एक बार एक ब्राह्मण धर्मदत्त ने कार्तिक महीने में विष्णु की पूजा करने का सोचा। उसे रास्ते में एक भयंकर राक्षसी मिली, जो पहले एक बुरी पत्नी थी। ब्राह्मण ने उसे तुलसी के जल से शांत किया, और राक्षसी ने अपनी दास्तान सुनाई। उसने बताया कि कैसे अपने दुष्कर्मों की सजा भोगते हुए वह राक्षसी बनी। अब, वह मुक्ति चाहती थी। धर्मदत्त उसके भयानक अतीत को सुनकर दुखी हुए। राक्षसी की कहानी ये बताती है कि हमारे कर्म का फल कैसे हमें प्रभावित करता है और हमें अपने कृत्यों पर ध्यान देना चाहिए। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 19 मूल संस्कृत में
पृथुरुवाच
सेतिहासमिमं ब्रह्मन्माहात्म्यं कथितं त्वया । अत्याश्चर्यकरं सम्यक्तुलस्यास्तु श्रुतं महत् ॥१॥
यदूर्जव्रतिनः पुंसः फलं महदुदाहृतम् । तत्पुनर्ब्रूहि माहात्म्यं केन चीर्णमिदं कथम् ॥२॥
नारद उवाच
आसीत्सह्याद्रिविषये करवीरपुरे पुरा । ब्राह्मणो धर्मवित्कश्चिद्धर्मदत्तोऽतिविश्रुतः ॥३॥
विष्णुव्रतकरः शश्वद्विष्णुपूजारतः सदा । द्वादशाक्षरविद्यायां जपनिष्ठोऽतिथिप्रियः ॥४॥
कदाचित्कार्तिके मासि हरिजागरणाय सः । रात्र्यां तुर्यांशशेषायां जगाम हरिमंदिरम् ॥५॥
हरिपूजोपकरणान्प्रगृह्य व्रजता तदा । तेन दृष्टा समायाता राक्षसी भीमदर्शना ॥६॥
वक्रदंष्ट्रानना जिह्वा निमग्ना रक्तलोचना । दिगंबरा शुष्कमांसा लंबोष्ठी घर्घरस्वना ॥७॥
तां दृष्ट्वा भयवित्रस्तः कंपितावयवस्तदा । पूजोपकरणैर्वेगात्पयोभिश्चाहनद्भयात् ॥८॥
संस्मृत्य च हरेर्नाम तुलसीयुतवारिणा । सा हता पातकं तस्मात्तस्याः सर्वमगात्क्षयम् ॥९॥
अथ संस्मृत्य सा पूर्वजन्मकर्मविपाकजम् । स्वां दशामब्रवीत्सर्वां दंडवत्तं प्रणम्य सा ॥१०॥
कलहोवाच
पूर्वकर्मविपाकेन दशामेतां गता ह्यहम् । तत्कथं तु पुनर्विप्र याम्युत्तमगतिं शुभाम् ॥११॥
नारद उवाच
तां दृष्ट्वा प्रणतामग्रे वदमानां स्वकर्म तत् । अतीव विस्मितो विप्रस्तदा वचनमब्रवीत् ॥१२॥
धर्मदत्त उवाच
केन कर्मविपाकेन त्वं दशामीदृशीं गता । कुतस्त्वं का च किं शीला तत्सर्वं कथयस्व मे ॥१३॥
कलहोवाच
सौराष्ट्रनगरे ब्रह्मन्भिक्षुनामाभवद्द्विजः । तस्याऽहं गृहिणी पूर्वं कलहाख्याऽति निष्ठुरा ॥१४॥
न कदाचिन्मया भर्तुर्वचसापि शुभं कृतम् । नार्पितं तस्य मिष्टान्नं भर्तुर्वचनभंगया ॥१५॥
कलहप्रियया नित्यं भयोद्विग्नस्तदा द्विजः । परिणेतुं तदाऽन्या स मतिं चक्रे पतिर्मम ॥१६॥
ततो गरं समादाय प्राणास्त्यक्ता मया द्विज । अथ बध्वा वध्यमानां मां विनिन्युर्यमानुगाः ॥१७॥
यमश्च मां तदा दृष्ट्वा चित्रगुप्तमपृच्छत । यम उवाच अनया किं कृतं कर्म चित्रगुप्त विलोकय ॥१८॥
प्राप्नोत्वेषा कर्मफलं शुभं वाशुभमेव च । चित्रगुप्तस्ततो वाक्यं भर्त्सयन्समुवाच ह ॥१९॥
कलहोवाच
चित्रगुप्तस्तदा वाक्यं भर्त्सयन्मामुवाच सः।
चित्रगुप्त उवाच
अनया तु शुभं कर्म कृतं किंचिन्न विद्यते । मिष्टान्नं भुक्तमनया न भर्तरि तदर्पितम् ॥२०॥
अतश्च वल्गुली योन्यां स्वविष्ठादावतिष्ठतु । भर्तुर्द्वेषकरी त्वेषा नित्यं कलहकारिणी ॥२१॥
विष्ठादां शूकरी योन्यां ततस्तिष्ठत्वियं हरे । पाकभांडे सदा भुक्तं नित्यं चैवानया यतः ॥२२॥
तस्माद्दोषाद्बिडाली तु स्वजातापत्यभक्षिणी । भर्तारमनयोद्दिश्य ह्यात्मघातः कृतो यतः ॥२३॥
तस्मात्प्रेतपिशाचेषु तिष्ठत्वेषाऽतिनिंदिता । ततश्चैव मरुं देशं प्रापितव्या भटैः सह ॥२४॥
तत्र प्रेतशरीराख्या चिरं तिष्ठत्वियं ततः । इत्थं योनित्रयं त्वेषा भुनक्त्वा शुभकारिणी ॥२५॥
कलहोवाच
