किसी भी व्रत की पूर्णता तब होती है जब उसका उद्यापन किया जाता है, जब तक उद्यापन नहीं किया जाता है तब तक व्रत पूर्ण नहीं होता है। इसी कारण शास्त्रों/कर्मकांड में सभी व्रतों के लिये उद्यापन की विशेष विधि मिलती है। कार्तिक मास भी एक व्रत है अतः इसका भी उद्यापन करना चाहिये जिसकी विशेष विधि है। कार्तिक माहात्म्य के आठवें अध्याय में कार्तिक उद्यापन संबंधी मुख्य बिंदुओं की जानकारी दी गयी है। कथा कहने वाला नारद हैं और श्रोता महाराज पृथु। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 8 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
अथोर्जव्रतिनः सम्यगुद्यापनविधिं नृप । तच्छृणुष्व मयाख्यातं सविधानं समासतः ॥१॥
ऊर्ज्जशुक्लचतुर्दश्यां कुर्यादुद्यापनं व्रती । व्रतसंपूर्णतार्थाय विष्णुप्रीत्यर्थमेव च ॥२॥
तुलस्या उपरिष्टात्तु कुर्यान्मंडपिकां शुभाम् । सुतोरणां चतुर्द्वारां पुष्पचामरशोभिताम् ॥३॥
द्वारेषु द्वारपालांश्च पूजयेन्मृन्मयान्पृथक् । पुण्यशीलं सुशीलं च जयं विजयमेव च ॥४॥
तुलसीमूलदेशे च सर्वतोभद्रमालिखेत् । चतुर्भिर्वर्णकैः सम्यक्शोभाढ्यं समलंकृतम् ॥५॥
तस्योपरिष्टात्कलशं पंचरत्नसमन्वितम् । महाफलेन संयुक्तं शुभ्रवस्त्रं निधाय च ॥६॥
पूजयेत्तत्र देवेशं शंखचक्रगदाधरम् । कौशेयपीतवसनं युक्तं जलधिकन्यया ॥७॥
इंद्रादिलोकपालांश्च पूजयेन्मंडले व्रती । द्वादश्यां प्रतिबुद्धः स त्रयोदश्यां पुनः सुरैः ॥८॥
दृष्टोऽर्चितश्चतुर्दश्यां तस्मात्पूज्यस्तथाधिकम् । तस्यामुपवसेद्भक्त्या शांतः प्रयतमानसः ॥९॥
पूजयेद्देवदेवेशं सौवर्णं गुर्वनुज्ञया । उपचारैः षोडशभिर्नानाभक्ष्यसमन्वितैः ॥१०॥
रात्रौ जागरणं कुर्याद्गीतवाद्यादि मंगलैः । गीतं कुर्वंति ये भक्त्या जागरे चक्रपाणिनः ॥११॥
जन्मांतरशतोद्भूतैस्ते मुक्ताः पापसंचयैः । जागरे वासरे विष्णोर्गीतं नृत्यं च कुर्वताम् ॥१२॥
गोसहस्रं च ददतां तत्फलं समुदाहृतम् । गीतनृत्यादिकं कुर्वन्दर्शयेत्कौतुकानि च ॥१३॥
पुरतो वासुदेवस्य रात्रौ यो हरिजागरे । पठन्विष्णुचरित्राणि यो रंजयति वैष्णवान् ॥१४॥
मुखेन कुरुते वाद्यं स्वेच्छालापांश्च वर्जयेत् । भावैरेतैर्नरो यस्तु कुरुते हरिजागरम् ॥१५॥
दिनेदिने तस्य पुण्यं तीर्थकोटिसमं स्मृतम् । ततस्तु पौर्णिमास्यां वै सपत्नीकान्द्विजोत्तमान् १६।
त्रिंशन्मिताननेकान्वा स्वशक्त्या वा निमंत्रयेत् । वरान्दत्त्वा यतो विष्णुर्मत्स्यरूपी अभूत्तदा ॥१७॥
तस्यां दत्तं हुतं जप्तं तदक्षयफलं स्मृतम् । अतस्तान्भोजयेद्विप्रान्पायसान्नादिना व्रती ॥१८॥
अतो देवा इति द्वाभ्यां जुहुयात्तिलपायसम् । प्रीत्यर्थं देवदेवस्य देवानां च पृथक्पृथक् ॥१९॥
दक्षिणां च यथाशक्ति प्रदद्यात्प्रणमेच्च तान् । पुनर्देवं समभ्यर्च्य देवांश्च तुलसीं तथा ॥२०॥
ततो गां कपिलां तत्र पूजयेद्विधिवद्व्रती । गुरुं व्रतोपदेष्टारं वस्त्रालंकरणादिभिः ॥२१॥
सपत्नीकं समभ्यर्च्य गां च तस्मै प्रदापयेत् । युष्मत्प्रसादाद्देवेशः प्रसन्नो मे भवेत्तदा ॥२२॥
व्रतादस्माच्च यत्पापं सप्तजन्मकृतं मया । तत्सर्वं नाशमायातु स्थिरा मे चास्तु संततिः ॥२३॥
मनोरथाश्च सफलाः संतु नित्यं ममार्चनात् । देहांते वैष्णवं स्थानं प्राप्नुयामतिदुर्लभम् ॥२४॥
