कार्तिक माहात्म्य के 12वें अध्याय में नारद मुनि जलंधर के पास जाते हैंऔर उसकी समृद्धि की प्रशंसा करते हुए बताते हैं कि उसके पास स्त्री रत्न नहीं है, जिससे जलंधर कामपीड़ित हो जाता है। नारद जी उसे पार्वती का सुझाव देते हैं। जलंधर अपने दूत राहु को शिव से पार्वती को मांगने के लिए भेजता है, लेकिन शिव के रौद्र पुरुष द्वारा राहु को रोका जाता है। राहु शिव की शरण लेता है, और शिव राहु को छोड़ने के आदेश देते हैं। फिर शिव रौद्र पुरुष को अपना द्वारपाल नियुक्त करते हैं। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 12 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
स मां संपूज्य विधिवद्दानवेंद्रोऽतिभक्तितः । संप्रहस्य तदा वाक्यं जगाद नृपसत्तम ॥१॥
जलंधर उवाच
कुतस्त्वागम्यते ब्रह्मन्किं च दृष्टं त्वया क्वचित् । यदर्थमिह चायातस्तदा ज्ञापय मां मुने ॥२॥
नारद उवाच
गतः कैलासशिखरं दैत्येंद्राहं यदृच्छया । तत्रोमया समासीनं दृष्टवानस्मि शंकरम् ॥३॥
योजनायुतविस्तीर्णे कल्पद्रुम महावने । कामधेनुशताकीर्णे चिंतामणि सुदीपिते ॥४॥
तं दृष्ट्वा महदाश्चर्यं वितर्को मेऽभवत्तदा । क्वापीदृशी भवेद्वृद्धिस्त्रिलोक्यां वा न वेति च ॥५॥
तावत्तवापि दैत्येंद्र समृद्धिः संस्मृता मया । तद्विलोकनकामोऽहं त्वत्सान्निध्यमिहागतः ॥६॥
त्वत्समृद्धिमिमां पश्यन्स्त्रीरत्नरहितां ध्रुवम् । तर्कयामि शिवादन्यत्त्रिलोक्यां न समृद्धिमान् ॥७॥
अप्सरो नागकन्याश्च यद्यपि त्वद्वशे स्थिताः । तथापि ता न पार्वत्या रूपेण सदृशा ध्रुवम् ॥८॥
यस्या लावण्यजलधौ निमग्नश्चतुराननः । स्वधैर्यममुचत्पूर्वं तया कान्योपमीयते ॥९॥
वीतरागोऽपि हि यथा मदनारिः स्वलीलया । सौंदर्यगहने भ्रामन्शफरीरूपया पुरा ॥१०॥
यस्याः पुनः पुनः पश्यन्रूपं धाता विसर्जने। ससर्जाप्सरसस्तास्तास्तत्समैकापि नाभवत् ॥११॥
अतः स्त्रीरत्नसंभोक्तुः समृद्धिस्तस्य सा वरा। तथा न तव दैत्येंद्र सर्वरत्नाधिपस्य च ॥१२॥
एवमुक्त्वा तमामंत्र्य गते मयि स दैत्यराट्। तद्रूपश्रवणादासीदनंगज्वरपीडितः॥१३॥
अथ संप्रेषयामास दूतं च सिंहिकासुतम्। त्र्यंबकाय तदा किंचिद्विष्णुमायाविमोहितः ॥१४॥
कैलासमगमद्राहुः सर्वशुक्लेंदुवर्चसम्। कार्त्स्न्येन कृष्णपक्षेंदुवर्चसं स्वांगजेन तु ॥१५॥
निवेदितस्तदादेशान्नंदिना च प्रवेशितः । त्र्यंबकाभ्रूलतासंज्ञा प्रेरितो वाक्यमब्रवीत् ॥१६॥
राहुरुवाच
देवपन्नगसेव्यस्य त्रैलोक्याधिपतेः प्रभोः । सर्वरत्नेश्वरस्य त्वमाज्ञां शृणु वृषध्वज ॥१७॥
श्मशानवासिनो नित्यं मुंडमालाधरस्य च । दिगंबरस्य ते भार्या कथं हैमवती शुभा ॥१८॥
अहं रत्नाधिनाथोऽस्मि सा च स्त्री रत्नसंज्ञका । तस्मान्ममैव सा योग्या नैव भिक्षाशिनस्तव ॥१९॥
नारद उवाच
वदत्येवं तदा राहौ भ्रूमध्याच्छूलपाणिनः । अभवत्पुरुषो रौद्रस्तीव्राशनिसमस्वनः ॥२०॥
सिंहास्यः प्रचलज्जिह्वः सज्वलन्नयनो महान् । ऊर्ध्वकेशः शुष्कतनुर्नृसिंह इव चापरः ॥२१॥
स तं खादितुमारेभे दृष्ट्वा राहुर्भयातुरः । अधावदतिवेगेन बहिः स च दधार तम् ॥२२॥
