इस कथा में भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को चैत्र शुक्लपक्ष की कामदा एकादशी का महत्व बताया है। चैत्र शुक्लपक्ष की कामदा एकादशी पापों का नाश करती है। प्राचीन समय में, ललिता नाम की अप्सरा अपने पति ललित के राक्षस रूप से दुखी थी। ऋषि ने उसे बताया कि कामदा एकादशी का व्रत करके वह अपने पति को राक्षसत्व से मुक्त कर सकती है। ललिता ने व्रत किया और उसके पुण्य से ललित पुनः गन्धर्व बन गया। यह कथा एकादशी के व्रत के प्रभाव को दर्शाती है, जो पाप और दोषों का नाश करती है। इस एकादशी का व्रत सभी पापों को नष्ट करने वाला बताया गया है।
सर्वप्रथम कामदा (चैत्र शुक्ल पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Kamada ekadashi vrat katha
कामदा एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
सूत उवाच
देवकीनन्दनं कृष्णं वसुदेवात्मजं हरिम् । नमस्कृत्य प्रवक्ष्यामि महापातकनाशनम् ॥१॥
युधिष्ठिराय कृष्णेन कथितानि महात्मना । एकादशीमाहात्म्यानि नानापापहराणि च ॥
अष्टादशपुराणेभ्यो विविच्य सुमहात्मना । चतुर्विंशतिसंख्यानि नानाख्यानैर्युतानि च ॥
तानि वक्ष्यामि भो विप्राः शृणुध्वं सुसमाहिताः ॥
युधिष्ठिर उवाच
वासुदेव नमस्तुभ्यं कथयस्व ममाग्रतः ॥ चैत्रस्य शुक्लपक्षे तु किन्नामैकादशी भवेत् ।
श्रीकृष्ण उवाच
शृणुष्वैकमना राजन् कथामेतां पुरातनीम् ॥५॥
वसिष्ठो यामकथयत्प्राग्दिलीपाय पृच्छते ।
दिलीप उवाच
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि कथयस्व प्रसादतः। चैत्रमासि सिते पक्षे किन्नामैकादशी भवेत् ॥
वसिष्ठ उवाच
साधु पृष्टं नृपश्रेष्ठ कथयामि तवाग्रतः ॥
चैत्रस्य शुक्लपक्षे तु कामदा नामनामतः। एकादशी पुण्यतमा पापेन्धनदवानलः॥
शृणु राजन् कथामेतां पापघ्नीं पुण्यवर्धिनीम्। पुरा रत्नपुरे रम्ये हेमरत्नविभूषिते ॥
पुण्डरीकमुखा नागा निवसन्ति मदोत्कटाः। तस्मिन् पूरे पुण्डरीको राजा राज्यं करोति च ॥१०॥
गन्धर्वैः किन्नरैश्चैव ह्यप्सरोभिः सुसेव्यते । वराऽप्सरा तु ललिता गन्धर्वो ललितस्तथा ॥
उभौ रागेण संयुक्तौ दम्पती कामपीडितौ । रेमाते स्वगृहे रम्ये धनधान्ययुते सदा ॥
ललितायास्तु हृदये पतिर्वसति सर्वदा । हृदये तस्य ललिता नित्यं वसति भामिनी ॥
एकदा पुण्डरीकाद्याः क्रीडन्तः सदसस्थिताः । गीतगानं प्रकुरुते ललितो दयितां विना ॥
पदबन्धे स्खलज्जिह्वो बभूव ललितां स्मरन् । मनोभावं विदित्वाऽस्या कर्कोटो नागसत्तमः ॥१५॥
पदबन्धच्युतिं तस्य पुण्डरीके न्यवेदयत् । क्रोधसंरक्तनयनः पुण्डरीकोऽभवत्तदा ॥
ललितं तत्र शप्तोऽसौ मदनातुरचेतसम् । राक्षसो भव दुर्बुद्धे कव्यादः पुरुषादकः ॥
यतः पत्नीवशो जातो गायमानो ममाग्रतः । वचनात् तस्य राजेन्द्र रक्षोरूपी बभूव ह ॥
रौद्राननो विरूपाक्षो दृष्टमात्रो भयंकरः । बाहू योजनविस्तीर्णो मुखं कन्दरसन्निभम् ॥
चन्द्रसूर्यनिभे नेत्रे ग्रीवा पर्वतसन्निभा । नासारन्ध्र तु विवरे चाधरौ योजनार्धकौ ॥२०॥
शरीरं तस्य राजेन्द्र उच्छ्रितं योजनाष्टकम् । ईदृशो राक्षसः सोऽभूद्भुञ्जानः कर्मणः फलम् ॥
