कार्तिक और माघादि मासव्रत करने वालों के लिये कुछ विशेष नियम बताये गये हैं और अन्य सभी व्रतों में भी इनका पालन करना आवश्यक होता है। इस प्रकार कार्तिक माहात्म्य के सातवें अध्याय में मुख्य रूप से नियमों की चर्चा – कर्तव्य और अकर्तव्य, विहित और निषिद्ध, ग्राह्य और त्याज्य आदि की चर्चा की गयी है। व्रत के नियमों का गांवों में पालन देखा जाता है किन्तु नगरों के लोग व्रतसंबंधी नियमों का पालन करते नहीं देखे जाते, ढिंढोरा पीटने के लिये कुछ आयोजन आदि में रत रहते हैं जो आगे वर्णित नियमों से सिद्ध होता है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ और पुनः सारांश/भावार्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 7 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
कार्तिकव्रतिनां पुंसां नियमा ये प्रकीर्तिताः । ताञ्छृणुष्व मया राजन्कथ्यमानान्समंततः ॥१॥
सर्वामिषाणि मांसानि क्षौद्रं सौवीरकं तथा । राजमाषादिकं चापि नैवाद्यात्कार्तिकव्रती ॥२॥
परान्नं च परद्रोहं परदारागमं तथा । तीर्थे प्रतिग्रहं नापि गृह्णीयात्कार्तिकव्रती ॥३॥
देवदेवद्विजानां च गुरोश्च व्रतिनस्तथा । स्त्रीराजमहतां निंदां वर्जयेत्कार्तिके व्रती ॥४॥
द्विदलं तिलतैलं च तथान्नमश्रुदूषितम् । भावदुष्टं शब्ददुष्टं वर्जयेत्कार्तिकव्रती ॥५॥
प्राण्यंगमामिषं चूर्णं फले जंबीरमामिषम् । धान्ये मसूरिका प्रोक्ता चान्नं पर्युषितं तथा ॥६॥
अजागोमहिषीक्षीरादन्यदुग्धादि चामिषम् । द्विजक्रीता रसाः सर्वे लवणं भूमिजं तथा ॥७॥
ताम्रपात्रस्थितं गव्यं जलं पल्वलसंस्थितम् । आत्मार्थं पाचितं चान्नमामिषं तत्स्मृतं बुधैः ॥८॥
ब्रह्मचर्यमधः सुप्तिः पत्रावल्यां च भोजनम् । चतुर्थयामे भुंजीत कुर्यादेवं सदा व्रती ॥९॥
नरकस्य चतुर्दश्यां तैलाभ्यंगं च कारयेत् । अन्यत्र कार्तिकस्नायि तैलाभ्यंगं न कारयेत् ॥१०॥
पलांडुं लशुनं शिग्रु छत्राकं गृंजनं तथा । नालिकां मूलकं हिंगुं वर्जयेत्कार्तिकव्रती ॥११॥
अलाबुं चापि वृंताकं कूष्मांडं बृहतीफलम् । श्लेष्मातकं कपित्थं च वर्जयेद्वैष्णवव्रती ॥१२॥
रजस्वलांत्यजेन् म्लेच्छ पतितव्रात्यकैः सह । द्विजातिवेदबाह्यैश्च न वदेत्कार्तिकव्रती ॥१३॥
श्वभिर्दृष्टं च काकैश्च सूतकान्नं च वर्जयेत् । द्विःपाचितं च दग्धान्नं वर्जयेत्कार्तिकव्रती ॥१४॥
(तिलाभ्यंगं तथा शय्यां परान्नं कांस्यभोजनम् । कार्तिके वर्जयेद्यस्तु परिपूर्णव्रती भवेत् ।)
एतानि वर्जयेन्नित्यं व्रती सर्वव्रतेष्वपि । कृच्छ्राद्यं चापि कुर्वीत स्वशक्त्या विष्णुतुष्टये ॥१५॥
क्रमात्कूष्मांड बृहती तरुणी मूलकं तथा । श्रीफलं च कलिंगं च फलं धात्रीभवं तथा ॥१६॥
नारिकेलमलाबुञ्च पटोलं बदरीफलम् । चर्मवृन्ताकलवलीशाकं तुलसीजं तथा ॥१७॥
शाकान्येतानि वर्ज्यानि क्रमात्प्रतिपदादिषु । धात्रीफलं रवौ तद्वद्वर्जयेत्सर्वदा गृही ॥१८॥
एभ्योऽपि वर्जयेत्किंचिद्विष्णुव्रत परायणः । तत्पुनर्ब्रह्मणे दत्त्वा भक्षयेत्सर्वदैव हि ॥१९॥
एवमेव हि माघेऽपि कुर्याद्वै नियमान्व्रती । हरिजागरणं तत्र विधिप्रोक्तं च कारयेत् ॥२०॥
यथोक्तकारिणं दृष्ट्वा कार्तिकव्रतिनं नरम् । यमदूताः पलायंते गजाः सिंहार्दिता यथा ॥२१॥
वरं विष्णुव्रतं ह्येतदथ यज्ञशताधिकम् । यज्ञकृत्प्राप्नुयात्स्वर्गं वैकुंठं कार्तिकव्रती ॥२२॥
