कार्तिक माहात्म्य अध्याय 21 मूल संस्कृत में, अर्थ हिन्दी में

कार्तिक माहात्म्य - एकविंशोऽध्यायः, कार्तिक माहात्म्य अध्याय 21

धर्मदत्त ये जानना चाहता है कि भगवान विष्णु को खुश करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है। विष्णुपार्षद एक राजा चोल और ब्राह्मण विष्णुदास की कथा सुनाते हैं। राजा पूरे धन के साथ भगवान की पूजा करता है, जबकि विष्णुदास तुलसी और साधारण चीजों से पूजा करता है। राजा और ब्राह्मण में पूजा करने को लेकर विवाद हो जाता और दोनों में यह शर्त लग जाती है कि जिसकी भक्ति सच्ची होगी उसे भगवान विष्णु पहले दर्शन देंगे। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।

कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 21 हिन्दी में

नारद जी बोले – इस प्रकार विष्णु पार्षदों के वचन सुनकर धर्मदत्त ने कहा –

प्रायः सभी मनुष्य भक्तों का कष्ट दूर करने वाले श्रीविष्णु की यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थसेवन तथा तपस्याओं के द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं। उन समस्त साधनों में कौन-सा ऐसा साधन है जो भगवान विष्णु की प्रसन्नता को बढ़ाने वाला तथा उनके सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।

दोनों पार्षद अपने पूर्वजन्म की कथा कहने लगे – हे द्विजश्रेष्ठ! आपका प्रश्न बड़ा श्रेष्ठ है। आज हम आपको भगवान विष्णु को शीघ्र प्रसन्न करने का उपाय बताते हैं। हम इतिहास सहित प्राचीन वृत्तान्त सुनाते हैं, सावधानीपूर्वक सुनो।

ब्रह्मन! पहले कांचीपुरी में चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये थे। उन्हीं के नाम पर उनके अधीन रहने वाले सभी देश चोल नाम से विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डल का शासन करते थे, उस समय उनके राज्य में कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुःखी, पाप में मन लगाने वाला अथवा रोगी नहीं था।

एक समय की बात है, राजा चोल अनन्तशयन नामक तीर्थ में गये जहाँ जगदीश्वर भगवान विष्णु ने योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन किया था। वहाँ भगवान विष्णु के दिव्य विग्रह की राजा ने विधिपूर्वक पूजा की। दिव्य मणि, मुक्ताफल तथा सुवर्ण के बने हुए सुन्दर पुष्पों से पूजन करके साष्टांग प्रणाम किया।

प्रणाम करके ज्यों ही बैठे, उसी समय उनकी दृष्टि भगवान के पास आते हुए एक ब्राह्मण पर पड़ी जो उन्हीं की कांची नगरी के निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। उन्होंने भगवान की पूजा के लिए अपने हाथ में तुलसी दल और जल ले रखा था। निकट आने पर उन ब्राह्मण ने विष्णुसूक्त का पाठ करते हुए देवाधिदेव भगवान को स्नान कराया और तुलसी की मंजरी तथा पत्तों से उनकी विधिवत पूजा की।

राजा चोल ने जो पहले रत्नों से भगवान की पूजा की थी, वह सब तुलसी पूजा से ढक गई। यह देखकर राजा कुपित होकर बोले- विष्णुदास! मैंने मणियों तथा सुवर्ण से भगवान की जो पूजा की थी, वह कितनी शोभा पा रही थी, तुमने तुलसी दल चढ़ाकर उसे ढक दिया। बताओ, ऐसा क्यों किया? मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम दरिद्र और गंवार हो। भगवान विष्णु की भक्ति को बिल्कुल नहीं जानते।

राजा की यह बात सुनकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास ने कहा – राजन! आपको भक्ति का कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मी के कारण आप घमण्ड कर रहे हैं। बतलाइए तो आज से पहले आपने कितने वैष्णव व्रतों का पालन किया है?

तब नृपश्रेष्ठ चोल ने हंसते हुए कहा – तुम तो दरिद्र और निर्धन हो, तुम्हारी भगवान विष्णु में भक्ति ही कितनी है? तुमने भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाला कोई भी यज्ञ और दान आदि नहीं किया और न पहले कभी कोई देवमन्दिर ही बनवाया है। इतने पर भी तुम्हें अपनी भक्ति का इतना गर्व है। अच्छा तो ये सभी ब्राह्मण मेरी बात सुन लें। भगवान विष्णु के दर्शन पहले मैं करता हूँ या यह ब्राह्मण? इस बात को आप सब लोग देखें, फिर हम दोनों में से किसकी भक्ति कैसी है, यह सब लोग स्वतः ही जान लेंगे। ऐसा कहकर राजा अपने राजभवन को चले गये।

राजा चोल और विष्णुदास की कथा

वहाँ उन्होंने महर्षि मुद्गल को आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञ प्रारम्भ किया। उधर सदैव भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाले शास्त्रोक्त नियमों में तत्पर विष्णुदास भी व्रत का पालन करते हुए वहीं भगवान विष्णु के मन्दिर में टिक गये।

उन्होंने माघ और कार्तिक के उत्तम व्रत का अनुष्ठान, तुलसीवन की रक्षा, एकादशी को द्वादशाक्षर मन्त्र का जाप, नृत्य, गीत आदि मंगलमय आयोजनों के साथ प्रतिदिन षोडशोपचार से भगवान विष्णु की पूजा आदि नियमों का आचरण किया। वे प्रतिदिन चलते, फिरते और सोते, हर समय भगवान विष्णु का स्मरण किया करते थे। उनकी दृष्टि सर्वत्र सम हो गई थी। वे सब प्राणियों के भीतर एकमात्र भगवान विष्णु को ही स्थित देखते थे।

इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान लक्ष्मीपति की आराधना में संलग्न थे। दोनों ही अपने-अपने व्रत में स्थित रहते थे और दोनों की ही सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तथा समस्त कर्म भगवान विष्णु को समर्पित हो चुके थे। इस अवस्था में उन दोनों ने दीर्घकाल व्यतीत किया।

कार्तिक माहात्म्य अध्याय 21 भावार्थ/सारांश

विष्णु पार्षदों के वचन सुनकर धर्मदत्त ने कहा – सभी मनुष्य भक्तों का कष्ट दूर करने वाले श्रीविष्णु की विधिपूर्वक आराधना करते हैं। इनमें कौन-सा साधन भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला है, यह जानने के लिए पार्षदों ने पूर्वजन्म की कथा सुनाने लगे। उन्होंने बताया कि कांचीपुरी में चोल नामक एक राजा हुए थे, जिनके शासन में कोई दरिद्र या दुःखी नहीं था।

राजा चोल ने अनन्तशयन तीर्थ में भगवान विष्णु की पूजा की, लेकिन एक ब्राह्मण विष्णुदास ने तुलसी से पूजा किया जिस कारण राजा को अपमानित होने का भाव हुआ। राजा ने विष्णुदास की भक्ति को साधारण बताया और यह संकल्प लिया कि पहले भगवान के दर्शन वह करेंगे। राजा ने वैष्णव यज्ञ प्रारम्भ किया, जबकि विष्णुदास ने भगवान की भक्ति में व्रत का पालन किया। दोनों ही भगवान विष्णु की आराधना में लगे रहे और अपनी-अपनी भक्ति से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते रहे।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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