ललिता तमथालोक्य स्वपतिं विकृताकृतिम् । चिन्तयामास मनसा दुःखेन महतार्दिता ॥
किं करोमि क्व गच्छामि पतिः शापेनपीडितः । इति संस्मृत्य मनसा न शर्म लभते तु सा ॥
चचार पतिना सार्द्धं ललिता गहने वने । बभ्राम विपिने दुर्गे कामरूपः स राक्षसः ॥
निघृणः पापनिरतो विरूपः पुरुषादकः । न सुखं लभते रात्रौ दिवातापप्रपीडितः ॥२५॥
ललिता दुःखितातीव पतिं दृष्ट्वा तथाविधम् । भ्रमन्ती तेन सार्द्धं सा रुदती गहने वने ॥
कदाचिदगमद्विन्ध्यशिखरे बहुकौतुके। ऋष्यशृंगमुनेस्तत्र दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं शुभम् ॥
शीघ्रं जगाम ललिता विनयावनता स्थिता । प्रत्युवाच मुनिर्दृिष्ट्वा का त्वं कस्य सुता शुभे ॥
किमर्थं हि समायाता सत्यं वद ममाग्रतः ।
ललितोवाच
वीरधन्वेति गन्धर्वः सुता तस्य महात्मनः ॥
ललितां नाम मां विद्धि पत्यर्थमिह चागताम् । भर्त्ता मे शापदोषेण राक्षसोऽभून्महामुने ॥३०॥
रौद्ररूपो दुराचारस्तं दृष्ट्वा नास्ति मे सुखम् । साम्प्रतं शाधि मां ब्रह्मन् प्रायश्चित्तं वद प्रभो ॥
येन पुण्येन विप्रेन्द्र राक्षसत्वाद्विमुच्यते।
ऋषिरुवाच
चैत्रमासस्य रम्भोरु शुक्लपक्षस्य साम्प्रतम् ॥
कामदैकादशीनाम्ना या कृता कामदा नृणाम् । कुरुष्व तद्व्रतं भद्रे विधिपूर्वं मयोदितम् ॥
तस्य व्रतस्य यत्पुण्यं तत्स्वभर्त्रै प्रदीयताम् । दत्ते पुण्ये क्षणात्तस्य शापदोषः प्रशाम्यति ॥
इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं ललिता हर्षिताऽब्रवीत् । उपोष्यैकादशी राजन् द्वादशीदिवसे तदा ॥३५॥
विप्रस्यैव समीपे तु वासुदेवाग्रतः स्थिता । वाक्यमूचे तु ललिता स्वपत्युस्तारणाय वै ॥
मया तु यद्व्रतं चीर्णं कामदाया उपोषणम्। तस्य पुण्यप्रभावेण गच्छत्वस्य पिशाचता ॥
ललितावचनादेवं वर्तमानोऽपि तत्क्षणे । गतपापः स ललितो दिव्यदेहो बभूव ह॥
राक्षसत्वं गतं तस्य प्राप्तो गन्धर्वतां पुनः । हेमरत्नसमाकीर्णे रेमे ललितया सह ॥
तौ विमानसमारूढौ पूर्वरूपाधिकावुभौ । दम्पती चापि शोभेतां कामदायाः प्रभावतः ॥४२॥
इति ज्ञात्वा नृपश्रेष्ठ कर्त्तव्यैषा प्रयत्नतः । लोकानां च हितार्थाय तवाग्रे कथिता मया ॥
ब्रह्महत्यादिपापघ्ना पिशाचत्वविनाशिनी । नातः परतरा काचित्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥
॥ इति श्रीवाराहपुराणे चैत्रशुक्लकामदैकादशीव्रतमाहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥१०॥
कामदा एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
सूतजी बोले – देवकीनन्दन, वसुदेव के पुत्र कृष्णचन्द्र को नमस्कार करके महापातक को नाश करने वाले व्रत को मैं कहूँगा। महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ने अनेक पापों को दूर करने वाले एकादशी के माहात्य युधिष्ठिर से कहे हैं, महात्माओं ने अठारहों पुराणों में से निकाल कर अनेक आख्यान से युक्त चौबीस एकादशियों का वर्णन किया है। हे विप्रो ! उनको मैं तुमसे कहूँगा, सावधानी से सुनो।
युधिष्ठिर बोले – हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है, आप मुझसे कहिए, चैत्र शुक्लपक्ष में एकादशी का क्या नाम है?
