धर्मदत्त ब्राह्मण ने कलहा को बताया कि उसका प्रेत योनि में होना उसके अच्छे कर्मों का फल नहीं मिलने का कारण है। हालांकि, उसने अपने आधे पुण्य का दान करके कलहा को मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया। अभिषेक के बाद कलहा प्रेत योनि से मुक्त होकर देवी बन गई और दिव्य विमान में स्वर्ग पहुंच गई। धर्मदत्त की भक्ति और कार्तिक व्रत ने उसे भी मुक्ति दिलाई। यह कहानी भगवान विष्णु की कृपा, पुण्य, और भक्ति की महिमा को दर्शाती है, जो श्रद्धालुओं को सदगति की ओर ले जाती है। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 20 मूल संस्कृत में
धर्मदत्त उवाच
विलयं यांति पापानि तीर्थदानव्रतादिभिः । प्रेतदेहस्थितायास्ते तेषु नैवाधिकारिता ॥१॥
त्वद्ग्लानिदर्शनादस्मात्खिन्नं च मम मानसम् । नैव निर्वृतिमायाति त्वामनुद्धृत्य दुःखिताम् ॥२॥
पातकं च तवात्युग्रं योनित्रयविपाकदम् । नैवान्यैः क्षीयते पुण्यैः प्रेतत्वं चातिगर्हितम् ॥३॥
तस्मादाजन्मजनितं यन्मया कार्तिकव्रतम् । तत्पुण्यस्यार्द्धभागेन सद्गतिं त्वमवाप्नुहि ॥४॥
कार्तिकव्रतपुण्येन न साम्यं यांति सर्वथा । यज्ञदानानि तीर्थानि व्रतान्यपि यतो ध्रुवम् ॥५॥
नारद उवाच
इत्युक्त्वा धर्मदत्तोऽसौ यावत्तामभ्यषेचयत् । तुलसीमिश्रतोयेन श्रावयन्द्वादशाक्षरम् ॥६॥
तावत्प्रेतत्वनिर्मुक्ता ज्वलदग्निशिखोपमा । दिव्यवपुर्धरा जाता लावण्याद्भासिता दिशः ॥७॥
ततः सा दंडवद्भूमौ प्रणनामाथ तं द्विजम् । उवाच च तदा वाक्यं हर्षगद्गदभाषिणी ॥८॥
कलहोवाच
त्वत्प्रसादाद्दिवजश्रेष्ठ विमुक्ता निरयादहम् । पापाब्धौ मञ्जमानायास्त्वं नो भूतोऽसि मे ध्रुवम् ॥९॥
नारद उवाच
इत्थं सा वदती विप्रं ददर्शायान्तमम्बरात् । विमानं भास्वरं युक्तं विष्णुरूपधरैर्गणैः ॥१०॥
अथ सा तद्विमानाग्र्यद्वास्थाभ्यामधिरोहिता । पुण्यशीलसुशीलाभ्यामप्सरोगणसेवितम् ॥११॥
तद्विमानं तदापश्यद्धर्मदत्तः सविस्मयः । पपात दंडवद्भूमौ दृष्ट्वा तौ पुण्यरूपिणौ ॥१२॥
पुण्यशीलसुशीलौ तमुत्थाप्य प्रणतं द्विजम् । अभ्यनंदयतां वाक्यमूचतुर्द्धर्मशालिनौ ॥१३॥
गणावूचतुः
साधुसाधु द्विजश्रेष्ठ यस्त्वं विष्णुरतः सदा । दीनानुकंपी धर्मज्ञो विष्णुव्रतपरायणः ॥१४॥
आजन्मसच्छुभं ह्येतद्यत्त्वया कार्त्तिकव्रतम् । कृतं तस्यार्द्धदानेन यदस्याः पूर्वसंचितम् ॥१५॥
जन्मांतरशतोद्भूतं पापं तद्विलयं गतम् । स्नानैरेव गतं पापं यदस्याः पूर्वकर्मजं ॥१६॥
हरिजागरणाद्यैश्च विमानमिदमागमत्। वैकुण्ठं नीयते साधो नानाभोगयुता त्वियं ॥१७॥
दीपदानभवैः पुण्यैस्तेजसां रूपमस्थिता। तुलसीपूजनाद्यैश्च कार्तिकव्रतकैः शुभैः ॥१८॥
विष्णुसान्निध्यगा जाता त्वया दत्तैः कृपानिधे। त्वमप्यस्य भवस्यान्ते भार्याभ्यां सह यास्यसि ॥१९॥
वैकुण्ठभवनं विष्णोः सान्निध्यं च स्वरूपतां । ते धन्याः कृतकृत्यास्ते तेषां च सफलो भवः ॥२०॥
यैर्भक्त्याऽराधितो विष्णुर्धर्मदत्तत्वया यथा । सम्यगाराधितो विष्णुः किं न यच्छति देहिनाम् ॥२१॥
औत्तानचरणिर्येन ध्रुवत्वे स्थापितः पुरा । यन्नामस्मरणादेव देहिनो यांति सद्गतिम् ॥२२॥
ग्राहगृहीतो नागेंद्रो यन्नामस्मरणात्पुरा । विमुक्तः सन्निधिं प्राप्तो जातोऽयं जयसंज्ञकः ॥२३॥
अतस्त्वयार्चितो विष्णुः स्वसान्निध्यं प्रदास्यति । बहून्यब्दसहस्राणि भार्याद्वययुतस्य ते ॥२४॥
ततः पुण्यक्षये जाते यदा यास्यसि भूतले । सूर्यवंशोद्भवो राजा विख्यातस्त्वं भविष्यसि ॥२५॥
नाम्ना दशरथस्तत्र भार्याद्वययुतः पुनः । तृतीयं याऽनया चापि याते पुण्यार्द्धभागिनी ॥२६॥