भुक्तिमुक्तिप्रदानीह यानि क्षेत्राणि भूतले । वसंति तानि तद्गेहे कार्तिक्रव्रतकारिणः ॥२३॥
दुःस्वप्न्नंदुष्कृतं किंचिन्मनोवाक्कायकर्मजम्। कार्त्तिकव्रतिनंदृष्ट्वा विलयंयांति तत्क्षणात् ॥२४॥
कार्त्तिकव्रतिनः पुंसो विष्णुवाक्यप्रणोदिताः । रक्षां कुर्वंति शक्राद्या राज्ञो वै किंकरा यथा ॥२५॥
विष्णुव्रतकरो नित्यं यत्र तिष्ठंति पूजिताः । ग्रहभूतपिशाचाद्या नैव तिष्ठंति तत्र वै ॥२६॥
कार्त्तिकव्रतिनः पुण्यं यथोक्तव्रतकारिणः । न समर्थो भवेद्वक्तुं ब्रह्मापि हि चतुर्मुखः ॥२७॥
विष्णुप्रियं सकलकल्मषनाशनं च सर्वत्र पुत्रधनधान्यसमृद्धिकारि ।
ऊर्जव्रतं सनियमं कुरुते मनुष्यः किं तस्य तीर्थपरिशीलन सेवया च ॥२८॥
॥इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यासंवादे सप्तमोऽध्यायः ॥
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 7 हिन्दी में
नारद जी ने कहा : हे राजन! कार्तिक मास में व्रत करने वालों के नियमों को मैं संक्षेप में बतलाता हूँ, उसे आप सुनिए। व्रती को सब प्रकार के आमिष, मांस, उरद, राई, खटाई तथा मादक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। व्रती को दूसरे का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए, किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए और (तीर्थ के अतिरिक्त अन्य कोई यात्रा नहीं करनी चाहिए) तीर्थ और व्रत में प्रतिग्रह नहीं करना चाहिये। देवता, वेद, ब्राह्मण, गाय, व्रती, नारी, राजा तथा गुरुजनों की निन्दा भी नहीं करनी चाहिए।
- व्रती को दाल, तिल, पकवान व क्रय किया हुआ भोजन (पका) ग्रहण नहीं करना चाहिए। व्रती के लिये शब्ददुष्ट और भावदुष्ट अन्न भी त्याज्य होता है।
- किसी की चुगली या निन्दा भी नहीं करनी चाहिए।
- किसी भी जीव का मांस नहीं छूना चाहिए।
- पान, कत्था, चूना, नींबू, मसूर, बासी तथा जूठा अन्न त्याज्य होता है।
- गाय, बकरी तथा भैंस के अतिरिक्त अन्य किसी पशु का दूध नहीं पीना चाहिए।
- ब्राह्मणक्रीत रस, सभी प्रकार के नमक, भूगर्भ से प्राप्त वस्तु ग्रहण नहीं करे।
- ताम्रपात्र में रखा हुआ पंचगव्य, बहुत छोटे गड्ढे का पानी तथा केवल अपने लिए ही पका हुआ अन्न आमिष होता है।
- कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्य को सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, धरती पर सोना चाहिए और दिन के चौथे पहर में केवल एक बार पत्तल में भोजन करना चाहिए।
व्रती कार्तिक माह में केवल नरक चतुर्दशी जिसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है के दिन ही शरीर में तेल लगा सकता है। कार्तिक माह में व्रत करने वाले मनुष्य को सिंघाड़ा, प्याज, मठ्ठा, गाजर, मूली, काशीफल, लौकी, तरबूज इन वस्तुओं का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए।
रजस्वला, चाण्डाल, पापी, म्लेच्छ, पतित, व्रात्य, ब्राह्मणद्रोही और नास्तिकों से बातचीत नहीं करनी चाहिए। इनके द्वारा देखे गये अन्न, श्वान व कौवे द्वारा देखा गया अन्न, सूतकान्न, दो बार पकाया हुआ अन्न, जला हुआ अन्न ग्रहण न करे। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार चान्द्रायण आदि का व्रत करना चाहिए और उपर्युक्त नियमों का पालन करना चाहिए।