श्रीकृष्ण बोले – हे राजन् ! इस प्राचीन कथा को एकाग्र मन से सुनो, जिसको महाराज दिलीप के प्रश्न करने पर वशिष्ठजी ने कहा है।
दिलीप बोले – हे भगवन् ! चैत्र शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है, मैं सुनना चाहता हूँ, प्रसन्नता से कहिए ।
वशिष्ठ जी बोले – हे नृपश्रेष्ठ ! आपने उत्तम प्रश्न किया है, मैं आपसे कहता हूँ ।
चैत्र के शुक्लपक्ष में कामदा नाम की एकादशी होती है। वह पवित्र एकादशी पापरूपी ईंधन को भस्म करने के लिए दावानल की तरह है । हे राजन् ! पापों को नाश करने वाली और पुण्य को बढ़ाने वाली कथा को सुनो।
प्राचीन समय में स्वर्ण और रत्नों से सुशोभित रत्नपुर नाम के नगर में मदोन्मत्त पुंडरीक आदि नाग निवास करते थे। उस नगर में पुंडरीक नाम का राजा राज्य करता था । गन्धर्व, किन्नर और अप्सरा उसका सेवन करते थे। वहाँ ललिता नाम की सुन्दर अप्सरा और ललित नाम का गन्धर्व रहता था। वे दोनों स्त्री-पुरुष प्रेम से युक्त कामार्त होकर धन-धान्य से भरे हुए अपने घर मे सदा क्रीड़ा करते थे। ललिता के हृदय में सदा पति बसता था, पति के हृदय में सदा ललिता स्त्री निवास करती थी ।
एक समय सभा में पुंडरीक आदि गन्धर्व क्रीड़ा कर रहे थे और स्त्री रहित ललित गन्धर्व गान कर रहा था । वह ललिता की याद करता हुआ बेसुरा गाने लगा। उसके पद ठीक ताल पर विश्राम नहीं लेते थे। कर्कोट नाग इस भेद को जान गया और उसने पुण्डरीक नाग से जाकर सब वृत्तान्त कह दिया ।
क्रोध से पुंडरीक की आँखें लाल हो गयीं। उसने कामातुर हुए ललित को शाप दे दिया “हे दुर्बुद्धे ! तू मनुष्यों को खाने वाला राक्षस हो जा, क्योंकि तू मेरे सामने गान करता हुआ स्त्री के वश में हो गया।” हे राजेन्द्र ! उसके वचन से वह राक्षसरूप हो गया । उसके भयंकर मुख और बुरे नेत्रों के देखने से डर लगता था। भुजा चार कोस लम्बी और मुख कन्दरा के समान था । सूर्य, चन्द्र के समान नेत्र, पर्वत के समान गला, गुफा के समान नासिका के छेद, और दो कोस लम्बे होंठ थे, शरीर आठ योजन ऊँचा था । इसी प्रकार कर्मफल भोगने के लिये वह राक्षस हो गया ।
ललिता अपने पति की भयंकर आकृति को देखकर दुखी होकर चिन्ता करने लगी : मेरा पति शाप से पीड़ित है, मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? इस चिन्ता से उसके चित्त में शान्ति नहीं मिलती थी । ललिता पति के साथ गहन वन में भ्रमण करने लगी, वह कामरूपी राक्षस भी कठिन वन में घूमने लगा।
वह राक्षस निर्दय, पापी, कुरूप और मनुष्यों को खाने वाला हो गया । ताप से पीड़ित होकर रातदिन सुख नहीं मिलता था, ललिता उसकी यह दशा देखकर बहुत दुखी हुई । और रोती हुई उसके साथ गम्भीर वन में घूमने लगी। एक समय ललिता ने आश्चर्ययुक्त विन्ध्याचल के शिखर पर शृंगी ऋषि का परम पवित्र आश्रम देखा । ललिता शीघ्र वहाँ गई और नम्नतापूर्वक बैठ गई । उसको देखकर
मुनीश्वर बोले – हे शुभे! तू कौन है और किसकी बेटी है? किसलिए यहाँ आई है ? यह मेरे सामने सत्य कहो ।
ललिता बोली – वीरधन्वा नाम का महात्मा गन्धर्व हैं उनकी मैं बेटी हूँ । ललिता मेरा नाम है। पति के लिए मैं आई हूँ । हे महामुने ! मेरा पति शाप के दोष से राक्षस हो गया है। हे ब्रह्मन् ! उसका भयंकर रूप और बुरा आचरण देखकर मुझको सुख नहीं है। हे प्रभो! अब मुझे उसका प्रायश्चित्त बतलाइए । हे विप्रेन्द्र ! जिस पुण्य से वह राक्षस-योनि से छूट जाये ।
