिताः। ते हि भूमंडलं जाता निर्भयास्तमुपासितुम् ॥१॥
कदाचिच्छिन्नशिरसं राहुं दृष्ट्वा स दैत्यराट् । पप्रच्छ भार्गवं विप्रं केनेदं विहितं प्रभो ॥२॥
स शशंस समुद्रस्य मथनं देवकारितम्। रत्नापहरणं चैव दैत्यानां च पराभवम् ॥३॥
तच्छ्रुत्वा क्रोधरक्ताक्षः स्वपितुर्मथनं तदा। दूतं संप्रेषयामास घस्मरं शक्रसंनिधौ॥४॥
दूतस्त्रिविष्टपं गत्वा सुधर्मां प्राप्य सत्वरम्। जगादखर्वमौलिस्तु देवेंद्रं वाक्यमब्रवीत् ॥५॥
घस्मरं उवाच
जलंधरोऽब्धितनयः सर्वदैत्यजनेश्वरः।दूतोऽहं प्रेषितस्तेन स यदाह शृणुष्व तत् ॥६॥
कस्मात्त्वया मम पिता मथितः सागरोऽद्रिणा। नीतानि सर्वरत्नानि तानि शीघ्रं प्रयच्छ मे ॥७॥
इति दूतवचः श्रुत्वा विस्मितस्त्रिदशाधिपः । उवाच घस्मरं घोरं भयरोषसमन्वितः ॥८॥
ईश्वर उवाच
शृणु दूत मया पूर्वं मथितः सागरो यथा । अद्रयो मद्भयाद्भीताः स्वकुक्षिस्थास्तथा कृताः ॥९॥
अन्येऽपि मद्द्विषस्तेन रक्षिता दितिजास्तथा । तस्मात्तद्रत्नजातं तु मयाप्यपहृतं किल ॥१०॥
शंखोऽप्येवं पुरा देवानद्विषत्सागरात्मजः । ममानुजेन निहतः प्रविष्टः सागरोदरम् ॥११॥
तद्गच्छ कथयस्वास्यसर्वं मथनकारणम्।
नारद उवाच
इत्थं विसर्जितो दूतस्तदेंद्रेणागमद्गृहम् ॥१२॥
तदिन्द्रवचनं दैत्यराजायाकथयत्तदा। तन्निशम्य तदा दैत्यो रोषात्प्रस्फुरिताधरः॥१३॥
उद्योगमकरोत्तूर्णं सर्वदेवजिगीषया। तदोद्योगे सुरेंद्रस्य दिग्भ्यः पातालतस्तथा ॥१४॥
दितिजाः प्रत्यपद्यन्त शतशः कोटिशस्तथा। अथ शुंभनिशुंभाद्यैर्दलाधिपतिकोटिभिः ॥१५॥
गत्वा त्रिविष्टपं दैत्यो युद्धायाधिष्ठितोऽभवत्। निर्ययुस्त्वमरावत्या देवा युद्धाय दंशिताः ॥१६॥
पुरीमावृत्य तिष्ठंति दृष्ट्वा दैत्यबलं महत्। ततः समभवद्युद्धं देवदानवसेनयोः ॥१७॥
मुशलैः परिघैर्बाणैर्गदापरशुशक्तिभिः। तेऽन्योन्यं समधावेतां जघ्नतुश्च परस्परम् ॥१८॥
क्षणेनाभवतां सैन्ये रुधिरौघ परिप्लुते। पतितैः पात्यमानैश्च गजाश्वरथपत्तिभिः॥१९॥
व्यराजत रणे भूमिः संध्याभ्रपटलैरिव। तत्र युद्धे हतान्दैत्यान्भार्गवस्तूदतिष्ठयत् ॥२०॥
विद्ययाऽमृतजीविन्या मंत्रितैस्तोयबिंदुभिः। देवास्तत्र तथा युद्धे जीवयेदंगिरस्सुतः॥२१॥
दिव्यौषधीः समानीय द्रोणदेश्याः पुनः पुनः। दृष्ट्वा देवांस्तथा युद्धे पुनरेव समुत्थितान् ॥२२॥
जलंधरः क्रोधवशो भार्गवं वाक्यमब्रवीत् ॥२३॥
जलंधर उवाच
मया देवा हता युद्धे उत्तिष्ठंति कथं पुनः । तव संजीवनीविद्या नैवान्यत्रेति विश्रुतम् ॥२४॥
भृगुरुवाच
दिव्यौषधीः समानीय द्रोणाद्रेरङ्गिराः सुरान् । जीवयत्येष वै शीघ्रं द्रोणाद्रिं समपाहर ॥२५॥
नारद उवाच
इत्युक्तः स तु दैत्येंद्रो नीत्वा द्रोणाचलं तदा । प्राक्षिपत्सागरे तूर्णं पुनरागान्महाहवम् ॥२६॥
अथ देवान्हतान्दृष्ट्वा द्रोणाद्रिमगमद्गुरुः । तावत्तत्र गिरीन्द्रस्तु न ददर्श सुरार्चितः ॥२७॥
ज्ञात्वा दैत्यहृतं द्रोणं धिषणो भयविह्वलः । आगत्य दूराद्व्याजह्रे श्वासाकुलितविग्रहः ॥२८॥
पलायध्वं पलायध्वं नायं जेतुं हि शक्यते । रुद्रांशसंभवो ह्येष स्मरध्वं शक्रचेष्टितम् ॥२९॥
श्रुत्वा तद्वचनं देवा भयविह्वलितास्तदा । दैत्यैस्तैर्वध्यमानास्ते पलायंत दिशो दश ॥३०॥
देवान्विदारितान्दृष्ट्वा दैत्यः सागरनंदनः । शंखभेरीजयरवैः प्रविवेशामरावतीम् ॥३१॥
प्रविष्टे नगरं दैत्ये देवाः शक्रपुरोगमाः । सुवर्णाद्रिगुहां प्राप्य न्यवसन्दैत्यतापिताः ॥३२॥