इति क्षमाप्यतान्विप्रान्प्रसाद्य च विसर्जयेत् । तामर्चां गुरवे दद्याद्रत्नयुक्तां तदा व्रती ॥२५॥
तदा सुहृद्गुरुयुतः स्वयं भुंजति भक्तिमान् । कार्त्तिके वाथ तपसि विधिरेवंविधः स्मृतः ॥२६॥
एवं यः कुरुते सम्यक्कार्तिकस्य व्रतं नरः । विपाप्मा स विनिर्मुक्तो विष्णुसान्निध्यगो भवेत् ॥२७॥
सर्वव्रतैः सर्वतीर्थैः सर्वदानैश्च यत्फलम् । तत्कोटिगुणितं ज्ञेयं सम्यगस्य विधानतः ॥२८॥
ते धन्यास्ते महापुण्यास्तेषां सर्वफलोदयः । विष्णुभक्तिरता ये स्युः कार्तिके व्रतकारिणः ॥२९॥
देहस्थितानि पापानि कम्पं यांति च तद्भयात् । क्व यास्यामो वदंत्येवं यद्ययं व्रतकृन्नरः ॥३०॥
इत्यूर्जव्रतनियमान्शृणोति भक्ता ये चैतत्कथयंति चैव वैष्णवाग्रे ।
ते सम्यग्व्रतकरणात्फलं लभेरन्तत्सर्वं कलुषविनाशनं लभंते ॥३१॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यासंवादे अष्टमोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 8 हिन्दी में
नारदजी बोले – अब मैं कार्तिक व्रत के उद्यापन का वर्णन करता हूँ जो सब पापों का नाश करने वाला है। व्रत का पालन करने वाला मनुष्य कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को व्रत की पूर्ति और भगवान विष्णु की प्रीति के लिए उद्यापन करे। तुलसी के ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनवावे, उसे केले के खम्भों से संयुक्त कर के नाना प्रकार की वस्तुओं से उसकी विचित्र शोभा बढ़ावे।
मण्डप के चारों ओर दीपकों की श्रेणी सुन्दर ढंग से सजाकर रखे। उस मण्डप में सुन्दर बन्दनवारों से सुशोभित चार द्वार बनावे और उन्हें फूलों से तथा चंवर से सुसज्जित करे। द्वारों पर पृथक-पृथक मिट्टी के द्वारपाल बनाकर उनकी पूजा करे। उनके नाम इस प्रकार हैं – पुण्यशील, सुशील, जय और विजय। उन्हें चारों दरवाजों पर स्थापित कर भक्तिपूर्वक पूजन करे।
तुलसी की जड़ के समीप चार रंगों से सुशोभित सर्वतोभद्रमण्डल बनावे और उसके ऊपर पूर्णपात्र तथा पंचरत्न से संयुक्त कलश की स्थापना करें। कलश के ऊपर शंख, चक्र, गदाधारी भगवान विष्णु का पूजन करें। भक्तिपूर्वक उस तिथि में उपवास करें तथा रात्रि में गीत, वाद्य, कीर्तन आदि मंगलमय आयोजनों के साथ जागरण करें।
- जो भगवान विष्णु के लिए जागरण करते समय भक्तिपूर्वक भगवत्सम्बन्धी पदों का गान करते हैं वे सैकड़ो जन्मों की पापराशि से मुक्त हो जाते हैं।
- जो मनुष्य भगवान के निमित्त जागरण कर के रात्रि भर भगवान का कीर्तन करते हैं, उनको असंख्य गोदान का फल मिलता है।
- जो मनुष्य भगवान की मूर्ति के सामने नृत्य-गान करते हैं उनके अनेक जन्मों के एकत्रित पाप नष्ट हो जाते हैं।
- जो भगवान के सम्मुख बैठकर कीर्तन करते हैं और बंसी आदि बजाकर भगवद भक्तों को प्रसन्न करते हैं तथा भक्ति से रात्रि भर जागरण करते हैं, उन्हें करोड़ो तीर्थ करने का फल मिलता है।
उसके बाद पूर्णमासी में ३० अथवा एक सपत्नीक ब्राह्मण को निमंत्रित करें। प्रात:काल स्नान और देव पूजन कर के वेदी पर अग्नि की स्थापना करे और भगवान की प्रीति के लिए तिल और खीर की आहुति दे। होम की शेष विधि पूरी कर के भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों का पूजन करें और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें फिर उनसे इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करें –
