श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को वैशाख शुक्लपक्ष की एकादशी का महत्व बताया, जिसे मोहिनी एकादशी कहा जाता है। मोहिनी एकादशी का व्रत ऐसा है जो हर पाप का मिटा देता है। युधिष्टिर ने श्री कृष्ण से इसकी महिमा पूछी और उन्होंने राम और वशिष्ठ की कथा सुनाई। धृष्टबुद्धि जैसे पापी भी इस व्रत के प्रभाव से अपने पापों से छुटकारा पा सकते हैं तो सामान्य मनुष्यों की बात ही क्या है। यह व्रत केवल एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य के लिए मोक्ष का रास्ता है। इसके कथा कथन-श्रवण से भी सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है।
सर्वप्रथम मोहिनी (वैशाख शुक्ल पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Mohini ekadashi vrat katha
मोहिनी एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
युधिष्ठिर उवाच
वैशाखशुक्लपक्षे तु किं नामैकादशी भवेत् । किं फलं को विधिस्तस्य कथयस्व जनार्दन ॥१॥
श्रीकृष्ण उवाच
कथयामि कथामेतां शृणु त्वं धर्मनन्दन । वसिष्ठो यामकथयत्परा रामाय पृच्छते ॥
श्रीराम उवाच
भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि व्रतानामुत्तमं व्रतम् । सर्वपापक्षयकरं सर्वदुःखनिकृन्तनम् ॥
मया दुःखानि भुक्तानि सीताविरहजानि वै । ततो भीतोऽस्मि विप्रर्षे पृच्छामि त्वां महामुने ॥
वसिष्ठ उवाच
साधु पृष्टं त्वया राम तवैषा नैष्ठिकी मतिः । त्वन्नामग्रहणेनैव पूतो भवति मानवः ॥५॥
तथापि कथयिष्यामि लोकानां हितकाम्यया । पवित्रं पावनानां च व्रतानामुत्तम व्रतम् ॥
वैशाखस्य सिते पक्षे द्वादशी राम या भवेत् । मोहिनी नाम सा प्रोक्ता सर्वपापहरा स्मृता ॥
मोहजालात् प्रमुच्येत पातकानां समूहतः । अस्याः व्रतप्रभावेण सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥
अतस्तु कारणाद्राम कर्तव्यैषा भवादृशैः । पातकानां क्षयकरी महादुःखविनाशिनी ॥
शृणुष्वैकमना राम कथां पुण्यप्रदां शुभाम् । यस्याः श्रवणमात्रेण महापापं प्रणस्यति ॥१०॥
सरस्वत्यास्तटे रम्ये पुरी भद्रावती शुभा । द्युतिमान्नाम नृपतिस्तत्र राज्यं करोति वै ॥
सोमवंशोद्भवो राम धृतिमान् सत्यसङ्गरः । तत्र निवसति भूपालो धनधान्यसमृद्धिमान् ॥
धनपाल इति ख्यातः पुण्यकर्मपरायणः । प्रपावेत्राद्यायतन तडागारामकारकः ॥
विष्णुभक्तिपरः शान्तस्तस्यासन् पञ्च पुत्रकाः । सुमनोद्युतिमांश्चैव मेधावी सुकृतस्तथा ॥
पञ्चमो धृष्टबुद्धिश्च महापापरतः सदा । वारस्त्रीसङ्ङ्गनिरतो विटगोष्ठीविशारदः ॥१५॥
द्यूतादिव्यसनासक्तः परस्त्रीरतिलालसः । न देवांश्चातिथीन् वृद्धान् पितॄश्चार्चेद्विजानपि ॥