ततश्च सर्वेष्वसुराधिकारेष्विंद्रादिकानां विनिवेशयत्तदा ।
शुंभादिकान्दैत्यवरान्पृथक्पृथक्स्वयं सुवर्णाद्रिगुहामगात्पुनः ॥३३॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यासंवादे दशमोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 10 हिन्दी में
एक बार सागर पुत्र जलन्धर अपनी पत्नी वृन्दा सहित असुरों से सम्मानित हुआ सभा में बैठा था तभी गुरु शुक्राचार्य का वहाँ आगमन हुआ। उनके तेज से सभी दिशाएँ प्रकाशित हो गई। गुरु शुक्राचार्य को आता देखकर सागर पुत्र जलन्धर ने असुरों सहित उठकर बड़े आदर से उन्हें प्रणाम किया। गुरु शुक्राचार्य ने उन सबको आशीर्वाद दिया। फिर जलन्धर ने उन्हें एक दिव्य आसन पर बैठाकर स्वयं भी आसन ग्रहण किया फिर सागर पुत्र जलन्धर ने उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा –
हे गुरुजी! आप हमें यह बताने की कृपा करें कि राहु का सिर किसने काटा था?
इस पर दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने विरोचन पुत्र हिरण्यकश्यपु और उसके धर्मात्मा पौत्र का परिचय देकर देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन की कथा संक्षेप में सुनाते हुए बताया कि जब समुद्र से अमृत निकला तो उस समय देवरूप बनाकर राहु भी पीने बैठ गया। इस पर इन्द्र के पक्षपाती भगवान विष्णु ने राहु का सिर काट डाला।
अपने गुरु के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर जलन्धर के क्रोध की सीमा न रही, उसके नेत्र लाल हो गये फिर उसने अपने घस्मर नामक दूत को बुलाया और उसे शुक्राचार्य द्वारा सुनाया गया वृत्तान्त सुनाया। तत्पश्चात उसने घस्मर को आज्ञा दी कि तुम शीघ्र ही इन्द्रपुरी में जाकर इन्द्र को मेरी शरण में लाओ।
घस्मर जलन्धर का बहुत आज्ञाकारी एवं निपुण दूत था। वह जल्द ही इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जा पहुंचा और जलन्धर के शब्दों में इन्द्र से बोला – हे देवताधम! तुमने समुद्र का मन्थन क्यों किया और मेरे पिता के समस्त रत्नों को क्यों ले लिया? ऐसा कर के तुमने अच्छा नहीं किया। यदि तू अपना भला चाहता है तो उन सब रत्नों एवं देवताओं सहित मेरी शरण में आ जा अन्यथा मैं तेरे राज्य का ध्वंस कर दूंगा, इसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है।
इन्द्र बहुत विस्मित हुआ और कहने लगा – पहले मेरे भय से सागर ने सब पर्वतों को अपनी कुक्षि में क्यों स्थान दिया और उसने मेरे शत्रु दैत्यों की क्यों रक्षा की? इसी कारण मैंने उनके सब रत्न हरण किये हैं। निःसंदेह मेरा द्रोही सुखी नहीं रह सकता।
इन्द्र की ऐसी बात सुनकर वह दूत शीघ्र ही जलन्धर के पास आया और सब बातें कह सुनाई। उसे सुनते ही वह दैत्य मारे क्रोध के अपने ओठ फड़फड़ाने लगा और देवताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए उसने उद्योग आरम्भ किया फिर तो सब दिशाओं, पाताल से करोड़ो-करोड़ो दैत्य उसके पास आने लगे। शुम्भ-निशुम्भ आदि करोड़ों सेनापतियों के साथ जलन्धर इन्द्र से युद्ध करने लगा।
शीघ्र ही इन्द्र के नन्दनवन में उसने अपनी सेना उतार दी। वीरों की शंखध्वनि और गर्जना से इन्द्रपुरी गूंज उठी। अमरावती छोड़ देवता उससे युद्ध करने चले। भयानक मारकाट हुई। असुरों के गुरु आचार्य शुक्र अपनी मृत संजीवनी विद्या से और देवगुरु बृहस्पति द्रोणागिरि से औषधि लाकर जिलाते रहे।
