कार्तिक माहात्म्य के अध्याय 13 में देवताओं और दैत्यों के बीच हुए महायुद्ध का वर्णन है। जलंधर अपनी विशाल दैत्य सेना लेकर शिव से लड़ने आता है। इस बीच, सारे देवता भगवान शिव के पास मदद मांगने जाते हैं क्योंकि भगवान विष्णु जलंधर के वश में होते हैं और लक्ष्मी के साथ उसके घर पर रह रहे होते हैं। शिवजी ने अपने गणों से युद्ध का आदेश दिया और भयावह युद्ध हुआ जिसमें शुक्राचार्य मृत दैत्यों को पुनर्जीवित करने की कोशिश करते हैं। अंत में, शिवजी के प्रयास से दैत्यों को पराजित किया जाता है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 13 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
जालंधरस्तु तच्छ्रुत्वा कोपाकुलितविग्रहः । निर्जगामाशु दैत्यानां कोटिभिः परिवारितः ॥१॥
गतस्तस्याऽग्रतः शुक्रो राहुर्दृष्टिस्थितोऽभवत् । मुकुटश्चापतद्भूमौ वेगात्प्रस्खलितस्तथा ॥२॥
दैत्यसैन्यवृतैस्तत्र विमानानां शतैस्तदा । व्यराजत नभः पूर्णं प्रावृषीव बलाहकैः ॥३॥
तस्योद्योगं तदा दृष्ट्वा देवाः शक्रपुरोगमाः । अलक्षितत्वराजग्मुः शूलिनं ते व्यजिज्ञपन् ॥४॥
देवा ऊचुः
न जानासि कथं स्वामिन्देवा विज्ञापयंति भो । तदस्मद्रक्षणार्थाय जहि सागरनंदनम् ॥५॥
नारद उवाच
इति देववचः श्रुत्वा प्रहस्य वृषभध्वजः । महाविष्णुं समाहूय वचनं चेदमब्रवीत् ॥६॥
ईश्वर उवाच
जलंधरः कथं विष्णो न हतः संगरे त्वया । तद्भयाच्चापयातोऽसि त्यक्त्वा वैकुंठमात्मनः ॥७॥
भगवानुवाच
तवांशसंभवत्वाच्च भ्रातृत्वाच्च तथा श्रियः । न मया निहतः संख्ये त्वमेनं जहि दानवम् ॥८॥
ईश्वर उवाच
नायमेभिर्महातेजा शस्त्रास्त्रैर्वध्यते मया । देवैः सर्वैः स्वतेजोंशः शस्त्रार्थे दीयतां मम ॥९॥
नारद उवाच
अथ विष्णुमुखा देवाः स्वतेजांसि ददुस्तदा । तान्येकत्वं गतानीशो दृष्ट्वा तेजो महांस्तदा ॥१०॥
तेनाकरोन्महादेवः सहसा शस्त्रमुत्तमम् । चक्रं सुदर्शनं नाम ज्वालामालातिभीषणम् ॥११॥
तेजःशेषेण च तदा वज्रं च कृतवान्हरः । तावज्जलंधरो दृष्टः कैलासतलभूमिषु ॥१२॥
हस्त्यश्वरथपत्तीनां कोटीभिः परिवारितः । तं दृष्ट्वा हर्षिताः सर्वे देवा जग्मुर्यथागतम् ॥१३॥
गणाश्च समनह्यंत युद्धायातित्वरान्विताः । नंदीभवक्त्रसेनानीमुखाः सर्वे शिवाज्ञया ॥१४॥
अवतेरुर्गणाः सर्वे कैलासाद्युद्धदुर्मदाः । ततः समभवद्युद्धं कैलासोपत्यका भुवि ॥१५॥
प्रमथाधिपदैत्यानां घोरं शस्त्रास्त्रसंकुलम् । भेरीमृदंगशंखौघनिस्वनैर्वीरहर्षणैः ॥१६॥
गजाश्वरथशब्दैश्च नादिता भूर्व्यकंपत । शक्तितोमरबाणौघैर्मुशलप्रासपट्टिशैः ॥१७॥
व्यराजत नभः पूर्णमुल्काभिरिव संवृतम् । निहतैरथ नागाश्वैः सर्वा भूमिर्व्यराजत ॥१८॥
वज्राहताश्चलशिरः शकलैरिव संवृता । प्रमथाहतदैत्यौघान्भार्गवः समजीवयत् ॥१९॥
युद्धे पुनः पुनश्चैव मृतसंजीवनी बलात् । तं दृष्ट्वा व्याकुलीभूत्वा गणाः सर्वे भयार्दिताः ॥२०॥
शशंसुर्देवदेवेशं तत्सर्वं शुक्रचेष्टितम् । अथ रुद्रमुखात्कृत्या बभूवातीव भीषणा ॥२१॥
तालजंघोदरी वक्रा स्तनापीडितभूरुहा । सा युद्धभूमिमासाद्य भक्षयंती महासुरान् ॥२२॥
भार्गवं स्वकरे धृत्वा जगामांतर्हिताभवत् । विधृतं भार्गवं दृष्ट्वा दैत्यसैन्यगणास्तदा ॥२३॥
प्रम्लानवदना दर्पान्निजघ्नुर्युद्धदुर्मदाः । अथाभज्यत दैत्यानां सेना गणभयार्दिता ॥२४॥
