चैत्र मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम पापमोचनी एकादशी है। कथा के अनुसार कुबेर के चैत्ररथ वन में च्यवन मुनि का आश्रम था जहाँ उनके पुत्र मेधावी मुनि भी तपस्या करते थे। उस वन में विहार करने के लिए इंद्र भी आया करते थे। एक बार उनके साथ आयी अप्सरा मंजुघोषा मेधावी मुनि पर मोहित हो गयी और उन्हें आकर्षित करने का प्रयास करने लगी जिसमें कामदेव ने भी शंकर भगवान से वैर को याद करके उसका साथ दिया।
अंततः मेधावी मुनि आकर्षित हो जाते हैं और तत्पश्चात उसके साथ 57 वर्षों वर्ष व्यतीत करते हैं व अंत में इसका स्मरण होने पर क्रोधित होकर मंजुघोषा को पिशाची होने श्राप देते हैं, पुनः अनुनय-विनय करने पर पापमोचनी एकादशी व्रत का उपदेश करते हैं। पुनः मेधावी मुनि स्वयं के लिये च्यवन मुनि से उपाय पूछते हैं तो उन्हें भी पापमोचनी एकादशी का ही उपदेश मिलता है।
सर्वप्रथम पापमोचनी (चैत्र कृष्ण पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Papmochani ekadashi vrat katha
पापमोचनी एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
युधिष्ठिर उवाच
फाल्गुनस्य सिते पक्षे श्रुत्वा साऽऽमलकी मया । चैत्रस्य कृष्णपक्षे तु किन्नामैकादशी भवेत् ॥१॥
को विधिः किं फलं तस्याः ब्रूहि कृष्ण ममाग्रतः ॥
कृष्ण उवाच
शृणु राजेन्द्र वक्ष्यामि पापमोचनिका व्रतम्। यल्लोमशोऽऽब्रवीत् पृष्टो मान्धात्रा चक्रवर्तिना ॥
मान्धातोवाच
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि लोकानां हितकाम्यया ॥
चैत्रमास्यसिते पक्षे किन्नामैकादशी भवेत् । को विधिः किं फलं तस्याः कथयस्व प्रसादतः ॥
लोमश उवाच
चैत्रमास्यसिते पक्षे नाम्ना वै पापमोचिनी । एकादशी समाख्याता पिशाचत्वविनाशिनी ॥५॥
श्रूयतां राजशार्दूल कामदां सिद्धिदां तथा । कथां विचित्रां शुभदां पापघ्नीं धर्मदायिनीम् ॥
पुरा चैत्ररथो देशे ह्यप्सरोगणसेविते । वसन्तसमये प्राप्ते पुष्पैराकुलिते वने ॥
गन्धर्वकन्यास्तत्रैव रमन्ति सह किन्नरैः । पाकशासनमुख्याश्च क्रीडन्ते च दिवौकसः ॥
नापरं सुन्दरं किञ्चिद्वनाच्चैत्ररथाद्वनम् । तस्मिन् वने तु मुनयस्तपन्ति बहुलं तपः ॥
सह देवैस्तु मघवा रमते मधुमाधवौ । एको मुनिवरस्तत्र मेधावी नाम नामतः ॥१०॥
अप्सरास्तं मुनिवरं मोहनातोपचक्रमे । मञ्जुघोषेति विख्याता भावं तस्य विचिन्वति ॥
क्रोशमात्रं स्थिता तस्य भयादाश्रमसन्निधौ । गायन्ती मधुरं साधु पीडयन्ती विपञ्चिकाम् ॥
गायन्तीं तामथालोक्य पुष्पचन्दनवेष्टिताम्। कामोऽपि विजयाकाङ्क्षी शिवभक्तंमुनीश्वरम् ॥
तस्याः शरीरसंसर्ग शिववैरमनुस्मरन् । कृत्वा ध्रुवौ धनुःकोटि गुणं कृत्वा कटाक्षकम् ॥
मार्गणौ नयने कृत्वा पक्षयुक्तौ यथाक्रमम् । कुचौ कृत्वा पटकुटीं विजयायोपसंस्थितः ॥१५॥
मञ्जुघोषाऽभवत्तत्र कामस्यैव वरूथिनी । मेधाविनं मुनिं दृष्ट्वा सापि कामेन पीडिता ॥
यौवनोद्भिन्नदेहोऽसौ मेधाव्यतिविराजते । सितोपवीतसहितो दण्डी स्पर इवापरः ॥
मेधावी वसति चासौ च्यवनस्याश्रमे शुभे । मञ्जुघोषा स्थिता तत्र दृष्ट्वा तं मुनिपुङ्गवम् ॥
मदनस्य वशं प्राप्ता मन्दं मन्दमगायत । रणद्वलयसंयुक्तां शिजन्नूपुरमेखलाम् ॥
