निर्जला एकादशी की कथा में भीमसेन पितामह से चर्चा करते हैं और बताते हैं कि युधिष्ठिर व अन्य पांडव एकादशी को भोजन नहीं करते किन्तु उन्हें उपवास करने में कठिनाई होती है, इसलिए वे एक व्रत का नहीं कर पाते। किन्तु वर्ष में कोई एक व्रत यदि हो तो वो कर सकते हैं।
व्यासजी बताते हैं कि ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष की एकादशी का निर्जल उपवास करने से सारे पाप धुल जाते हैं और मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है, जो वर्षपर्यंत एकादशी करने में अक्षम हो वह इस एक निर्जला एकादशी व्रत करने से भी सभी एकादशी का फल प्राप्त कर लेता है। इस व्रत से सभी तीर्थों और दानों का फल मिलता है। अंततः भीमसेन इस एकादशी को करते हैं और इस कारण निर्जला एकादशी का एक अन्य नाम भीमसेनी एकादशी भी है जिसके करने से सभी पाप समाप्त हो जाते हैं।
सर्वप्रथम निर्जला (ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Nirjala ekadashi vrat katha
निर्जला एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
भीमसेन उवाच
पितामह महाबुद्धे शृणु मे परमं वचः । युधिष्ठिरश्च कुन्ती च तथा द्रुपदनन्दिनी ॥१॥
अर्जुनो नकुलश्चैव सहदेवस्तथैव च । एकादश्यां न भुञ्जन्ति कदाचिदपि सुव्रत ॥
ते मां ब्रुवन्ति वै नित्यं मा त्वं भुङ्क्ष्व वृकोदर । अहं तानब्रुवं तात् बुभुक्षा दुःसहा मम ॥
दानं दास्यामि विधिवत्पूजयिष्यामि केशवम् । विनोपवासं लभ्येत कथमेकादशीव्रतम् ॥
भीमसेनवचः श्रुत्वा व्यासो वचनमब्रवीत् ।
व्यास उवाच
यदि स्वर्गोऽत्यभीष्टस्ते नरकोऽनिष्ट एव च ॥५॥ एकादश्यां न भोक्तव्यं पक्षयोरुभयोरपि ॥
भीमसेन उवाच
पितामह महाबुद्धे कथयामि तवाग्रतः ॥
एकभुक्ते न शक्तोऽहमुपवासः कथं मुने । वृको नामास्ति यो वह्निः स सदा जठरे मम ॥
अतीवान्नं यदाऽश्नामि तदा समुपशाम्यति । एकं शक्तोऽस्म्यहं कर्तुं चोपवासं महामुने ॥
येनैव प्राप्यते स्वर्गस्तत्करोमि यथातथम् । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥
व्यास उवाच
श्रुतास्तेमानवा धर्मा वैदिकाश्च श्रुतास्त्वया। कलौ युगे न शक्यन्ते कर्तुं ते वै नराधिप ॥१०॥
सुखोपायं चाल्पधनमल्पक्लेशं महत्फलम् । पुराणानां च सर्वेषां सारभूतं वदामि ते ॥
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि । एकादश्यां न भुङ्क्ते यो न याति नरकं तु सः ॥
व्यासस्य वचनं श्रुत्वा कम्पितोऽश्वत्थपत्रवत् । भीमसेनो महाबाहुर्भीतो वाक्यमभाषत ॥
भीमसेन उवाच
पितामह न शक्तोऽहमुपवासे करोमि किम् । ततो बहुफलं ब्रूहि व्रतमेकं मम प्रभो ॥
व्यास उवाच
वृषस्थे मिथुनस्थेऽकै शुक्लायैकादशी भवेत् । ज्येष्ठमासे प्रयत्नेन सोपोष्या जलवर्जिता ॥१५॥
स्नाने चाचमने चैव वर्जयित्वोदकं बुधः । माषमात्रं सुवर्णस्य यत्र मज्जति वै मणिः ॥
एतदाचमनं प्रोक्तं पवित्रं कायशोधनम् । गोकर्णकृतहस्तेन माषमात्रजलं पिबेत् ॥
तन्न्यूनमधिकं पीत्वा सुरापानसमं भवेत् । उपयुञ्जीत नैवान्यद्व्रतभङ्गोऽन्यथा भवेत् ॥