अन्यायकर्त्ता दुष्टात्मा पितुर्द्रव्यक्षयंकरः । अभक्ष्यभक्षकः पापः सुरापानरतः सदा ॥
वेश्याकण्ठे क्षिप्तबाहुर्भमन्दृष्टश्चतुष्पथे । पित्रा निष्कासितो गेहात् परित्यक्तश्च बान्धवैः ॥
स्वदेहभूषणान्येव क्षयं नीतानि तेन वै। गणिकाभिः परित्यक्तो निन्दितश्च धनक्षयात् ॥
ततश्चिन्ता परो जातो वस्त्रहीनः क्षुधार्दितः । किं करोमि क्व गच्छामि केनोपायेन जीव्यते ॥२०॥
तस्करत्वं समारब्धं तत्रैव नगरे पुनः । गृहीतो राजपुरुषैर्मुक्तश्च पितृगौरवात् ॥
पुनर्बद्धः पुनर्मुक्तः पुनर्मुक्तः ससम्भ्रमः । धृष्टबुद्धिर्दुराचारी निबद्धो निगडैर्दृढैः ॥
कशाघातैस्ताडितश्च पीडितश्च पुनः पुनः । न स्थातव्यं हि मन्दात्मन् त्वा मद्देशगोचरे ॥
एवमुक्तस्ततो राज्ञा मोचितो दृढबन्धनात् । निर्जगाम भयात्तस्य गतोऽसौ गहनं वनम् ॥
क्षुत्तृषापीडितश्चायमितश्चेतश्च धावति । सिंहवन्निजघानाऽसौ मृगशूकरचित्तलान् ॥२५॥
आमिषाहारनिरतो वने तिष्ठति सर्वदा । करे शरासनं कृत्वा निषङ्ङ्ग पृष्ठसङ्ङ्गतम् ॥
अरण्यचारिणो हन्ति पक्षिणश्च चतुष्पदान् । चकोरांश्च मयूरांश्च कंकांस्तित्तिरमूषकान् ॥
एतानन्यान् हन्ति नित्यं धृष्टबुद्धिः स निघृणः । पूर्वजन्मकृतैः पापैर्निमग्नः पापकर्दमे ॥
दुःखशोक समाविष्टश्चिन्तयन् सोऽप्यहर्निशम् । कौण्डिन्यस्याश्रमपदं प्राप्तः पुण्यवशात् क्वचित् ॥
माधवे मासि जाह्नव्यां कृतस्नानं तपोधनम् । आससाद धृष्टबुद्धिः शोकभारेण पीडितः ॥३०॥
तद्वस्त्रबिन्दुस्पर्शेन गतपाप्माहताशुभः । कौण्डिन्यस्याग्रतः स्थित्वा प्रत्युवाच कृताञ्जलिः ॥
धृष्टबुद्धिरुवाच
प्रायश्चित्तं वद ब्रह्मन् विना यत्नेन यद्भवेत् । आजन्मकृतपापस्य नास्ति वित्तं ममाधुना ॥
ऋषिरुवाच
शृणुष्वैकमना भूत्वा येन पापक्षयस्तव । वैशाखस्य सिते पक्षे मोहिनी नाम नामतः ॥
एकादशी व्रतं तस्मात् कुरुष्व मद्वचोदितः । मेरुतुल्यानि पापानि क्षयं नयति देहिनाम् ॥
बहुजन्मार्जितान्येषा मोहिनी समुपोषिता । इति वाक्यं मुनेः श्रुत्वा धृष्टबुद्धिर्हसन् हृदि ॥३५॥
व्रतं चकार विधिवत् कौण्डिन्यस्योपदेशतः । कृते व्रते नृपश्रेष्ठ हतपापो बभूव सः ॥
दिव्यदेहस्ततो भूत्वा गरुडोपरि संस्थितः । जगाम वैष्णवं लोकं सर्वोपद्रववर्जितम् ॥
इतीदृशं रामचन्द्र तमोमोहनिकृन्तनम् । नातः परतरं किञ्चित् त्रैलोक्ये सचराचरे ॥
यज्ञादितीर्थदानानि कलां नार्हन्ति षोडशीम् । पठनाच्छ्रवणाद्राजन् गोसहस्रफलं लभेत् ॥
॥ इति श्रीकूर्मपुराणे वैशाखशुक्लमोहिन्येकादशीव्रतमाहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥१२॥
मोहिनी एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