प्रतिपदा को कुम्हड़ा, द्वितीया को कटहल, तृतीया को तरूणी स्त्री, चतुर्थी को मूली, पंचमी को बेल, षष्ठी को तरबूज, सप्तमी को आंवला, अष्टमी को नारियल, नवमी को मूली, दशमी को लौकी, एकादशी को परवल, द्वादशी को बेर, त्रयोदशी को मठ्ठा, चतुर्दशी को गाजर तथा पूर्णिमा को शाक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। रविवार को आंवला का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कार्तिक माह में व्रत करने वाला मनुष्य यदि इन शाकों में से किसी शाक का सेवन करना चाहे तो पहले ब्राह्मण को देखकर ग्रहण करे। यही विधान माघ माह के व्रत के लिए भी है।
देवोत्थानी एकादशी में पहले कही गयी विधि के अनुसार नृत्य, जागरण, गायन-वादन आदि करना चाहिए। इसको विधिपूर्वक करने वाले मनुष्य को देखकर यमदूत ऐसे भाग जाते हैं जैसे सिंह की गर्जना से हाथी भाग जाते हैं। कार्तिक माह का व्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ है। इसके अतिरिक्त जितने भी व्रत-यज्ञ हैं वह हजार की संख्या में किये जाने पर भी इसकी तुलना नहीं कर सकते क्योंकि यज्ञ करने वाले मनुष्य को सीधा वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।
जिस प्रकार राजा की रक्षा उसके अंगरक्षक करते हैं उसी प्रकार कार्तिक माह का व्रत करने वाले की रक्षा भगवान विष्णु की आज्ञा से इन्द्रादि देवता करते हैं। व्रती मनुष्य जहाँ कहीं भी रहता है वहीं पर उसकी पूजा होती है, उसका यश फैलता है। उसके निवास स्थान पर भूत, पिशाच आदि कोई भी नहीं रह पाते। विधि पूर्वक कार्तिक माह का व्रत करने वाले मनुष्यों के पुण्यों का वर्णन करने में ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। यह व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला, पुत्र-पौत्र प्रदान करने वाला और धन-धान्य की वृद्धि करने वाला है।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 7 भावार्थ/सारांश
कार्तिक और माघादि मासव्रत करने वालों के लिये नियमों की चर्चा करते हुये नारद जी ने सर्वप्रथम तो त्याज्य अन्नों के बारे में बताया, द्वेष-निंदा आदि न करने की चर्चा की। व्रती को सभी प्रकार के मादक पदार्थों का त्याग करना चाहिये। अन्न में भावदुष्ट, दृष्टिदुष्ट, दो बार पका हुआ आदि भी त्याग करने का विधान बताया गया है। इसके साथ ही ब्रह्मचर्य का पालन, भूशयन व दिन के चौथे प्रहर में एकभुक्त करने का नियम बताया गया है।
अब यहां समझा जा सकता है कि नगरनिवासी जो पका हुआ फलाहार तक क्रय करते हैं, अनेकों बार त्याज्य पदार्थों का ही सेवन करते हैं, पतित-म्लेच्छ-श्वान आदि के साथ ही रहते हैं, रजस्वला दोष को नहीं स्वीकार करते, वो किस व्रत के नियमों का पालन करते हैं अर्थात नियमों का उल्लंघन ही करते हैं।
इसके अतिरिक्त विभिन्न तिथियों में विशेष द्रव्य के त्याग का विधान भी बताया गया है और यदि ग्रहण करना हो तो ब्राह्मण को अर्पित करके ग्रहण करे। देवोत्थान एकादशी को एवं यदि माघ मास हो तो शुक्ल एकादशी को निशाजागरण, भजन-कीर्तन आदि करे। तत्पश्चात कार्तिक व्रती के महत्व का वर्णन किया गया और यहां तक कहा गया कि यमदूत इनको देखकर ही भाग जाते हैं, भगवान विष्णु इनकी रक्षाहेतु अपने पार्षदों को ही नियुक्त कर देते हैं।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।