स च राहुर्महाबाहुर्मेघगंभीरया गिरा । उवाच देवदेवेशं पाहि मां शरणागतम् ॥२३॥
ब्राह्मणं मां महादेव खादितुं समुपागतः । एतस्माद्रक्ष देवेश शरणागतवत्सल ॥२४॥
महादेवो वचः श्रुत्वा ब्राह्मणस्य तदाब्रवीत् । नैवासौ वध्यतामेति दूतोऽयं परवान्यतः ॥२५॥
मुंचेति पुरुषः श्रुत्वा राहुं तत्याज सोऽम्बरे । राहुं त्यक्त्वा स षुरुषो महादेवं व्यजिज्ञपत् ॥२६॥
पुरुष उवाच
क्षुधा मां बाधते स्वामिन्क्षुत्क्षामश्चास्मि सर्वथा । किं भक्ष्यं मम देवेश तदाज्ञापय मां प्रभो ॥२७॥
ईश्वर उवाच
संभक्षयात्मनः शीघ्रं मांसं त्वं हस्तपादयोः ॥२८॥
नारद उवाच
स शिवेनैवमाज्ञप्तश्चखाद पुरुषः स्वयम् । हस्तपादोद्भवं मांसं शिरःशेषो यदाभवत् ॥२९॥
दृष्ट्वा शिरोऽवशेषं तु सुप्रसन्नः सदाशिवः । पुरुषं भीमकर्माणं तमुवाच सविस्मयः ॥३०॥
ईश्वर उवाच
त्वं कीर्तिमुखसंज्ञो हि भव मद्द्वारगः सदा । त्वदर्चां नैव कुर्वंति नैव ते मत्प्रियंकराः ॥३१॥
नारद उवाच
तदाप्रभृति देवस्य द्वारे कीर्तिमुखः स्थितः । नार्चयंतीह ये पूर्वं तेषामर्चा वृथा भवेत् ॥३२॥
राहुर्विमुक्तो यस्तेन सोऽपतद्बर्बरस्थले । अतः स बर्बरोद्भूत इति भूमौ पृथां गतः ॥३३॥
ततश्च राहुः पुनरेव जातमात्मानमस्मिन्निति मन्यमानः ।
समेत्य सर्वं कथयां बभूव जलंधरायेशविचेष्टितं तत् ॥३४॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे दूतसंवादो जालंधरोपाख्यानंनाम द्वादशोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 12 हिन्दी में
जलंधर को इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य करते हुए देख देवता क्षुब्ध हो गये। उन्होंणे देवाधिदेव शंकर का मन में स्मरण करना आरंभ किया तब भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले शंकर ने नारद जी को बुलाकर देव कार्य की इच्छा से उनको वहाँ भेजा। शम्भुभक्त नारद शिव की आज्ञा से देवपुरी में गये। इन्द्रादिक सभी देवता व्याकुल हो शीघ्रता से उठ नारद जी को उत्कंठा भरी दृष्टि से देखने लगे। अपने सब दुखों को कहकर उन्हें नष्ट करने की प्रार्थना की तब नारद जी ने कहा –
“मैं सब कुछ जानता हूँ इसलिए अब मैं दैत्यराज जलन्धर के पास जा रहा हूँ।” ऐसा कह नारद जी देवताओं को आश्वासित कर जलन्धर की सभा में आये। जलन्धर ने नारद जी के चरणों की पूजा कर हँसते हुए कहा – “हे ब्रह्मन! कहिए, आप कहाँ से आ रहे हैं? यहाँ कैसे आये हैं? मेरे योग्य जो सेवा हो उसकी आज्ञा दीजिए।”
नारद जी प्रसन्न होकर बोले – हे महाबुद्धिमान जलन्धर! तुम धन्य हो, मैं स्वेच्छा से कैलाश पर्वत पर गया था, जहाँ दश हजार योजनों में कल्पवृक्ष का वन है। वहाँ मैंने सैकड़ो कामधेनुओं को विचरते हुए देखा तथा यह भी देखा कि वह चिन्तामणि से प्रकाशित परम दिव्य अद्भुत और सब कुछ सुवर्णमय है। मैंने वहाँ पार्वती के साथ स्थित शंकर जी को भी देखा जो सर्वांग सुन्दर, गौर वर्ण, त्रिनेत्र और मस्तक पर चन्द्रमा धारण किये हुए है। उन्हें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इनके समान समृद्धिशाली त्रिलोकी में कोई है या नहीं?