उदयादुदयं यावद्वर्जयित्वा तथोदकम् । अप्रयत्नादवाप्नोति द्वादशं द्वादशीफलम् ॥
प्रभाते विमले जाते द्वादश्यां स्नानमाचरेत् । जलं सुवर्णं दत्वा च द्विजातिभ्यो यथा विधि ॥२०॥
भुञ्जीत कृतकृत्यस्तु ब्राह्मणैः सहितो व्रती । एवं कृते तु यत्पुण्यं भीमसेन शृणुष्व तत् ॥
संवत्सरस्य या मध्ये ह्येकादश्यो भवन्ति वै । तासां फलमवाप्नोति अत्र मे नास्ति संशयः ॥
इति मां केशवः प्राह शंखचक्रगदाधरः । सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं वज्र ॥
एकादश्यां निराहारान्नरः पापात्प्रमुच्यते । द्रव्यशुद्धिः कलौ नास्ति संस्कारः स्मार्त एव च ॥
वैदिकश्च कुतश्चास्ते प्राप्ते दुष्टे कलौ युगे । किन्न ते बहुनोक्तेन वायुपुत्र पुनः पुनः ॥२५॥
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि । एकादश्यां सिते पक्षे ज्येष्ठस्योदकवर्जितम्॥
उपोष्य फलमाप्नोति तच्छृणुष्व वृकोदर । सर्वतीर्थेषु यत्पुण्यं सर्वदानेषु यत्फलम् ॥
तत्फलं समवाप्नोति इमां कृत्वा वृकोदर । संवत्सरस्य यावत्यः शुक्लाः कृष्णाः वृकोदर ॥
उपोषितास्ताः सर्वाः स्युरेकादश्यो न संशय । धनधान्यबलायुर्दाः पुत्रारोग्यफल प्रदाः ॥
उपोषिता नरव्याघ्घ्र इति सत्यं वदामि ते । यमदूता महाकायाः करालाः कृष्णपिंगलाः ॥३०॥
दण्डपाशधरा रौद्राः नोपसर्पन्ति तं नरम् । पीताम्बरधराः सौम्याश्चक्रहस्ता मनोजवाः ॥
अन्तकाले नयन्त्येव मानवं वैष्णवीं पुरीम् । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन सोपोष्योदकवर्जिता ॥
जलधेनुं ततो दत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते । इति श्रुत्वा तदा चक्रुः पाण्डवा जनमेजय ॥
ततः प्रभृति भीमेन कृतेयं निर्जला शुभा । पाण्डवद्वादशी नाम्ना लोके ख्याता बभूव ह ॥
तथा त्वमपि भूपाल सोपवासार्चनं हरेः । कुरु त्वं च प्रयत्नेन सर्वपापप्रशान्तये ॥३५॥
करिष्याम्यद्य देवेशं जलवर्जमुपोषणम् । भोक्ष्ये परेऽह्नि देवेश ह्यनन्त तव वासरात् ॥
इत्युच्चार्य ततो मन्त्रमुपवासपरो भवेत् । सर्वपापविनाशाय श्रद्धादमसमन्वितः ॥
मेरुमन्दरमानं तु स्त्रियोऽथ पुरुषस्य वा । सर्वं तद्भस्मतां याति एकादश्याः प्रभावतः ॥
न शक्नोति च यो दातुं जलधेनुं नराधिप । सकाञ्चनो घटस्तेन देयो वस्त्रेण संवृतः ॥
तोयस्य नियमं तस्यां कुरुते वै स पुण्यभाक् । पलकोटिसुवर्णस्य यामे यामेऽश्नुते फलम् ॥४०॥
स्नानं दानं जपं होमं यदस्यां कुरुते नरः । तत् सर्वं चाक्षयं प्रोक्तमेतत् कृष्णस्य भाषितम् ॥
किं वाऽपरेण धर्मेण निर्जलैकादशी नृप । उपोषिता च विधिवत् वैष्णवं पदमाप्नुयात् ॥
सुवर्णमन्नं वासांसि यदस्यां सम्प्रदीयते । तस्यैव च कुरुश्रेष्ठ सर्वं चाप्यक्षयं भवेत् ॥
एकादशीदिने योऽन्नं भुङ्क्ते पापं भुनक्ति सः । इह लोके स चाण्डालो मृतः प्राप्नोति दुर्गतिम् ॥
ये प्रदास्यन्ति दानानि द्वादशी समुपोष्य च । ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे प्राप्स्यन्ति परमं पदम् ॥४५॥
ब्रह्महा मद्यपः स्तेनो गुरुद्वेष्टा सदाऽनृती । मुच्यन्ते पातकैः सर्वैर्निर्जला यैरुपोषिता ॥