गायन्तीं भवसंयुक्तां विलोक्य मुनिपुङ्गवः । मदनेन ससैन्येन नीतो मोहवशं बलात् ॥२०॥
मञ्जुघोषां समागम्य मुनिं दृष्ट्वातथाविधम् । हावभावकटाक्षैस्तु मोहयामास चाङ्गना ॥
अधः संस्थाप्य वीणां सा सस्वजे तं मुनीश्वरम् । वल्लीवाकुलिता वृक्षं वातवेगेन वेपिता ॥
सोऽपि रेमे तया सार्द्धं मेधावी मुनिपुङ्गवः । तस्मिन्नेव वनोद्देशे दृष्ट्वा तद्देहमुत्तमम् ॥
शिवतत्त्वं स विस्मृत्य कामतत्त्ववशंगतः । न दिशां न दिनं सोऽपि रमञ्जानाति कामुकः ॥
बहुलश्च गतः कालो मुनेराचारलोपकः । मंजुघोषा देवलोकगमनायोपचक्रमे ॥२५॥
गच्छन्ती प्रत्युवाचाथ रमन्तं मुनिपुङ्गवम् । आदेशो दीयतां ब्रह्मन् स्वधामगमनाय मे ॥
मेधाव्युवाच
अद्यैव त्वं समायाता प्रदोषादौ वरानने । यावत्प्रभातसन्ध्या स्यात्तावत्तिष्ठ ममान्तिके ॥
इति श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं भयभीता बभूव सा । पुनर्वै रमयामास तं मुनिं ऋषिसत्तमम् ॥
मुनेः शापभयाद्भीता बहुलान् परिवत्सरान् । वर्षाणां सप्तपञ्चाशन्नवमासान् दिनत्रयम् ॥
सा रेमे मुनिना तेन निशार्द्धमिव चाभवत् । सा च तं प्रत्युवाचाथ तस्मिन् काले गते मुनिम् ॥३०॥
आदेशो दीयतां ब्रह्मन् गन्तव्यं स्वगृहं मया ॥
मेधाव्युवाच
प्रातःकालोऽधुनैवास्ते श्रूयतां वचनं मम। कुर्वे संध्यामहं यावत्तावत्त्वं वै स्थिरा भव ॥
इति वाक्यं मुनेः श्रुत्वा भयेन च समाकुला । स्मितं कृत्वा तु सा किञ्चित्प्रत्युवाच सुविस्मिता ॥
अप्सरा उवाच
कियत्प्रमाणा विप्रेन्द्र तव सन्ध्या गता न वा ॥
मयि प्रसादं कृत्वा तु गतः कालो विचार्यताम् । इति तस्या वचः श्रुत्वा विस्मयोत्फुल्ललोचनः ॥
तं ध्यात्वा हृदि विप्रेन्द्रः प्रमाणमकरोत्तदा । समाश्च सप्तपञ्चाशत् गता मम त्वया सह ॥३५॥
नेत्राभ्यां विस्फुलिंगान् स मुञ्चमानोऽतिकोपनः । कालरूपां च तां दृष्ट्वा तपसः क्षयकारिणीम् ॥
दुःखार्जितं मम तपो नीतं तदनया क्षयम् । सकम्पोष्ठो मुनिस्तत्र प्रत्युवाचाकुलेन्द्रियः ॥
स तां शशाप मेधावी त्वं पिशाची भवेति च । धिक् त्वां पापे दुराचारे कुलटे पातकप्रिये ॥
तस्य शापेन सा दग्धा विनयाऽवनता स्थिता । उवाच वचनं सुभ्रूः प्रसादं वाञ्छती मुनिम् ॥
कृत्वा प्रसादं विप्रेन्द्र शापस्योपशमं कुरु । सतां संगो हि फलति वचोभिः सप्तमे पदे ॥ ४०॥
त्वया सह मम ब्रह्मन् गता सुबहवः समाः । एतस्मात्कारणात् स्वामिन् प्रसादं कुरु सुव्रत ॥
मुनिरुवाच
शृणु मद्वचनं भद्रे शापानुग्रहकारकम् । किं करोमि त्वया पापे क्षयं नीतं महत्तपः ॥
चैत्रस्य कृष्णपक्षे या भवत्येकादशी शुभा । पापमोचनिका नामा सर्वपापक्षयङ्ङ्करी ॥
तस्याः व्रते कृते सुभ्रु पिशाचत्वं प्रशाम्यति । इत्युक्त्वा तं स मेधावी जगाम पितुराश्रमम् ॥
तमागतं समालोक्य च्यवनः प्रत्युवाच ह । किमेतद्विहितं पुत्र त्वया पुण्यक्षयः कृतः ॥४५॥
मेधाव्युवाच
पापं कृतं महत्तात रमिता चाप्सरा मया । प्रायश्चित्तं ब्रूहि तात येन पापक्षयो भवेत् ॥
च्यवन उवाच
चैत्रस्य चासिते पक्षे नाम्ना वै पापमोचिनी । अस्याः व्रते कृते पुत्र पापराशिः क्षयं ब्रजेत् ॥
