आमलकी एकादशी व्रत कथा – Amalaki ekadashi vrat katha

आमलकी एकादशी व्रत कथा - Amalaki ekadashi vrat katha

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। यह व्रत सभी पापों का नाश करने वाली है। कथा के अनुसार वैदिश नगर का धर्मात्मा राजा चैत्ररथ एक बार आमलकी एकादशी व्रत कर रहे थे। संयोग से एक व्याधे ने भगवान की पूजा, कथा होते देखा-सुना, आहाररहित रहते हुये रात्रिजागरण भी कर लिया जिसके फलस्वरूप अगले जन्म में वह भी राजा बना और एक बार जब म्लेच्छों से घिर गया था तब एकादशी देवी ने प्रकट होकर म्लेच्छों का नाश किया।

सर्वप्रथम आमलकी (फाल्गुन शुक्ल पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Amalaki ekadashi vrat katha

आमलकी एकादशी व्रत कथा हिन्दी में

मान्धाता बोले – हे ब्रह्मन् ! हे महाभाग ! हे ब्रह्मयोने ! जो आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो ऐसा व्रत कहिए जिससे मेरा कल्याण हो ।

वशिष्ठ जी बोले – रहस्य और इतिहास सहित वतों में उत्तम व्रत मैं तुमसे कहता हूँ जो सम्पूर्ण फलों का देने वाला है । हे राजन् ! आमलकी का व्रत बड़े पापों का नाश करने वाला और सबको मोक्ष देने वाला तथा सहस्र गोदान के तुल्य फल को देने वाला है। हिंसा करने वाले व्याध की जैसी मुक्ति हुई उस प्राचीन इतिहास को मैं कहता हूँ ।

हृष्टपुष्ट मनुष्यों और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों से सुशोभित वैदिश नाम का नगर था । हे नृपशार्दूल ! वहाँ सुन्दर वेदध्वनि हो रही थी, उस सुन्दर नगर में कोई नास्तिक और दुराचारी नहीं था । वहाँ चन्द्रवंशी पाशविन्दुक राजा के वंश में उत्पन्न धर्मात्मा, सत्यवादी, चैत्ररथ नाम का प्रसिद्ध राजा था।

आमलकी एकादशी व्रत कथा - Amalaki ekadashi vrat katha
आमलकी एकादशी व्रत कथा – Amalaki ekadashi vrat katha

वह राजा दस सहस्र हाथियों के समान बलवान्, धनी तथा शस्त्र-शास्त्रों का जानने वाला था । उस धर्मात्मा राजा के राज्य में कोई निर्धन और लोभी दिखाई नहीं देता था । उसके राज्य में सब जगह सुकाल और आरोग्य था, दुर्भिक्ष और महामारी कभी नहीं होती थी । उस नगर में मनुष्य विष्णु की भक्ति करते थे और शिवजी का पूजन करते थे । राजा भी विशेष रूप से भक्ति करता था । दोनों पक्षों की एकादशी को मनुष्य भोजन नहीं करते थे, सब धर्मों को छोड़कर भगवान् की भक्ति करते थे ।

हे राजसत्तम ! इस प्रकार भगवान् की भक्ति करते हुए मनुष्यों को सुखपूर्वक बहुत वर्ष बीत गये। एक बार फाल्गुन शुक्लपक्ष की द्वादशी युक्त एकादशी प्राप्त हुई। हे विभो ! हे नृप ! उस एकादशी को बालक, वृद्ध सबने मिलकर नियम और उपवास किया। राजा इस व्रत को विशेष फलदायक समझकर नदी में स्नान करके प्रजा के साथ मन्दिर में गये । राजा ने जल से भरा हुआ कलश स्थापित करके उसे छत्र, उपानह, पंचरत्न और सुन्दर गन्ध से सुशोभित किया । दीपमाला से युक्त परशुरामजी के साथ ऋषियों समेत सावधानी से पूजन किया और धात्री का भी पूजन किया।

हे जामदग्न्य ! हे रेणुकानन्दवर्धन ! हे आमलकी की छाया से युक्त ! हे भुक्ति-मुक्ति को देने वाले, आपको नमस्कार है । हे धात्रि ! हे ब्रह्मा से उत्पन्न, सब पापों को नाश करने वाली आमलकी ! तुमको नमस्कार है, मेरे अर्घ्य को ग्रहण करो, तुमको नमस्कार है । हे धात्रि ! तुम ब्रह्मस्वरूपा हो, रामचन्द्रजी ने तुम्हारा पूजन किया है, परिक्रमा करने से सब पापों को दूर करो। इस प्रकार भक्ति से पूजन करके सबने रात्रि में जागरण किया।

उसी समय वहाँ एक शिकारी आया। भूख और परिश्रम से युक्त, पाप के भार से पीड़ित, कुटुम्ब के लिए जीव-हिंसा करने वाला, सब धर्मों से अलग वह आमलकी एकादशी का जागरण और दीपकों से शोभित उस स्थान को देखकर वहाँ बैठ गया । यह क्या है ? ऐसा मन में सोचकर आश्चर्य करने लगा।

उसने वहाँ रखे हुए कलश के ऊपर दामोदर भगवान् का दर्शन किया, वहाँ आँवले का वृक्ष और दीपक जुड़े हुए देखे और पण्डितों के मुख से भगवान् की कथा सुनी। क्षुधित होने पर भी उसने एकादशी का माहात्म्य सुना। विस्मय युक्त होकर रात में जागरण किया। फिर प्रातःकाल सब मनुष्य नगर में गये । उस शिकारी ने भी घर पर आकर प्रसन्नता से भोजन किया ।