विशेष शृणु कौन्तेय निर्जलैकादशीदिने । यत् कर्तव्यं नरैः स्त्रीभिः श्रद्धादमसमन्वितैः ॥
जलशायी तु सम्पूज्यो देया धेनुश्च तन्मयी । प्रत्यक्षा वा नृपश्रेष्ठ घृतधेनुरथापि वा ॥
दक्षिणाभिश्च श्रेष्ठाभिर्मिष्ठान्नैश्च पृथग्विधैः । तोषणीयाः प्रयत्नेन द्विजा धर्मभृतांवर ॥
तुष्टो भवति वै विप्रं तैस्तुष्टैर्मोक्षदो हरिः । आत्मद्रोहः कृतस्तैस्तु येनैषा समुपोषिता ॥५०॥
पापात्मानो दुराचारा दुष्टास्ते नात्र संशयः । कुलानां च शतं साग्रमनाचाररतं सदा ॥
आत्मना सह तैर्नीतं वासुदेवस्य मन्दिरम् । शान्तैर्दानपरैश्चैवं अर्चद्भिश्च तथा हरिम् ॥
कुर्वद्भिर्जागरं रात्रौ यैर्नरैः समुपोषिता । अन्नं पानं तथा गावो वस्त्रं शय्यासनं शुभाम् ॥
कमण्डलुस्तथा छत्रं दातव्यं निर्जलादिने । उपानहौ च यो दद्यात् पात्रभूते द्विजोत्तम ॥
स सौवर्णेन यानेन स्वर्गलोके ब्रजेद्ध्रुवम् । यश्चेमां शृणुयाद्भक्त्या यश्चापि परिकीर्तयेत् ॥५५॥
उभौ तौ स्वर्गतौ स्यातां नात्र कार्या विचारणा । यत्फलं तु सिनीवाल्यां राहुग्रस्ते दिवाकरे ॥
कृत्वा श्राद्धं लभेन्मर्त्यस्तदस्याः श्रवणादपि । नियमं च प्रकुर्वीत दन्तधावनपूर्वकम् ॥
एकादश्यां निराहारो वर्जयिष्यामि वै जलम् । केशवप्रीणनार्थाय अन्यदाचमनादृते ॥
द्वादश्यां देवदेवेशः पूजनीयस्त्रिविक्रमः । गन्धपुष्पैस्तथा दीपैर्वारिभिः प्रीणयेद्धरिम् ॥
पूजयित्वा विधानेन मन्त्रमेतमुदीरयेत् । देवदेव हृषीकेश संसारार्णवतारक ॥६०॥
जलकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम् । ततः कुम्भा प्रदातव्या ब्राह्मणेभ्यः स्वशक्तितः ॥
सान्नवस्त्रयुता भीम छत्रोपानत्फलान्विताः । दानान्यन्यानि देयानि जलधेनुर्विशेषतः ॥
भोजयित्वा ततो विप्रान् स्वयं भुञ्जीत वाग्यतः । एवं यः कुरुते पुण्यां द्वादशीं पापनाशिनीम् ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः पदं गच्छत्यनामयम् ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणे ज्येष्ठशुक्ला निर्जला एकादशीव्रतमाहात्म्यं समाप्तम् ॥१४॥
निर्जला एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
भीमसेन बोले – हे महाबुद्धि पितामह। मेरी बात सुनें! युधिष्ठिर, कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल, सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते और वे मुझसे नित्य कहते हैं कि हे भीमसेन ! तुम एकादशी को भोजन मत किया करो। मैं उनसे कहता हूँ कि हे तात! मुझसे भूख सही नहीं जाती, मैं दान करूंगा और विधिपूर्वक केशव का पूजन करूँगा। परन्तु बिना उपवास किये एकादशी के व्रत का फल कैसे मिले ? भीमसेन का वचन सुनकर
व्यासजी बोले – जो तुमको स्वर्ग अत्यन्त प्रिय है और नरक अप्रिय प्रतीत होता है तो दोनों पक्षों की एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए ।