साहं पंचशताब्दानि प्रेतदेहे स्थिता किल । क्षुतृड्भ्यां पीडिता नित्यं दुःखिता स्वेन कर्मणा ॥२६॥
ततः क्षुत्पीडिता नित्यं शरीरं वणिजस्त्वहम् । आयाता दक्षिणं देशं कृष्णावेण्यास्तु संगमे ॥२७॥
तत्तीरसंश्रिता यावत्तावत्तस्याः शरीरतः । शिवविष्णुगणैर्दूरमपाकृष्टा बलादहम् ॥२८॥
ततः क्षुत्क्षामया दृष्टो भ्रमंत्या त्वं मया द्विज । प्रक्षिप्ततुलसीवारिसंसर्गगतपापया ॥२९॥
तत्कृपां कुरु विप्रेंद्र कथं मुक्तिमियाम्यहम् । योनित्रयादति भयादस्माच्च प्रेतदेहतः ॥३०॥
इत्थं निशम्य कलहा वचनं द्विजश्च तत्कर्मपाकभवविस्मयदुःखयुक्तः ।
तद्ग्लानिदर्शनकृपाचलचित्तवृत्तिर्ध्यात्वा चिरं स वचनं निजगाद दुःखात् ॥३१॥
॥ इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे कलहोपाख्यानंनाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥
कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 19 हिन्दी में
राजा पृथु बोले – हे मुनिश्रेष्ठ! आपने तुलसी के इतिहास, व्रत, माहात्म्य के विषय में कहा। अब आप कृपाकर मुझे यह बताइए कि कार्तिक मास का फल और माहात्म्य विस्तारपूर्वक सुनायें और इस उत्तम व्रत को किसने किया था यह भी बतायें।
नारद जी बोले – पूर्व काल की बात है। सह्य पर्वत पर करवीकर में धर्मदत्त नामक विख्यात कोई धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे। एक दिन कार्तिक मास में भगवान विष्णु के समीप जागरण करने के लिए वे भगवान के मंदिर की ओर चले। उस समय एक पहर रात बाकी थी। भगवान के पूजन की सामग्री साथ लिए जाते हुए ब्राह्मण ने मार्ग में देखा कि एक भयंकर राक्षसी आ रही है।
उसका शरीर नंगा और मांस रहित था। उसके बड़े-बड़े दांत, लपकती हुई जीभ और लाल नेत्र देखकर ब्राह्मण भय से थर्रा उठे। उनका सारा शरीर कांपने लगा। उन्होंने साहस करके पूजा की सामग्री तथा जल से ही उस राक्षसी के ऊपर प्रहार किया। उन्होंने हरिनाम का स्मरण करके तुलसीदल मिश्रित जल से उसको मारा था, इसलिए उस राक्षसी का सारा पातक नष्ट हो गया।
अब उसे अपने पूर्व जन्म के कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुई दुर्दशा का स्मरण हो आया। उसने ब्राह्मण को दण्डवत प्रणाम करके इस प्रकार कहा – ब्रह्मन्! मैं पूर्व जन्म के कर्मों के फल से इस दशा को पहुंची हूँ। अब मुझे किस प्रकार उत्तम गति प्राप्त होगी? धर्मदत्त ने उसे इस प्रकार प्रणाम करते देखकर आश्चर्यचकित होते हुए पूछा – किस कर्म के फल से तुम इस दशा को पहुंची हो? कहाँ की रहने वाली हो? तुम्हारा नाम क्या है और आचार-व्यवहार कैसा है? ये सारी बातें मुझे बताओ। फिर उस राक्षसी ने बताया कि उसका नाम कलहा था।
कलहा बोली – ब्रह्मन्! मेरे पूर्व जन्म की बात है, सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नामक एक ब्राह्मण रहते थे, मैं उनकी पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था और मैं बड़े क्रूर स्वभाव की स्त्री थी। मैंने कभी वचन से भी अपने पति का भला नहीं किया, उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा। सदा अपने स्वामी से छल ही करती रही।
मुझे कलह विशेष प्रिय था, इसलिए मेरे पति का मन मुझसे सदा उद्विग्न रहा करता था। अन्ततोगत्वा उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करने का निश्चय कर लिया तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिए, फिर यमराज के दूत आए और मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोक में ले गए।