इति श्रुत्वा पितुर्वाक्यं कृतं तेन व्रत्तोत्तमम् । गतं पापं क्षयं तस्य पुण्ययुक्तो बभूव सः ॥
साऽप्येव मञ्जुघोषा च कृत्वा तद्व्रतमुत्तमम् । पिशाचत्वविनिर्मुक्ता पापमोचनिकाव्रतात् ॥
दिव्यरूपधरा साऽपि गता नाकं वराऽप्सरा ।
लोमश उवाच
इत्थंभूतप्रभावं हि पापमोचिनिकाव्रतम् ॥५०॥
पापमोचिनिकां राजन् ये कुर्वन्ति च मानवाः । तेषां पापं च यत् किञ्चित् तत्सर्वं क्षयतां ब्रजेत् ॥
पठनाच्छ्रवणाद्राजन् गोसहस्रफलं लभेत् । ब्रह्महा भ्रूणहा चैव सुरापो गुरुतल्पगः ॥
व्रतस्य चास्या करणात् पापमुक्ता भवन्ति ते । बहुपुण्यप्रदं ह्येतत्करणात् व्रतमुत्तमम् ॥
॥ इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे चैत्रकृष्णपापमोचन्येकादशीव्रतमाहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥
पापमोचनी एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
युधिष्ठिर बोले – फाल्गुन शुक्लपक्ष की आमलकी एकादशी की कथा मैं सुन चुका हूँ। चैत्र कृष्णपक्ष की एकादशी का क्या नाम है। हे कृष्ण! उसकी क्या विधि है और क्या फल है?
श्रीकृष्ण बोले – हे राजेन्द्र ! मैं पापमोचिनी एकादशी का व्रत कहूँगा, उसे सुनो । यही चक्रवर्ती मान्धाता के प्रश्न करने पर लोमश ऋषि ने उनसे कहा,
मान्धाता बोले – हे भगवन् ! मैं लोकों के हित के लिए सुनना चाहता हूँ । चैत्र के कृष्णपक्ष की एकादशी का क्या नाम है, उसकी क्या विधि है ? और क्या फल है ? सो कृपा करके कहिए ।
लोमश ऋषि बोले – चैत्र कृष्णपक्ष की पापमोचिनी एकादशी है। वह पिशाच योनि को दूर करने वाली है । हे राजशार्दूल ! कामना और सिद्धि को देने वाली, पाप को दूर करने वाली, शुभ फल और धर्म को देने वाली विचित्र कथा को सुनिए । प्रचीन समय में वसन्त ऋतु में कुबेर का चैत्ररथ नामक वन फूलों से सुशोभित था। उसमें अप्सराओं का समूह निवास करता था।
वहाँ गन्धर्वों की कन्या किन्नरों के साथ विहार करती थीं । इन्द्रादि देवता भी वहाँ क्रीड़ा करते थे। चैत्ररथ वन से सुन्दर कोई दूसरा वन नहीं था, उस वन में मुनि लोग तपस्या करते थे । देवताओं के साथ इन्द्र भी चैत्र-वैशाख में क्रीड़ा करते थे। वहाँ मेधावी नाम के मुनि भी निवास करते थे ।
एक अप्सरा ने मुनि को मोहित करने का प्रयत्न किया, मंजुघोषा नाम की अप्सरा प्रयत्न सोचने लगी । उनके भय से आश्रम से एक कोस की दूरी पर खड़ी हो गयी । सितार को बजाकर मीठे स्वर से गाने लगी । पुष्प-चन्दन से युक्त गाती हुई उस अप्सरा को देखकर कामदेव ने भी शिवजी के भक्त उन मुनीश्वर को जीतने की इच्छा की ।
शिवजी के वैर को स्मरण करके उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया। अप्सरा की भृकुटियों को धनुष बनाकर कटाक्ष की प्रत्यंचा बनाई। पलक समेत नेत्रों का बाण बनाकर स्तनों को पटकुटी बनाकर विजय के लिए आ गया, मंजुघोषा कामदेव की सेना की तरह थी । मेधावी ऋषि को देखकर वह भी कामदेव से पीड़ित हो गयी, यौवन से सुन्दर शरीर वाले, श्वेत यज्ञोपवीत धारण किये हुए मेधावी ऋषि भी दूसरे कामदेव की तरह शोभित हो रहे थे ।