“आप सब लोगों की अनुकम्पा से मुझ पर भगवान सदैव प्रसन्न रहें। इस व्रत को करने से मेरे सात जन्मों के किये हुए पाप नष्ट हो जायें और मेरी सन्तान चिरंजीवी हो। इस पूजा के द्वारा मेरी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों, मेरी मृत्यु के पश्चात मुझे अतिशय दुर्लभ विष्णुलोक की प्राप्ति हो।”
पूजा की समस्त वस्तुओं के साथ गाय भी गुरु/व्रत-उपदेशकर्त्ता ब्राह्मण/आचार्य को दान में दे, उसके पश्चात घरवालों और मित्रों के साथ स्वयं भोजन करें।
भगवान द्वाद्शी तिथि को शयन से उठे, त्रयोदशी को देवताओं से मिले और चतुर्दशी को सबने उनका दर्शन एवं पूजन किया इसलिए उस तिथि में भगवान की पूजा करनी चाहिए। गुरु की आज्ञा से भगवान विष्णु की सुवर्णमयी प्रतिमा का पूजन करें। इस पूर्णिमा को पुष्कर तीर्थ की यात्रा श्रेष्ठ मानी गयी है। कार्तिक माह में इस विधि का पालन करना चाहिए।
- जो इस प्रकार कार्तिक के व्रत का पालन करते हैं वे धन्य और पूजनीय हैं उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
- जो भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो कार्तिक में व्रत का पालन करते हैं उनके शरीर में स्थित सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
- जो श्रद्धापूर्वक कार्तिक के उद्यापन का माहात्म्य सुनता या सुनाता है वह भगवान विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 8 भावार्थ/सारांश
कार्तिक व्रत उद्यापन हेतु तुलसी वृक्ष को आवश्यक कहा गया है और तुलसी के मूल में ही सभी पूजा होती है। अर्थात मंडप में तुलसीवृक्ष अवश्य स्थापित करे, यदि तुलसी वृक्ष आकार में छोटी हो तो सर्वतोभद्र मंडल पर ही रखे, किन्तु इसका ध्यान रखे की भगवान विष्णु का स्थापन तुलसी के मूल में ही होना चाहिये। सुंदर मंडप आदि का निर्माण कर उसमें चार द्वार बनाये और द्वारों पर भगवान विष्णु के द्वारपालों की मृण्मयी प्रतिमा स्थापित करे।
उद्यापन चतुर्दशी तिथि को करे एवं पूर्णिमा को 30 अथवा एक ही (सामर्थ्यानुसार) सपत्नीक ब्राह्मण को निमन्त्रित करे और होम की शेष विधि पूरी कर के भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों का पूजन करें और उन्हें यथाशक्ति दक्षिणा दें फिर उनसे इस प्रकार क्षमा प्रार्थना करें –
“आप सब लोगों की अनुकम्पा से मुझ पर भगवान सदैव प्रसन्न रहें। इस व्रत को करने से मेरे सात जन्मों के किये हुए पाप नष्ट हो जायें और मेरी सन्तान चिरंजीवी हो। इस पूजा के द्वारा मेरी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों, मेरी मृत्यु के पश्चात मुझे अतिशय दुर्लभ विष्णुलोक की प्राप्ति हो।”
पूजा की समस्त वस्तु गुरु/व्रत-उपदेशकर्त्ता ब्राह्मण/आचार्य को दान में दे, गोदान करे, पर्याप्त दक्षिणा आदि से ब्राह्मणों को संतुष्ट करे। उसके पश्चात घरवालों और मित्रों के साथ स्वयं भोजन करें।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।