भीमसेन बोले – महाबुद्धि पितामह ! मैं आप से सत्य कहता हूँ, एक बार भोजन नहीं करने से मुझसे नहीं रहा जाता, फिर उपवास कैसे करूंगा ? हे महामुने ! वृक नाम का अग्नि सदा मेरे पेट में रहता है, जब मैं बहुत सा अन्न खाऊँ तब वह शान्त होता है । हे महामुने ! मैं एक उपवास कर सकता हूँ, जिससे स्वर्ग मिल जाए, उस एक व्रत को मैं विधिपूर्वक करूँगा, इसलिए निश्चय करके एक व्रत को बतावें जिससे मेरा कल्याण हो ।
व्यास जी बोले – हे नराधिप ! तुमने मानवधर्म और वैदिक धर्म सुने, परन्तु कलियुग में उन धर्मों के करने की शक्ति मनुष्यों में नहीं है । सरल उपाय, थोड़े धन और अल्प परिश्रम से महाफल प्राप्त होने की विधि मैं तुमसे कहता हूँ जो कि सब पुराणों का सार है । जो दोनों पक्षों की एकादशी का व्रत करता है वह नरक में नहीं जाता। व्यास जी का वचन सुनकर बड़ी भुजा बाले भीमसेन पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगे और डरकर बोले :
“हे पितामह ! मैं क्या करूँ? मैं उपवास नहीं कर सकता । इसलिए हे प्रभो! बहुत फलदायक एक ही व्रत को मुझसे कहिए।”
व्यास जी बोले – वृष वा मिथुन के सूर्य में ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है उसका यत्नपूर्वक निर्जल उपवास करना चाहिए। स्नान और आचमन में जल का निषेध नहीं है, माशे भर सुवर्ण का दाना जिसमें डूब जाय उतना ही जल आचमन के लिए कहा गया है, वही शरीर को पवित्र करने वाला है। गौ के कान की तरह हाथ करके माशे भर जल पीना चाहिए, उससे अल्प या अधिक जल पीने से मदिरा पान के समान होता है, और कुछ भोजन न करे नहीं तो व्रत भंग हो जाता है ।
एकादशी के सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक जल पान न करे। ऐसा करने से बारहों महीने की एकादशी का फल उसको बिना यत्न के मिल जाता है । फिर द्वादशी को प्रातः निर्मल जल में स्नान करके ब्राह्मणों के लिए जल और सुवर्ण का दान करे । फिर व्रत करने वाला कृतकृत्य होकर ब्राह्मणों सहित भोजन करे ।
हे भीमसेन ! इस प्रकार व्रत करने से जो पुण्य होता है उसको सुनो । वर्ष पर्यन्त जितनी एकादशियाँ होती हैं उनका फल इस एकादशी के व्रत करने से मिल जाता है, इसमें सन्देह नहीं । शंख-चक्र-गदाधारी कृष्ण भगवान् ने मुझसे कहा है कि सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आओ ।
एकादशी को निराहार रहने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। कलियुग में द्रव्य दान से शुद्धि नहीं है, स्मार्त संस्कार से भी सद्गति नहीं होती । इस दुष्ट कलियुग में वैदिक धर्म भी कहाँ है ? हे वायुपुत्र ! बार-बार विशेष क्या कहूँ, दोनों पक्षों की एकादशी में भोजन न करे। ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष की एकादशी में जल भी वर्जित है ।
हे वृकोदर ! इसका व्रत करने से जो फल मिलता है, उसे सुनो। सब तीर्थों से जो पुण्य होता है और सब दान करने से जो फल होता है, हे वृकोदर ! वह फल इस एकादशी का व्रत करने से मिल जाता है। वर्षपर्यंत शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष की जितनी एकादशियाँ हैं, उनका उपवास करने से धन-धान्य, बल, आयु, पुत्र, आरोग्य मिलते हैं, वे सब इस एकादशी के व्रत करने से मिल जाते हैं ।