वायुवेगहता यद्वत्प्रकीर्णतृणसंहतिः । भग्नां गतभयात्सेनां दृष्ट्वाऽमर्षयुता ययुः ॥२५॥
निशुंभशुंभसेनान्यौ कालनेमिश्च वीर्यवान् । त्रयस्ते वारयामासुर्गणसेनां महाबलाः ॥२६॥
मुंचतः शरवर्षाणि प्रावृषीव बलाहकाः । ततो दैत्यशरौघास्ते शलभानामिव व्रजाः ॥२७॥
रुरुधुः खं दिशः सर्वां गणसेनामकंपयन् । गणाः शरशतैर्भिन्ना रुधिरासारवर्षिणः ॥२८॥
वसंते किंशुकाभासा न प्राज्ञायन्त किंचन । पतिताः पत्यमानाश्च छिन्नाभिन्नास्तदा गणाः ॥२९॥
त्यक्त्वा संग्रामभूमिं ते सर्वेऽपि विमुखाभवन् ॥३१॥
ततः प्रभग्नं स्वबलं विलोक्य गजास्यनंदीश्वरकार्तिकेयाः ।
त्वरान्विता दैत्यवरान्प्रसह्य निवारयामासुरमर्षणास्ते ॥३२॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे दैत्यसेनावधोनाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 13 हिन्दी में
राजा पृथु ने कहा : हे नारद जी! ये तो आपने भगवान शिव की बडी़ विचित्र कथा सुनाई है। अब कृपा करके आप यह बताइये कि उस समय राहु उस पुरूष से छूटकर कहां गया?
नारद जी बोले : कीर्तिमुख से छूटने पर वह दूत बर्बर नाम से विख्यात हो गया और अपना नया जन्म पाकर वह धीरे-धीरे जलन्धर के पास गया। वहां जाकर उसने शंकर की सब चेष्टा कही।
उसे सुनकर दैत्यराज ने सब दैत्यों को सेना द्वारा आज्ञा दी। कालनेमि और शुम्भ-निशुम्भ आदि सभी महाबली दैत्य तैयार होने लगे। एक से एक महाबली दैत्य करोडों-करोडों की संख्या में निकल युद्ध के लिए जुट पड़े। महा प्रतापी सिन्धु पुत्र शिवजी से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा। आकाश में मेघ छा गये और बहुत अपशकुन होने लगे। शुक्राचार्य और कटे सिर वाला राहु सामने आ गये। उसी समय जलंधर का मुकुट खिसक गया, परंतु वह नहीं रूका।
उधर इन्द्रादिक सब देवताओं ने कैलाश पर शिवजी के पास पहुंच कर सब वृतांत सुनाया और यह भी कहा कि आपने जलंधर से युद्ध करने के लिए भगवान विष्णु को भेजा था। वह उसके वशवर्ती हो गये हैं और विष्णु जी लक्ष्मी सहित जलंधर के अधीन हो उनके घर में निवास करते हैं। अब देवताओं को भी वहीं रहना पड़ता है। अब वह बली सागर पुत्र आपसे युद्ध करने आ रहा है। अतएव आप उसे मारकर हम सबकी रक्षा कीजिये।
यह सुनकर शंकरजी ने विष्णु जी को बुलाकर पूछा हे ऋषिकेश! युद्ध में आपने जलंधर का संहार क्यों नहीं किया और बैकुण्ठ छोड़ आप उसके घर में कैसे चले गये? यह सुन कर विष्णुजी ने हाथ जोड़ कर नम्रतापूर्वक भगवान शंकर से कहा :
उसे आपका अंशी ओर लक्ष्मी का भ्राता होने के कारण ही मैने नहीं मारा है। यह बड़ा वीर और देवताओं से अजय है। इसी पर मुग्ध होकर मैं उसके घर में निवास करने लगा हूं। विष्णु जी के इन वचनों को सुनकर शंकर जी हंस पड़े उन्होंने कहा :
हे विष्णु! आप यह क्या कहते हैं! मैं उस दैत्य जलंधर को अवश्य मारूंगा अब आप सभी देवता जलंधर को मेरे द्वारा ही मारा गया जान अपने स्थान को जाइये। जब शंकर जी ने ऐसा कहा तो सब देवता सन्देह रहित होकर अपने स्थान को चले गये। इसी समय पराक्रमी जलंधर अपनी विशाल सेना के साथ पर्वत के समीप आ कैलाश को घोर सिंहनाद करने लगा। दैत्यों के नाद और कोलाहल को सुनकर शिवजी ने नंदी आदि गणों को उससे युद्ध करने की आज्ञा प्रदान की, कैलाश के समीप भीषण युद्ध होने लगा।