हे दैत्येन्द्र! उसी समय मुझे तुम्हारी समृद्धि का स्मरण हो आया और उसे देखने की इच्छा से ही मैं तुम्हारे पास चला आया हूँ। यह सुन जलन्धर को बड़ा हर्ष हुआ। उसने नारद जी को अपनी सब समृद्धि दिखला दी। उसे देख नारद ने जलन्धर की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि निश्चय ही तुम त्रिलोकपति होने के योग्य थे। ब्रह्माजी का हंसयुक्त विमान तुम ले आये हो और द्युलोक, पाताल और पृथ्वी पर जितने भी रत्नादि हैं सब तुम्हारे ही तो हैं। ऐरावत, उच्चै:श्रवा घोड़ा, कल्पवृक्ष और कुबेर की निधि भी तुम्हारे पास है। मणियों और रत्नों के ढेर भी तुम्हारे पास लगे हुए हैं।
इससे मैं बड़ा प्रसन्न हूँ परन्तु तुम्हारे पास कोई स्त्री-रत्न नहीं है और उसके बिना तुम्हारा यह सब निष्फल है। तुम किसी स्त्रीरत्न को ग्रहण करो। नारद जी के ऐसे वचन सुनकर दैत्यराज कामपीड़ित हो गया। उसने नारद जी को प्रणाम कर पूछा कि ऐसी स्त्री कहाँ मिलेगी जो सब रत्नों में श्रेष्ठ हो।
नारद जी ने कहा – ऐसा रत्न तो कैलाश पर्वत में योगी शंकर के ही पास है। उनकी सर्वांग सुन्दरी पत्नी देवी पार्वती बहुत ही मनोहर हैं। उनके समान सुन्दरी मैं किसी को नहीं देखता। उनके उस रत्न की उपमा तीनों लोकों में कहीं नहीं है। देवर्षी उस दैत्य से ऐसा कहकर देवकार्य करने की इच्छा से आकाश मार्ग से चले गये।
राजा पृथु ने नारद जी से पूछा : हे मुनिश्रेष्ठ! तब दैत्यराज ने क्या किया? वह सब मुझे विस्तार से सुनाइए।
नारद जी बोले : मेरे (नारद जी के) के चले जाने के बाद जलन्धर ने अपने राहु नामक दूत को बुलाकर आज्ञा दी कि कैलाश पर एक जटाधारी शम्भु योगी रहता है उससे उसकी सर्वांग सुन्दरी भार्या को मेरे लिए माँग लाओ। तब दूत शिव के स्थान में पहुंचा परन्तु नन्दी ने उसे भीतर सभा में जाने से रोक दिया। किन्तु वह अपनी उग्रता से शिव की सभा में चला ही गया और शिव के आगे बैठकर दैत्यराज का सन्देश कह सुनाया।
उस राहु नामक दूत के ऐसा कहते ही भगवान शूलपाणि के आगे पृथ्वी फोड़कर एक भयंकर शब्दवाला पुरुष प्रकट हो गया जिसका सिंह के समान मुख था। वह नृसिंह जैसा पुरुष राहु को खाने चला। राहु बड़े जोर से भागा परन्तु उस पुरुष ने उसे पकड़ लिया। तब राहु ने शिवजी की शरण लिया और अपनी रक्षा माँगी।
शिवजी ने उस पुरुष से राहु को छोड़ देने को कहा तो उस पुरुष ने कहा मुझे बड़ी जोर की भूख लगी है, मैं क्या खाऊँ?
महेश्वर ने कहा : यदि तुझे भूख लगी है तो शीघ्र ही अपने हाथ और पैरों का माँस भक्षण कर ले और उसने वैसा ही किया। अब केवल उसका सिर शेष मात्र रह गया तब उसका ऐसा कृत्य देखकर शिवजी ने प्रसन्न हो उसे अपना आज्ञापालक जान अपना परमप्रिय गण बना लिया और द्वारपाल का पद दिया एवं ये भी कहा कि तुम्हारी पूजा के बिना मेरी पूजा निष्फल होगी। उस दिन से वह शिव जी के द्वार पर ‘स्वकीर्तिमुख’ नामक गण होकर रहने लगा।
नारद जी बोले : उससे छूटने पर वह दूत बर्बर नाम से विख्यात हो गया और अपना नया जन्म पाकर वह धीरे-धीरे जलन्धर के पास गया।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 12 भावार्थ/सारांश
जब स्वयं भगवान विष्णु लक्ष्मी के साथ जलंधर के यहां वास करने लगे तो यह कहावत चरितार्थ होने लगी “आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपाट” और देवताओं की व्यथा मिटाने नारद मुनि ने नया कांड किया। जलंधर के पास जाकर नारद मुनि उसकी समृद्धि की प्रशंसा करते हैं पर उसे बताते हैं कि उसके पास “स्त्रीरत्न” नहीं है।
इस सुझाव से जलंधर कामपीड़ित हो जाता है और पार्वती को प्राप्त करने के लिए राहु को शिव के पास भेजता है। शिव का रौद्र पुरुष राहु को रोकता है, जबकि राहु शिव की शरण लेकर रक्षा की प्रार्थना करता है। शिव उसे छोड़ने का आदेश देते हैं। रौद्र पुरुष को अंत में शिव द्वारा अपना द्वारपाल बनाया जाता है। इस प्रसंग में जलंधर की लालसा और शिव की शक्ति का विशद वर्णन है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।