ऋषि बोले – हे रंभोरु ! चैत्र मास के शुक्लपक्ष की कामदा नाम की एकादशी है, इसका व्रत करने से मनुष्यों की इच्छा पूरी होती है। मेरे कहने से विधिपूर्वक उसका व्रत करो और उस व्रत का पुण्य अपने पति के लिए दे दो। उस पुण्य के देने से उसका शाप क्षणभर में दूर हो जाएगा । हे राजन् ! मुनि का यह वचन सुनकर ललिता प्रसन्न हुई। एकादशी का व्रत करके द्वादशी के दिन ब्राह्मण के समीप वासुदेव भगवान् के सम्मुख बैठकर ललिता अपने पति के उद्धार के लिए बोली :
“मैंने जो कामदा एकादशी का व्रत किया है, उसके पुण्य के प्रभाव से इसकी पिशाचयोनि दूर हो जाय”
उस समय ललित राक्षसयोनि में वहीं बैठा था। ललिता के इस वाक्य से उसी समय उसके पाप दूर हो गये और वह दिव्यदेहधारी गन्धर्व हो गया। उसकी राक्षसयोनि दूर गई और गन्धर्व हो गया। फिर सुवर्ण और रत्नों के आभूषण धारण करके ललिता के साथ रमण करने लगा । कामदा के प्रभाव से वे दोनों पहले से भी अधिक स्वरूपवान् होकर विमान में बैठकर शोभा को प्राप्त हुए।
हे नृपश्रेष्ठ ! यह जानकर इसका व्रत अच्छी तरह से करना चाहिए। लोकों के हित के लिए मैंने तुमसे कहा है। ब्रह्महत्या आदि पाप और पिशाचयोनि को नष्ट करने वाली इससे बढ़कर चर-अचर तीनो लोकों में और कोई नहीं है ।
कामदा एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा चैत्र शुक्लपक्ष की कामदा एकादशी के महत्व का वर्णन किया गया है। यह व्रत पापों के नाश और पुण्य के वर्धन का मार्ग है। ललिता और ललित की प्रेम कहानी में शापित ललित की मुक्ति का मूल मन्त्र कामदा एकादशी है। इस व्रत के द्वारा वो राक्षस योनि से उबरकर दिव्य रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। चैत्र शुक्लपक्ष की ‘कामदा एकादशी’ का व्रत अत्यंत पवित्र है। इसके माध्यम से ललिता ने अपने पति ललित को शाप से मुक्त करने के लिए इस व्रत का पालन किया, जिससे वह फिर से गन्धर्व के रूप में लौट आया।
कथा के अनुसार रत्नपुर में नागों के साथ उसका मदोन्मत्त राजा पुण्डरीक निवास करता था। वहीं पर ललिता नाम की अप्सरा और ललित नामक गन्धर्व भी रहता था। एक समय सभा में नृत्य प्रस्तुत करते समय दोनों से भूल हो गयी जिसे कर्कोट नाग ने राजा पुण्डरीक को बताया तो क्रोधित राजा ने ललित को राक्षस होने का श्राप दे दिया। ललिता राक्षस स्वरूप वाले ललित के साथ वनों में भटकते हुये एक समय विंध्याचल शिखर पर शृंगी के पास पहुँच गयी और भेंट होने पर विनम्रता पूर्वक सारी रामकथा सुनाई तो शृंगी ऋषि ने उसे कामदा एकादशी करके उसका पुण्य पति को प्रदान करने का उपदेश दिया।
ललिता ने वैसा ही किया और कामदा एकादशी के प्रभाव से ललित गन्धर्व श्रापमुक्त हो गया।
- कामदा एकादशी चैत्रमास के शुक्ल पक्ष में होती है।
- यह एकादशी भी सभी प्रकार के पापों से मुक्त करती है।
- विभिन्न प्रकार के श्राप, नजर आदि दोषों के निवारण हेतु कामदा एकादशी का व्रत करना चाहिए।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।