युधिष्ठिर बोले – हे जनार्दन ! वैशाख शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है ? उसका क्या फल है ? उसकी विधि क्या है ? सब मुझसे कहिए ।
श्रीकृष्ण बोले – हे धर्मनन्दन! पहले रामचन्द्रजी के पूछने पर जिस कथा को वशिष्ठजी ने कहा, उसी कथा को मैं कहता हूँ, आप सुनिए ।
श्रीरामचन्द्रजी बोले – हे भगवन् ! सब पाप और दुःखों को दूर करने वाले सब व्रतों में श्रेष्ठ व्रत को मैं सुनना चाहता हूँ । हे महामुने ! सीता के वियोग के दुःखों को मैं भोग चुका हूँ, इससे भयभीत होकर मैं आपसे पूछता हूँ ।
वशिष्ठजी बोले – हे राम ! आपने अच्छा प्रश्न किया है, आपकी बुद्धि श्रद्धायुक्त है । आपके नाम लेने से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है, तो भी संसारहित के लिए पवित्र करने वाले व्रतों में उत्तम और पवित्र व्रत को मैं आपसे कहूँगा। हे राम ! वैशाख शुक्लपक्ष में जो एकादशी है, उसका नाम मोहिनी है, वह सब पापों को दूर करती है । मैं सत्य कहता हूँ इस व्रत के प्रभाव से प्राणी मोहजाल और पातकों के समूह से छूट जाता है।
हे राम ! इस कारण यह आप जैसे मनुष्यों के करने योग्य है। यह पापों को दूर करने वाली और दुःखों को नष्ट करने वाली है । हे राम ! इस पुण्य देने वाली शुभ कथा को एकाग्रचित्त होकर सुनिए, इसके श्रवण मात्र से बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं।
सरस्वती के तट पर भद्रावती नाम की सुन्दर नगरी है, वहाँ द्युतिमान् नाम का राजा राज्य करता था । वह धैर्यवान्, सत्यवादी राजा चन्द्रवंश में उत्पन्न हुआ था। उस पुरी में धन-धान्य से युक्त समृद्धशाली राजा रहता था। वह पुण्य कर्म में निष्ठा रखने वाला धनपाल के नाम से प्रसिद्ध था। वह पनशाला, यज्ञशाला, तालाब, बगीचा आदि को बनवाता था ।
शान्त स्वरूप और भगवान् के भक्त उस वैश्य के सुमन, द्युतिमान्, मेधावी, सुकृत, धृष्टबुद्धि नाम के पाँच पुत्र थे जिसमें से पाँचवाँ धृष्टबुद्धि बड़ा पापी था। वेश्याओं से रमण तथा दुष्टों से वार्तालाप में कुशल था, जुआ आदि का उसको व्यसन था । परायी स्त्रियों से गमन करता था; देवता, अतिथि, वृद्ध, पितर और ब्राह्मणों आदि का पूजन नहीं करता था । वह अन्यायी, और दुष्टामा था, मदिरापान करता था । वह पापी सदा पिता के धन को नष्ट करता था, अभक्ष्य वस्तुओं को खाता था।
उसके पिता ने उसको वेश्या के गले में भुजा डालकर घूमते हुए देखा तो उसे घर से निकाल दिया और बान्धवों ने भी उसको त्याग दिया । उसने अपने शरीर के आभूषण भी बेच दिये, धन के नष्ट होने से वेश्याओं ने भी निन्दा करके उसको त्याग दिया । वस्त्रहीन और भूख से व्याकुल होकर वह चिन्ता करने लगा कि मैं क्या करूं और कहाँ जाऊँ ? और किस उपाय से प्राण बचें?