तत्रापि तव सान्निध्यं विष्णुर्यास्यति भूतले । आत्मानं तव पुत्रत्वे प्रकल्प्यामरकार्यकृत् ॥२७॥
तवाजन्मव्रतादस्माद्विष्णुसंतुष्टिकारकात् । न यज्ञा न च दानानि न तीर्थान्यधिकानि ते ॥२८॥
धन्योऽसि विप्राग्रयतस्त्वयैतद्व्रतं कृतं तुष्टिकरं जगद्गुरोः ।
यदर्धभागाच्च फलान्मुरारेः प्रणीयतेऽस्माभिरियं सलोकताम् ॥२९॥
॥ इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे कलहोपाख्यानंनाम विंशोऽध्यायः ॥
कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 20 हिन्दी में
(कलहा के प्रति धर्मदत्त ब्राह्मण का कथन) तीर्थ में दान और व्रत आदि सत्कर्म करने से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं, परन्तु तू तो प्रेत के शरीर में है, अत: उन कर्मों को करने की अधिकारिणी नहीं है। इसलिए मैंने जन्म से लेकर अब तक जो कार्तिक का व्रत किया है, उसके पुण्य का आधा भाग मैं तुझे देता हूँ, तू उसी से सदगति को प्राप्त हो जा।
इस प्रकार कहकर धर्मदत्त ने द्वादशाक्षर मंत्र का श्रवण कराते हुए तुलसी मिश्रित जल से ज्यों ही उसका अभिषेक किया, त्यों ही वह प्रेत योनि से मुक्त हो, प्रज्वलित अग्निशिखा के समान तेजस्विनी एवं दिव्यरूप धारण करके देवी के समान देदीप्यमान हो गई और सौन्दर्य में लक्ष्मी जी की समानता करने लगी।
तदन्तर उसने भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर ब्राह्मण देवता (धर्मदत्त) को प्रणाम किया और हर्षित होकर गदगद वाणी में कहने लगी – हे द्विजश्रेष्ठ! आपके प्रसाद से आज मैं इस नरक (कष्ट) से छुटकारा पा गई। मैं तो पाप के समुद्र में डूब रही थी और आप मेरे लिए नौका के समान हो गये।
इस प्रकार कलहा ब्राह्मण से कह ही रही थी कि आकाश से एक दिव्य विमान उतरता दिखाई दिया। वह अत्यन्त प्रकाशमान एवं विष्णुरूपधारी पार्षदों से युक्त था। विमान के द्वार पर खड़े हुए पुण्यशील और सुशील ने उस देवी को उठाकर श्रेष्ठ विमान पर चढ़ा लिया। तब धर्मदत्त ने बड़े आश्चर्य के साथ उस विमान को देखा और विष्णुरूपधारी पार्षदों को देखकर साष्टांग प्रणाम किया।
पुण्यशील और सुशील ने प्रणाम करने वाले ब्राह्मण को उठाया और उसकी सराहना करते हुए कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें साधुवाद है, क्योंकि तुम सदैव भगवान विष्णु के भजन में तत्पर रहते हो, दीनों पर दया करते हो, सर्वज्ञ हो तथा भगवान विष्णु के व्रत का पालन करते हो। आपने बाल्यकाल से लेकर अब तक जो कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उसके आधे भाग का दान देने से आपको दूना पुण्य प्राप्त हुआ है और सैकड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो गये हैं, इसके (कलहा) भी सैकड़ों जन्म के पाप नष्ट हो गये हैं।
- स्नानमात्र के पुण्य से ही इसके पूर्वजन्मार्जित पाप नष्ट हो गये,
- हरिजागरण के पुण्यप्रभाव के कारण आकाशमण्डल से यह दिव्य विमान आया है, और अब यह हमलोगों के साथ दिव्यभोगों से युक्त वैकुण्ठधाम में जायेगी।
- दीपदान के पुण्य से यह दिव्य तेजस्विनी हो गई,
- तुलसी-पूजा व कार्तिक व्रत के प्रभाव से अब यह वैकुण्ठ लोक में भगवान का सान्निध्य प्राप्त करेगी।
तुम भी इस जन्म के अन्त में अपनी दोनों स्त्रियों के साथ भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में जाओगे और मुक्ति प्राप्त करोगे। हे धर्मदत्त! जिन्होंने तुम्हारे समान भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु की आराधना की है, वे धन्य और कृतकृत्य हैं। इस संसार में उन्हीं का जन्म सफल है। भली-भांति आराधना करने पर भगवान विष्णु देहधारी प्राणियों को क्या नहीं देते हैं? उन्होंने ही उत्तानपाद के पुत्र को पूर्वकाल में ध्रुवपद पर स्थापित किया था। उनके नामों का स्मरण करने मात्र से समस्त जीव सदगति को प्राप्त होते हैं। पूर्वकाल में ग्राहग्रस्त गजराज उन्हीं के नामों का स्मरण करने से मुक्त हुआ था।