वहाँ यमराज ने मुझे देखकर चित्रगुप्त से पूछा – चित्रगुप्त! देखो तो सही इसने कैसा कर्म किया है? जैसा इसका कर्म हो, उसके अनुसार यह शुभ या अशुभ प्राप्त करे।
चित्रगुप्त ने कहा – इसका किया हुआ कोई भी शुभ कर्म नहीं है। यह स्वयं मिठाइयाँ खाती थी और अपने स्वामी को उसमें से कुछ भी नहीं देती थी। इसने सदा अपने स्वामी से द्वेष किया है, इसलिए यह चमगादुरी होकर रहे तथा सदा कलह में ही इसकी प्रवृत्ति रही है, इसलिए यह विष्ठाभोजी सूकरी की योनि में रहे।
जिस बर्तन में भोजन बनाया जाता है, उसी में यह सदा अकेली खाया करती थी। अतः उसके दोष से यह अपनी ही संतान का भक्षण करने वाली बिल्ली हो। इसने अपने पति को निमित्त बनाकर आत्मघात किया है, इसलिए यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री प्रेत के शरीर में भी कुछ काल तक अकेली ही रहे। इसे यमदूतों द्वारा निर्जल प्रदेश में भेज दिया जाना चाहिए, वहाँ दीर्घकाल तक यह प्रेत के शरीर में निवास करे।
उसके बाद यह पापिनी शेष तीन योनियों का भी उपभोग करेगी। कलहा ने कहा विप्रवर! मैं वही पापिनी कलहा हूँ। इस प्रेत शरीर में आए मुझे पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं। मैं सदैव भूख-प्यास से पीड़ित रहा करती हूँ। एक बनिये के शरीर में प्रवेश करके मैं इस दक्षिण देश में कृष्णा और वेणी के संगम तक आई हूँ।
ज्यों ही संगम तट पर पहुंची, त्यों ही भगवान शिव और विष्णु के पार्षदों ने मुझे बलपूर्वक बनिये के शरीर से दूर भगा दिया, तब से मैं भूख का कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही हूँ।

इतने में ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ गई। आपके हाथ से तुलसी मिश्रित जल का संसर्ग पाकर मेरे सब पाप नष्ट हो गए हैं। द्विजश्रेष्ठ! अब आप ही कोई उपाय कीजिए। बताइए, मेरे इस शरीर से और भविष्य में होने वाली भयंकर तीन योनियों से किस प्रकार मुक्त होऊँगी? कलहा का यह वचन सुनकर धर्मदत्त उसके पिछले कर्मों और वर्तमान अवस्था को देखकर बहुत दुखी हुआ, फिर उसने बहुत सोच-विचार करने के बाद दुःखी भाव से कहने लगा।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 19 भावार्थ/सारांश
नारद जी बोले – पूर्व काल की बात है। सह्य पर्वत पर धर्मदत्त नामक एक धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे। एक दिन कार्तिक मास में भगवान विष्णु के समीप जागरण करने के लिए वे भगवान के मंदिर की ओर चले। मार्ग में एक भयंकर राक्षसी आई। उसके बड़े दांत और लाल नेत्र देखकर ब्राह्मण भय से थर्रा उठे। उन्होंने पूजा की सामग्री से उस राक्षसी पर प्रहार किया। हरिनाम का स्मरण करके तुलसीदल मिश्रित जल से उसे मारा, इसलिए उसका सारा पातक नष्ट हो गया। राक्षसी ने ब्राह्मण को प्रणाम कर कहा – ब्रह्मन्! मैं पूर्व जन्म के कर्मों के फल से इस दशा को पहुंची हूँ।
धर्मदत्त ने पूछा – किस कर्म के फल से तुम इस दशा को पहुंची हो? राक्षसी ने बताया कि उसका नाम कलहा था और वह सौराष्ट्र नगर में भिक्षु नामक एक ब्राह्मण की पत्नी थी। कलहा ने अपने पति का कभी भला नहीं किया, अंत में उसने विष खाकर आत्मघात किया। यमराज ने कहा कि इसे प्रेत रूप में रहना पड़ेगा।
कलहा ने कहा – “मैं वही पापिनी कलहा हूँ। इस प्रेत शरीर में आए मुझे पाँच सौ वर्ष बीत चुके हैं। आपके हाथ से तुलसी मिश्रित जल का संसर्ग पाकर मेरे सब पाप नष्ट हो गए हैं। द्विजश्रेष्ठ, बताइए, मैं किस प्रकार मुक्त होऊँगी?”
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।