मेधावी मुनि च्यवन ऋषि के सुन्दर आश्रम में रहते थे। मंजुघोषा मुनीश्वर को देखकर दूर खड़ी हो गयी। कामदेव के वश में होकर मन्द स्वर से गान करने लगी, उसकी चूड़ी, करधनी और नूपुरों को झनकार से वन गूंजने लगा । हावभाव सहित गाती हुई अप्सरा को देखकर मुनीश्वर कामदेव की सेना के वशीभूत हो गये। मंजुघोषा आकर मुनि को कामदेव के वशीभूत देखकर हावभाव कटाक्ष से मोहित करने लगी। वीणा को नीचे रखकर मुनीश्वर को ऐसे आलिंगन करने लगी जैसे वायु से काँपी हुई बेल पेड़ से लिपट जाती है।
उसके सुन्दर शरीर को देखकर वह मुनीश्वर भी उसके साथ वन में रमण करने लगे । मेधावी मुनि शिवतत्त्व को भूलकर कामदेव के वशीभूत हो गये। रमण करने में कामी मुनि को दिशा और दिन-रात का ध्यान नहीं रहा । मुनीश्वर को भोग-विलास में बहुत समय बीत गया, आचार का लोप हो गया। तब मंजुघोषा ने स्वर्गलोक जाने का विचार किया, चलते समय वह रमण करते हुए मुनि से बोली कि मुझे अपने घर जाने के लिए आज्ञा दीजिये।
मेधावी बोले – हे सुन्दर मुख वाली! तू आज संध्या को आई है, प्रातःकाल तक तू मेरे पास निवास कर। मुनि के इस वचन को सुनकर वह डर गई। फिर उन मुनीश्वर के साथ विषय करने लगी। मुनि के शाप के डर से बहुत वर्षों तक रमण करती रही । सत्तावन वर्ष नौ महीना तीन दिन व्यतीत हो गये । परन्तु इतने दिन मुनि को आधी रात के समान प्रतीत हुए। इतना समय बीतने पर अप्सरा मुनि से फिर बोली। हे ब्रह्मन् ! मुझको घर जाने की आज्ञा दीजिए।
मेधावी बोले – अभी तो सवेरा हुआ है, मेरी बात सुनो । जब तक मैं संध्या करूं तब तक तू यहाँ ठहर । मुनि के इस वचन को सुनकर वह डर गई, वह मुस्कराकर विस्मित होकर बोली कि विप्रेन्द्र ! आपकी संध्या का कितना प्रमाण है? वह समाप्त हुई कि नहीं ? मेरे ऊपर कृपा करके गये हुए समय का विचार करिये । अप्सरा के इस वाक्य को सुनकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। ब्राह्मण ने हृदय में ध्यान करके समय का अनुमान कर लिया और बोले –
हे सुन्दरी ! तेरे साथ सत्तावन वर्ष बीत गये। तप को बिगाड़ने वाली अप्सरा को काल के समान देखकर क्रोध से भर कर आँखों से आग की चिनगारियाँ छोड़ने लगे । मन में विचार किया कि दुःख से संचित किया हुआ मेरा तप इसने नष्ट कर दिया । क्रोध से मुनि के होंठ काँपने लगे और व्याकुल होकर बोले : “तू पिशाची हो जा। हे पापिनी! हे कुलटे ! हे पातकप्रिये ! तुझको धिक्कार है।”
मुनि के शाप से दग्ध सुन्दर भृकुटी वाली अप्सरा नम्न होकर मुनि से प्रार्थना करने लगी । हे विप्रेन्द्र ! कृपा करके शाप को शान्त करिये । सञ्जनों का वचन और संग सात कदम चलने पर ही फल देता है। आपके साथ मुझको बहुत से वर्ष बीत गये । इस कारण हे स्वामिन् ! मेरे ऊपर कृपा करिए ॥
मुनि बोले – हे भद्रे ! मैं क्या करूँ? तूने मेरा बड़ा भारी तप नष्ट कर दिया है । तथापि मैं तुझको शाप दूर होने का उपाय बतलाता हूँ, उसे सुन। चैत्र कृष्णपक्ष में सब पापों को नाश करने वाली पापमोचिनी नाम की शुभ एकादशी होती है । हे सुभ्रे ! उसका व्रत करने से पिशाच योनि छूट जाती है। यह कहकर वह मेधावी पिता के आश्रम में चले गये। मेधावी को आया हुआ देखकर च्यवन
ऋषि बोले – हे पुत्र ! तूने यह क्या किया? सब तपस्या को नष्ट कर दिया।