इस पर जलन्धर ने क्रुद्ध होकर कहा कि मेरे हाथ से मरे हुए देवता जी कैसे जाते हैं? जिलाने वाली विद्या तो आपके पास है। इस पर शुक्राचार्य ने देवगुरु द्वारा द्रोणाचार्य से औषधि लाकर देवताओं को जिलाने की बात कह दी।
यह सुनकर जलन्धर और भी कुपित हो गया फिर शुक्राचार्य जी ने कहा – यदि शक्ति हो तो द्रोणागिरि को उखाड़कर समुद्र में फेंक दो तब मेरे कथन की सत्यता प्रमाणित हो जाएगी। इस पर जलन्धर कुपित होकर जल्द ही द्रोणागिरि पर्वत के पास पहुंचा और अपनी भुजाओं से पकड़कर द्रोणागिरि पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फेंक दिया। यह तो भगवान शंकर का तेज था इसमें जलन्धर की कोई विचित्रता नहीं थी। तत्पश्चात यह सागर पुत्र युद्धभूमि में आकर बड़े तीव्र गति से देवताओं का संहार करने लगा।
जब देवगुरु बृहस्पति औषधि लेने गये तो द्रोणाचल को उखड़ा हुआ शून्य पाया। वह भयभीत हो देवताओं के पास आये और कहा कि युद्ध बन्द कर दो क्योंकि जलन्धर को अब नहीं जीत सकोगे। पहले इन्द्र ने शिवजी का अपमान किया था, यह सुन सेवता युद्ध में जय की आशा त्याग कर इधर-उधर भाग गये। सिन्धु-सुत निर्भय हो अमरावती में घुस गया, भयभीत इन्द्र आदि सब देवताओं ने गुफाओं में शरण लेकर छुप गये।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 10 भावार्थ/सारांश
वृंदा के साथ विवाहित जलंधर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहा था, एक दिन राहु का कटा सिर देखकर चौंक उठा और शुक्राचार्य से पूछा। तो शुक्राचार्य ने समुद्रमंथन की पूरी कथा सुनाई, जिसने जलंधर को गुस्सा दिला दिया। जलंधर ने प्रथम तो घस्मर नामक दूत को अमरावतीपुरी भेजा और समुद्रमंथन से प्राप्त रत्न वापस देने के लिये कहा। इन्द्र भी क्रोधित हो गये और पुराने वैर का उपाख्यान सुनाकर दूत को वापस भेज दिया।
जिसके पश्चात् जलंधर युद्ध का उद्योग करने लगा, इतने में यह सूचना सर्वत्र प्रसारित हो गयी और यत्र-तत्र से करोड़ों की संख्या में दैत्यगण युद्ध के लिये जुटने लगे। देवताओं के खिलाफ दैत्यों की सेना इकट्ठी की, और जलंधर ने विशाल सेना के साथ नंदनवन में प्रवेश कर युद्ध आरंभ कर दिया। इस संघर्ष में शुक्राचार्य और बृहस्पति अपनी-अपनी शक्तियों से मृत सैनिकों को जीवित करते रहे।
इस पर जलन्धर ने क्रुद्ध होकर कहा कि मेरे हाथ से मरे हुए देवता जी कैसे जाते हैं? जिलाने वाली विद्या तो आपके पास है। इस पर शुक्राचार्य ने देवगुरु द्वारा द्रोणाचार्य से औषधि लाकर देवताओं को जिलाने की बात कह दी। शुक्राचार्य ने द्रोणागिरी पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फेंकने का सुझाव दिया।
जब जलंधर को ज्ञात हुआ कि देवगुरु बृहस्पति द्रोणागिरी से संजीवनी ओषधि लाकर मृत देवताओं को जीवित कर देते हैं तो जलंधर ने द्रोणागिरि पर्वत को समुद्र में फेंककर देवताओं की चिकित्सा रोकने की कोशिश की। अंततः देवताओं ने हार मान ली और छिप गए, जिससे जलंधर का विजय सुनिश्चित हुआ। अमरावतीपुरी पर जलंधर का अधिकार हो गया और भयाक्रांत देवता गुफाओं में छुपकर कालक्षेप करने लगे।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।