दैत्य अनेकों प्रकार के अस्त्र शस्त्र बरसाने लगे, भेरि, मृदंग, शंख और वीरों तथा हाथी, घोडों और रथों के शब्दों से शाब्दित हो पृथ्वी कांपने लगी। युद्ध में कटकर मरे हुए हाथी, घोड़े और पैदलों का पहाड़ लग गया। रक्त-मांस का कीचड़ उत्पन्न हो गया। दैत्यों के आचार्य शुक्रजी अपनी मृत संजीवनी विद्या से सब दैत्यों को जिलाने लगे।
यह देखकर शिव जी के गण व्याकुल हो गये और उनके पास जाकर सारा वृतांत सुनाया, उसे सुनकर भगवान रूद्र के क्रोध की सीमा न रही। फिर तो उस समय उनके मुख से एक बड़ी भयंकर कृत्या उत्पन्न हुई, जिसकी दोनों जंघाएं तालवृक्ष के समान थीं । वह युद्ध भूमि में जा सब असुरों का चवर्ण करने लग गयी और फिर वह शुक्राचार्य के समीप पहुंची और शीघ्र ही अपनी योनी में गुप्त कर लिया फिर स्वयं भी अन्तर्धान हो गयी।
शुक्राचार्य के गुप्त हो जाने से दैत्यों का मुख मलिन पड़ गया और वे युद्धभूमि को छोड़ भागे इस पर शुम्भ निशुम्भ और कालनेमि आदि सेनापतियों ने अपने भागते हुए वीरों को रोका। शिवजी के नन्दी आदि गणों ने भी, जिसमें गणेश और स्वामी कार्तिकेयजी भी थे, दैत्यों से भीष्ण युद्ध करना आरंभ कर दिया।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 13 भावार्थ/सारांश
कार्तिक माहात्म्य के अध्याय 13 में देवताओं और दैत्यों के बीच हुए महायुद्ध का वर्णन है। नारद मुनि जलंधर के पास जाकर उसे उसकी समृद्धि की जानकारी देते हैं लेकिन यह भी बताते हैं कि उसके पास ‘स्त्रीरत्न’ नहीं है और पार्वती के समान दूसरी कोई स्त्रीरत्न भी नहीं जो जलंधर के योग्य हो। नारद के द्वारा प्रेरित किये जाने पर जलंधर की काम भावना जाग्रत हो गयी और अपनी विशाल दैत्य सेना लेकर शिव से लड़ने आता है।
इस बीच, सारे देवता भगवान शिव के पास मदद मांगने जाते हैं क्योंकि भगवान विष्णु जलंधर के वश में होते हैं और लक्ष्मी के साथ उसके घर पर रह रहे होते हैं। शिवजी ने सभी देवताओं से तेज लेकर सुदर्शन चक्र और वज्र का निर्माण किया तत्पश्चात अपने गणों से युद्ध का आदेश दिया और भयावह युद्ध हुआ जिसमें शुक्राचार्य मृत दैत्यों को पुनर्जीवित करने की कोशिश करते हैं। ऐसा देखकर भगवान शंकर एक कृत्या को उत्पन्न करते हैं जो शुक्राचार्य को अपने भग में लेकर प्रस्थान कर जाती है जिससे मृत होने वाली दैत्यसेना को पुनर्जीवन नहीं मिलता है।अंत में, शिवजी के प्रयास से दैत्यों को पराजित किया जाता है।
इस कथा का एक अन्य आशय भी है वो यह है कि यदि आप धर्म का पालन करते भी हैं किन्तु देवताओं को अप्रसन्न कर रखा है तो वो असंतुष्ट देवता आपके विनाश का कारण बनते हैं। जलंधर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता था, रावण-कंस आदि की भांति न तो दुराचारी था न ही आततायी। फिर भी नारद जी ने देवताओं का हित साधने हेतु उस कर्म के लिये प्रेरित किया जो उसके विनाश का कारण बना।
इसलिये सभी को ऐसा प्रयास करना चाहिये जिससे देवता संतुष्ट रहें, कर्मकांड का संपादन इस प्रकार करना चाहिये कि वो देवता को ही प्राप्त हो, असुरादि उसका हरण न करें। यदि कर्मकांड करते हैं किन्तु इस तथ्य का विचार नहीं करते कि इससे देवता की पुष्टि हो तो वह कर्म देवता हेतु असंतुष्टि का ही कारण बनता है क्योंकि असुरादि उसका अपहरण कर लेते हैं।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।