कार्तिक माहात्म्य अध्याय 11 मूल संस्कृत में, अर्थ हिन्दी में

कार्तिक माहात्म्य अध्याय 11 मूल संस्कृत में, हिन्दी अर्थ सहित

कार्तिक माहात्म्य के 11वें अध्याय में देवताओं और दानवराज जलंधर के बीच संघर्ष का वर्णन है। देवगण भयभीत होकर विष्णु से सहायता माँगते हैं। उनकी स्तुति के पश्चात विष्णु युद्ध के लिए तैयार होते हैं, परंतु लक्ष्मी के अनुरोध पर जलंधर को स्वयं नहीं मारने का निर्णय लेते हैं। भयंकर युद्ध में विष्णु और जलंधर के बीच गदाओं और बाणों का आदान-प्रदान होता है। जलंधर के साहस से प्रभावित होकर विष्णु उसे वर मांगने को कहते हैं। वह विष्णु से अपने निवास पर रहने का वर मांगता है, जिसे विष्णु स्वीकार कर लेते हैं। जलंधर त्रिभुवन का शासन कर प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करता है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।

कार्तिक माहात्म्य अध्याय 11 हिन्दी में

नारद जी ने कहा : तब इन्द्रादिक देवता वहाँ से भय-कम्पित होकर भागते-भागते वैकुण्ठ में भगवान विष्णु के पास पहुंचे। देवताओं ने अपनी रक्षा के लिए उनकी स्तुति की :

संकष्टनाशनं स्तोत्रं

देवताओं की उस दीन वाणी को सुनकर करुणा सागर भगवान विष्णु ने उनसे कहा कि हे देवताओं ! तुम भय को त्याग दो। मैं युद्ध में शीघ्र ही जलन्धर को देखूंगा। ऐसा कहते ही भगवान गरुड़ पर जा बैठे तब समुद्रतनया लक्ष्मी जी ने कहा कि हे नाथ! यदि मैं सर्वदा आपकी प्रिया और भक्ता हूँ तो मेरा भाई आप द्वारा युद्ध में नहीं मारा जाना चाहिए। इस पर

विष्णु जी ने कहा : अच्छा, यदि तुम्हारी ऐसी ही प्रीति है तो मैं उसे अपने हाथों से नहीं मारूंगा परन्तु युद्ध में अवश्य जाऊँगा क्योंकि देवताओं ने मेरी बड़ी स्तुति की है। ऐसा कह भगवान विष्णु युद्ध के उस स्थान में जा पहुंचे जहाँ जलन्धर विद्यमान था। विष्णु का जलंधर के साथ घोर युद्ध हुआ। विष्णु के तेज से कम्पित देवता सिंहनाद करने लगे फिर तो अरुण के अनुज गरुड़ के पंखों की प्रबल वायु से पीड़ित हो दैत्य इस प्रकार घूमने लगे जैसे आँधी से बादल आकाश में घूमते हैं तब अपने वीर दैत्यों को पीड़ित होते देखकर जलन्धर ने क्रुद्ध हो विष्णु जी को उद्धत वचन कहकर उन पर कठोर आक्रमण कर दिया।

दोनो ओर से गदाओं, बाणों और शूलों आदि का भीषण प्रहार हुआ। दैत्यों के तीक्ष्ण प्रहारों से व्याकुल देवता इधर-उधर भागने लगे तब देवताओं को इस प्रकार भयभीत हुआ देख गरुड़ पर चढ़े भगवान युद्ध में आगे बढ़े और उन्होंने अपना शार्ङ्ग नामक धनुष उठाकर बड़े जोर का टंकार किया। त्रिलोकी शाब्दित हो गई, पलमात्र में भगवान ने हजारों दैत्यों के सिरों को काट गिराया फिर तो विष्णु और जलन्धर का महासंग्राम हुआ। बाणों से आकाश भर गया, लोक आश्चर्य करने लगे। भगवान विष्णु ने बाणों के वेग से उस दैत्य की ध्वजा, छत्र और धनुष-बाण काट डाले।