मेधावी बोले – मैंने अप्सरा के साथ रमण किया, यह बड़ा भारी पाप है। अब प्रायश्चित्त बताइये जिससे पाप दूर हो जाये। च्यवन ऋषि बोले चैत्र के कृष्णपक्ष में पोपमोचिनी एकादशी होती है। हे पुत्र। उसका व्रत करने से पापों का समूह नष्ट हो जाता है।
पिता के इस वचन को सुनकर मुनि ने उत्तम व्रत को किया और मुनि का पाप दूर हो गया और धर्मात्मा हो गये । वह मंजुघोषा भी इस व्रत को करके पापमोचिनी के व्रत के प्रभाव से पिशाचयोनि से छूट गई और दिव्य रूप धारण करके वह सुन्दर अप्सरा स्वर्ग को चली गई।
लोमश ऋषि बोले – यह पापमोचिनी एकादशी के व्रत का प्रभाव है। हे राजन् ! जो मनुष्य पापमोचिनी का व्रत करते हैं उनके सब पाप दूर हो जाते हैं। हे राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गौ दान करने से होने वाले पुण्य करने का फल मिलता है। ब्रह्महत्या, गर्भहत्या, मदिरापान, गुरु-स्त्री-गमन आदि। सब पाप इस व्रत के करने से दूर हो जाते हैं, इस व्रत के करने से बहुत पुण्य मिलता है ।
पापमोचनी एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
चैत्र मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम पापमोचनी एकादशी है। कथा के अनुसार कुबेर के चैत्ररथ वन में च्यवन मुनि का आश्रम था जहाँ उनके पुत्र मेधावी मुनि भी तपस्या करते थे। उस वन में विहार करने के लिए इंद्र भी आया करते थे। एक बार उनके साथ आयी अप्सरा मंजुघोषा मेधावी मुनि पर मोहित हो गयी और उन्हें आकर्षित करने का प्रयास करने लगी जिसमें कामदेव ने भी शंकर भगवान से वैर को याद करके उसका साथ दिया।
मेधावी मुनि मंजुघोषा के साथ बहुत समय तक विषयभोग करते रहे तो मंजुघोषा ने वापस स्वर्ग जाने की अनुमति मांगी। इस पर मेधावी मुनि ने कहा कि अभी संध्या को आयी ही हो प्रातः काल तक रूको। श्राप के डर से मंजुघोषा रूकी रही और इसी तरह समय व्यतीत होता रहा। ५७ वर्ष ९ माह ३ दिन बाद पुनः उसने जाने की इच्छा व्यक्त की तो मुनि ने कहा अभी सबेरा हुआ ही है संध्या कर लेने दो। इस पर मंजुघोषा ने कहा आपकी संध्या कितने वर्षों की होगी ?
थोड़ा समय का विचार करें तब मेधावी मुनि ने समय का विचार किया तो बहुत क्रोधित हो गये और तप भंग करने का दोषी मानकर मंजुघोषा को पिशचिनी होने का श्राप दे दिया। पुनः अनुनय विनय करने पर श्रापमुक्ति के लिए चैत्र माह के कृष्णपक्ष की पापमोचनी एकादशी उपदेश करके पिता च्यवन के पास उपस्थित हुये तो उन्हें भी प्रायश्चित्त हेतु पापमोचनी एकादशी व्रत का ही उपदेश मिला। पापमोचनी एकादशी करके दोनों पापमुक्त हो गये। मंजुघोषा पुनः अप्सरा का दिव्य स्वरूप प्राप्त करके स्वर्गलोक चली गयी और मेधावी मुनि तपस्या करने लगे।
- पापमोचनी एकादशी चैत्र मास के कृष्णपक्ष में होती है।
- इस एकादशी के प्रभाव से ब्रह्महत्या, मदिरापान, भ्रूणहत्या आदि पापों का नाश हो जाता है।
- इस कथा को पढ़ने-सुनने से सहस्र गोदान का पुण्य प्राप्त होता है।
- यह एकादशी भी पिशाचत्व, प्रेतत्व का नाश करने वाली है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।