फिर बहुत काल के अनन्तर व्याध की मृत्यु हुई । एकादशी के प्रभाव से और रात के जागरण से, उसे चतुरंगिणी सेना समेत बड़ा राज्य मिला। जयन्तीनगरी का विदूरथ नाम का एक राजा था जो धनधान्य और चतुरङ्गिणी सेना से युक्त था। उसके यहाँ वह शिकारी वसुरथ नाम का बलवान पुत्र हुआ।

वह निर्भयता से दश सहस्र ग्रामों का राजा, सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान प्रकाशमान्, विष्णु के समान पराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमायुक्त, धर्मात्मा, सत्यवादी और विष्णु का भक्त था । ब्रह्मज्ञानी, कर्मशील, प्रजा का पालन करने वाला, दूसरों के अहंकार को दूर करने वाला था, उसने अनेक प्रकार के यज्ञ किये थे । उसने अनेक प्रकार के दान किये थे। एक दिन वह शिकार को गया, दैवयोग से मार्ग भटक गया । वहाँ राजा को दिशा-विदिशा का ज्ञान नहीं रहा, उस हरे वन में अकेला राजा क्षुधा से पीड़ित होकर भुजा का सहारा लेकर सो गया।

इसी अवसर में पहाड़ी प्लेच्छों का समूह आ गया, जहाँ वह शत्रुओं को मारने वाला राजा सो रहा था वहाँ आकर शत्रुता का व्यवहार किया। उन म्लेच्छों ने पूर्व के वैर का स्मरण करके उस महादानी राजा को घेर लिया और “इसको मारना चाहिए” इस प्रकार वे कहने लगे । क्योंकि इसने पहले हमारे पिता, माता, पुत्र, पौत्र, भानजे, मामा आदि को मार दिया है, हमको घर से निकाल दिया है, हम दसों दिशाओं में मारे-मारे फिरते हैं। इतना कहकर वे राजा को मारने को तैयार हो गये ।

पाश, पट्टिश, बाण, खड्ग और धनुष लेकर वे सब शत्रु, राजा को मारने को तैयार हो गये। वो शस्त्र मारने लगे किन्तु उनके वे सब शस्त्र गिरते रहे परन्तु राजा के शरीर में कोई चोट नहीं आई। उनके शस्त्र नष्ट हो गये, वे म्लेच्छ थककर निर्जीव से हो गये। शस्त्र कुंठित होने से वे सब बेहोश हो गये, एक कदम चलने की भी उनमें शक्ति नहीं रही। जो राजा के मारने को आये थे वे सब दुखी हो गये।

इतने ही समय में राजा के शरीर से दिव्य सुगन्ध से युक्त सुन्दर वस्त्र आभूषणों से युक्त सर्वांग सुन्दरी एक स्त्री उत्पन्न हुई। सुन्दर माला को धारण किये हुए टेढ़ी भृकुटी वाली, नेत्रों से अग्नि बरसाती हुई दूसरी कालरात्रि के समान हाथ में चक्र लिए हुए क्रोध में भरी हुई म्लेच्छों को मारने के लिए दौड़ी और उन कुकर्मी प्लेच्छों को मार दिया।

फिर राजा की नींद खुली, तब इस आश्चर्य को देखा । मारे हुए म्लेच्छों को देखकर राजा को हर्ष हुआ और बोला कि मेरे प्रबल वैरी म्लेच्छों को किसने मारा ? इस काम को करने वाला कौन मेरा हितकारी है ? इतने ही समय में आकाशवाणी हुई, निष्काम और विस्मित, बैठे हुए राजा को देखकर आकाशवाणी हुई कि

“केशव भगवान् के अतिरिक्त शरणागत की रक्षा करने वाला कौन है ।”

इस प्रकार आकाशवाणी को सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और कुशलतापूर्वक वन से अपने घर आ गया। धर्मात्मा राजा ने इन्द्र की तरह राज्य किया।

वशिष्ठजी बोले – हे राजन् ! जो श्रेष्ठ मनुष्य आमलकी एकादशी का व्रत करते हैं, वे निःसंदेह विष्णुलोक को जाते हैं।

आमलकी एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ

फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। कथा के अनुसार वैदिश नगर का राजा चैत्ररथ एक बार एकादशी कर रहे थे जो कि आमलकी एकादशी थी, रात्रि जागरण के समय एक भूख-प्यास से व्याकुल शिकारी वहां आया और वहीं रुक गया। क्षुधित होने पर भी उसने भगवान का दर्शन किया, कथा श्रवण किया रात्रिजागरण भी कर लिया।

मृत्यु के उपरांत अगले जन्म में एकादशी के प्रभाव से जयंतीनगरी के राजा विदूरथ के यहाँ पुत्र रूप में जन्म लिया जिसका नाम वसुरथ रखा गया। राजा बनने के बाद एक समय शिकार करते हुये वह भटक गया और म्लेच्छों के बीच फंस गया। म्लेच्छों में अपने शत्रु राजा को मारने का प्रयास किया जिससे डरकर राजा मूर्छित हो गया किन्तु फिर भी किसी अस्त्र-शस्त्र का राजा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा उल्टे म्लेच्छ ही थक गये और तभी राजा के शरीर से एक सर्वांगसुन्दरी देवी प्रकट होकर उन म्लेच्छों का संहार कर देती है।

होश आने पर राजा को आश्चर्य होता है तो आकाशवाणी होती है कि भगवान केशव के अतिरिक्त शरणागत की रक्षा करने वाला और कौन है। प्रसन्नचित्त राजा सकुशल पुनः घर वापस आ गया।

  • इस एकादशी को करने से १००० गोदान का पुण्य प्राप्त होता है।
  • आमलकी एकादशी फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में होती है।
  • इसके अधिदेवता केशव हैं।
  • इससे सभी पापों का नाश हो जाता है।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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