इससे व्यथित हो उसने अपनी गदा उठाकर गरुड़ के मस्तक पर दे मारी। साथ ही क्रोध से उस दैत्य ने विष्णु जी की छाती में भी एक तीक्ष्ण बाण मारा। इसके उत्तर में विष्णु जी ने उसकी गदा काट दी और अपने शार्ङ्ग धनुष पर बाण चढ़ाकर उसको बींधना आरंभ किया। इस पर जलन्धर इन पर अपने पैने बाण बरसाने लगा। उसने विष्णु जी को कई पैने बाण मारकर वैष्णव धनुष को काट दिया। धनुष कट जाने पर भगवान ने गदा ग्रहण कर ली और शीघ्र ही जलन्धर को खींचकर मारी, परन्तु उस अग्निवत अमोघ गदा की मार से भी वह दैत्य कुछ भी चलायमान न हुआ।

उसने एक अग्निमुख त्रिशूल उठाकर विष्णु पर छोड़ दिया। विष्णु जी ने शिव के चरणों का स्मरण कर नन्दन नामक त्रिशूल से उसके त्रिशूल को छेद दिया। जलन्धर ने झपटकर विष्णु जी की छाती पर एक जोर का मुष्टिक मारा, उसके उत्तर में भगवान विष्णु ने भी उसकी छाती पर अपनी एक मुष्टि का प्रहार किया। फिर दोनों घुटने टेक बाहुओं और मुष्टिको से बाहु-युद्ध करने लगे। कितनी ही देर तक भगवान उसके साथ युद्ध करते रहे तब सर्वश्रेष्ठ मायावी भगवान उस दैत्यराज से मेघवाणी में बोले – “रे रण दुर्मद दैत्यश्रेष्ठ! तू धन्य है जो इस महायुद्ध में इन बड़े-बड़े आयुधों से भी भयभीत न हुआ। तेरे इस युद्ध से मैं प्रसन्न हूँ, तू जो चाहे वर माँग।”

मायावी विष्णु की ऐसी वाणी सुनकर जलन्धर ने कहा – “हे भावुक ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजिए कि आप मेरी बहन तथा अपने सारे गणों सहित मेरे घर पर निवास करें।”

नारद जी बोले – उसके ऐसे वचन सुनकर विष्णु जी को खेद तो हुआ किन्तु उसी क्षण उन्होंने तथास्तु कह दिया। अब विष्णु जी सब देवताओं के साथ जलन्धरपुर में जाकर निवास करने लगे। जलन्धर अपनी बहन लक्ष्मी और देवताओं सहित विष्णु को वहाँ पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ फिर तो देवताओं के पास जो भी रत्नादि थे सबको ले जलन्धर पृथ्वी पर आया। निशुम्भ को पाताल में स्थापित कर दिया और देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, सर्प, राक्षस, मनुष्य आदि सबको अपना वशवर्ती बना त्रिभुवन पर शासन करने लगा। उसने धर्मानुसार सुपुत्रों के समान प्रजा का पालन किया. उसके धर्मराज्य में सभी सुखी थे।

कार्तिक माहात्म्य अध्याय 11 भावार्थ/सारांश

कार्तिक माहात्म्य के 11वें अध्याय में देवताओं और दानवराज जलंधर के बीच भीषण संघर्ष का वर्णन है। जलंधर द्वारा पीड़ित देवता भयभीत होकर वैकुण्ठ जाकर भगवान विष्णु की स्तुति करते हैं। भगवान विष्णु की देवताओं द्वारा की गयी इस स्तुति को संकष्टनाशन स्तोत्र कहा गया है और नित्य इसका पाठ करने से सभी संकटों का निवारण होता है।

प्रसन्न होकर भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर युद्ध को जाने लगे तो लक्ष्मी के अनुरोध पर जलंधर को स्वयं नहीं मारने का निर्णय लिया। विष्णु और जलंधर के बीच घोर युद्ध होता है। अंत में प्रसन्न होकर भगवान विष्णु जलंधर के धैर्य और साहस की प्रशंसा करते हैं और उससे वर मांगने को कहते हैं।

जलंधर भगवान विष्णु से लक्ष्मी और गणों सहित अपने निवास पर रहने का वर मांगता है, जो विष्णु स्वीकार कर लेते हैं। तत्पश्चात जलंधर त्रिभुवन पर शासन करता है, देव-दानव-यक्ष-गन्धर्व आदि सभी उसके वशवर्ती हो जाते हैं,देवताओं के सभी रत्नादि पर भी जलंधर का अधिकार हो जाता है। जलंधर प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करता है।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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