फिर उसी नगर में वह चोरी करने लगा, राजा के सिपाही उसको पकड़ लेते थे। पिता के गौरव से उसे छोड़ देते थे, वह कई बार पकड़ा गया और छोड़ दिया गया । अन्त में वह दुराचारी धृष्टबुद्धि मजबूत बेड़ियों से बाँधा गया । कोड़ों की मार लगाकर उसको कई बार पीड़ित किया। और उससे कहा कि हे मंदबुद्धे ! तू मेरे देश में मत रह (अर्थात देशनिकाला कर दिया); ऐसा कहकर राजा ने उसकी बेड़ी कटवा दी।
वह राजा के डर से गम्भीर वन में चला गया । वहाँ भूख-प्यास से पीड़ित होकर इधर-उधर घूमने लगा। फिर सिंह की तरह मृग, शूकर और चीतों को मारने लगा । हाथ में धनुष-बाण और पीठ में तरकस बाँध कर मांसाहार करता हुआ वन में रहने लगा। वन में विचरने वाले पशु, पक्षी, चकोर, मोर, कंक, तीतर और मूषकों को मारने लगा। इनके अतिरिक्त अन्य जीवों की भी हिंसा करने लगा। वह निर्दय धृष्टबुद्धि पूर्वजन्म के पापों से पापरूपी कीचड़ में फंस गया ।
दुःख-शोक से युक्त होकर वह दिन-रात चिन्ता करता था, कुछ पुण्य के उदय होने से वह कौंडिन्य ऋषि के आश्रम में गया । वैशाख के महीने में गंगाजी का स्नान किए हुए तपस्वी कौंडिन्य मुनि के पास शोक से पीड़ित धृष्टबुद्धि गया । उनके वस्त्र से गिरी हुई जल की बूँद के स्पर्श से उसके दुख दूर हो गये और कौंडिन्य ऋषि के सामने हाथ जोड़कर बोला ।
धृष्टबुद्धि बोला – हे ब्रह्मन् ! ऐसा प्रायश्चित्त बतावें जिससे बिना यत्न किये जन्म भर के पापों का नाश हो जाए, मेरे पास धन नहीं है ।
ऋषि बोले – जिसके करने से तेरा पाप दूर होगा उसको तू सावधान चित्त से सुन । वैशाख शुक्लपक्ष में मोहिनी नाम की एकादशी है, तू मेरे कहने से इस एकादशी का व्रत कर । यह मनुष्यों के सुमेरु के समान पापों को नष्ट कर देती है । इस मोहिनी का उपवास करने से अनेक जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं।
मुनि के इस वचन को सुनकर धृष्टबुद्धि अपने मन में प्रसन्न हुआ । कौडिन्य के उपदेश से उसने विधिपूर्वक व्रत को किया । हे नृपश्रेष्ठ। इस व्रत के करने से उसके पाप दूर हो गये, फिर दिव्य शरीर धारण करके गरुड़ के ऊपर बैठकर उपद्रव रहित विष्णुलोक को चला गया।
हे रामचन्द्र ! अन्धकार रूपी मोह को नष्ट करने वाला यह व्रत है । इससे बढ़कर चर-अचर तीनों लोकों में दूसरा व्रत नहीं है । हे राजन् ! यज्ञ, तीर्थ, दान आदि इसके सोहलवें भाग के बराबर भी नहीं हैं। इसके पढ़ने और सुनने से हजार गोदान करने का फल मिलता है ।
वरुथिनी एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
वैशाख शुक्लपक्ष की एकादशी को मोहिनी एकादशी कहा जाता है। यह व्रत सभी पापों को नष्ट करने और दुखों को दूर करने वाला है। कथा के अनुसार, सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती पुरी का राजा द्युतिमान था। उसी नगरी में धनपाल नामक एक धनी वैश्य भी था जिसके पांच पुत्र थे – सुमन, द्युतिमान, मेधावी, सुकृत और धृष्टबुद्धि। पांचवां पुत्र धृष्टबुद्धि पापाचारी था। तंग आकर पिता और बंधु-बांधवों ने उसका त्याग कर दिया। जब उसके शरीर के आभूषण समाप्त हो गये तो वेश्याओं ने भी त्याग दिया।
फिर वह चोरी करने लगा; कई बार सिपाहियों ने छोड़ भी दिया लेकिन अंततः राजा के पास पकड़कर ले गए तो राजा ने देशनिकाला दे दिया। अब धृष्टबुद्धि जंगल में हिंसारत रहने लगा। एक समय पूर्वपुण्य के उदय होने पर वह कौण्डिन्य ऋषि के आश्रम पहुँच गया जहाँ कौण्डिन्य ऋषि के वस्त्रों से गिरने वाले जल का स्पर्श होने पर उसे अपूर्व शांति की प्राप्ति हुई।
फिर उसने कौण्डिन्य ऋषि से पापमुक्ति और उद्धार का उपाय पूछा तो ऋषि ने उसे मोहिनी एकादशी व्रत करने का उपदेश दिया। इस व्रत को पालन करने से धृष्टबुद्धि के सभी पाप समाप्त हो गए और वह स्वर्ग को चला गया। इस व्रत का पालन करने से मनुष्य दुःखों और मोहजाल से मुक्त होता है।
- मोहिनी एकादशी वैशाख मास के शुक्लपक्ष में होती है।
- यह एकादशी सुमेरु पर्वत के सामान पापों को भी नष्ट करने वाली है।
- इस कथा को पढ़ने-सुनने से सहस्र गोदान का फल प्राप्त होता है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।