आपने भी उन्हीं विष्णु भगवान की सेवा की है, अतः आप भी अपनी दोनों पत्नियों के साथ सहस्रों वर्ष तक भगवान विष्णु के समीप निवास करेंगे। पुण्य क्षीण होने पर आप पुनः सूर्यवंश में प्रसिद्ध राजा बनेंगे, दोनों पत्नियों के साथ आप दशरथ नाम से विख्यात राजा होंगे और आधे पुण्य की भागिनी यह आपकी तीसरी पत्नी होगी। भूमण्डल पर भी पुत्र रूप में भगवान विष्णु आपके निकट रहेंगे और देवताओं का कार्य करेंगे।
तुमने जन्म से लेकर जो भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उससे बढ़कर न यज्ञ है, न दान और न ही तीर्थ है। विप्रवर! तुम धन्य हो क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला कार्तिक व्रत किया है, जिसके आधे भाग के फल को पाकर यह स्त्री हमारे साथ भगवान लोक में जा रही है।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 20 भावार्थ/सारांश
तीर्थ में दान और व्रत आदि सत्कर्म करने से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं, परन्तु तू तो प्रेत के शरीर में है, अत: उन कर्मों को करने की अधिकारिणी नहीं है। इसलिए मैंने जन्म से लेकर अब तक जो कार्तिक का व्रत किया है, उसके पुण्य का आधा भाग मैं तुझे देता हूँ, तू उसी से सदगति को प्राप्त हो जा। इस प्रकार कहकर धर्मदत्त ने तुलसी मिश्रित जल से उसका अभिषेक किया, त्यों ही वह प्रेत योनि से मुक्त हो गई और देवी के समान देदीप्यमान हो गई। उसने भूमि पर गिरकर धर्मदत्त को प्रणाम किया और हर्षित होकर कहा –
हे द्विजश्रेष्ठ! आपके प्रसाद से आज मैं इस नरक से छुटकारा पा गई। मेरे जीवन के इस कठिन क्षण में, आपने मुझे नई आशा दी है। इसी बीच आकाश से एक दिव्य विमान उतरता दिखाई दिया। विमान के द्वार पर खड़े पुण्यशील और सुशील ने उस देवी को उठाकर विमान पर चढ़ा लिया। धर्मदत्त ने आश्चर्य से विमान को देखा और पार्षदों को देखकर प्रणाम किया।
पुण्यशील और सुशील ने कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें साधुवाद है, क्योंकि तुम सदैव भगवान विष्णु के भजन में तत्पर रहते हो और दीनों पर दया करते हो। आपने जो कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उसके आधे भाग का दान देने से आपको दूना पुण्य प्राप्त हुआ है और सैकड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो गये हैं। इसके (कलहा) भी सैकड़ों जन्म के पाप समाप्त हो गये हैं, और अब यह दिव्य विमान के साथ वैकुण्ठधाम में जायेगी। तुम भी इस जन्म के अन्त में अपनी दोनों स्त्रियों के साथ भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में जाओगे और मुक्ति प्राप्त करोगे।
हे धर्मदत्त! जिन्होंने तुम्हारे समान भगवान विष्णु की आराधना की है, वे धन्य हैं। भली-भांति आराधना करने पर भगवान विष्णु देहधारी प्राणियों को क्या नहीं देते हैं? तुमने जो कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उससे बढ़कर न यज्ञ है, न दान और न ही तीर्थ है। विप्रवर! तुम धन्य हो क्योंकि तुमने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला कार्तिक व्रत किया है, जिससे यह स्त्री हमारे साथ भगवान लोक में जा रही है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।