हे नरव्याघ्र । मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि इसका व्रत करने से अन्त समय में बड़े शरीर वाले भयंकर काले पीले रंग के दण्ड-पाशधारी यम के दूत उसके पास नहीं आते, अपितु पीताम्बरधारी, हाथ में चक्र लिए हुए सुन्दर विष्णु के पार्षद उसके पास आते हैं और विष्णुलोक में ले जाते हैं, इसलिए यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करना चाहिए । फिर जल दान और गोदान करने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। हे जनमेजय ! इसको सुनकर पांडवों ने इस व्रत को किया ।
उसी दिन से भीमसेन ने इस निर्जला एकादशी का व्रत किया तभी से इसका नाम भीमसेनी विख्यात हो गया। हे भूपाल ! उसी प्रकार सब पापों को दूर करने के लिए तुम भी यत्नपूर्वक इसका व्रत और भगवान् की पूजा करो । हे अनन्त ! हे देवेश ! मैं आज आएका निर्जल व्रत करूंगा और दूसरे दिन भोजन करूँगा । इस मन्त्र को पढ़कर सब पापों को दूर करने के लिए इन्द्रियों को वश में करके श्रद्धापूर्वक व्रत को करे ।
स्त्री अथवा पुरुष का सुमेरु वा मन्दराचल पर्वत के समान भी पाप हो तो एकादशी के प्रभाव से भस्म हो जाता है । हे नराधिप ! जलदान और गोदान न कर सके तो कलश में वस्त्र लपेट कर सुवर्ण का दान करे । जो कोई उसमें जलदान का नियम करता है उसको प्रत्येक प्रहर में करोड़ पल सुवर्ण दान का फल मिलता है । इस एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम जो कुछ मनुष्य करता है वह सब अक्षय हो जाता है, यह श्रीकृष्णजी ने कहा है ।
हे राजन् ! जिसने निर्जला एकादशी का विधिपूर्वक उपवास किया है, उसको और धर्म से क्या प्रयोजन है? व्रत करने वाला विष्णुलोक को जाता है । हे कुरुश्रेष्ठ ! जो एकादशी के दिन सुवर्ण, अन्न, वस्त्र का दान करता है वह सब अक्षय होता है । एकादशी के दिन जो अन्न खाता है वह पाप भोगता है, इस लोक में वह चांडाल होकर मरने के अनन्तर दुर्गति प्राप्त करता है। जो ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में एकादशी का व्रत करके दान करें वे परम पद को प्राप्त होंगे ।
जिन्होंने निर्जला एकादशी का व्रत किया है, वे ब्रह्महत्या, मदिरापान, चोरी, गुरु से वैर, मिथ्या भाषण इन सब पापों से छूट जाते हैं । हे कौन्तेय ! निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धा और नियम से युक्त स्त्री और पुरुषों का जो विशेष कर्तव्य है, उसे सुनो । जलशायी भगवान् का पूजन करे और गोदान करे अथवा घृत, धेनु का दान करे ।
हे धर्मधारियों में श्रेष्ठ ! अनेक तरह के मिष्ठान्न और दक्षिणा देकर ब्राह्मणों को प्रसन्न करे क्योंकि ब्राह्मणों के प्रसन्न होने से मोक्ष देने वाले भगवान् भी प्रसन्न होते हैं। जिन्होंने इसका व्रत नहीं किया, उन मनुष्यों ने आत्मा से द्रोह किया है । वे पापी, दुराचारी और दुष्ट हैं और निःसंदेह उनके सैकड़ों कुल दुराचारी हो जाते हैं । और जिन मनुष्यों ने शान्तिपूर्वक दान और भगवान् का पूजन किया है, उन्होंने स्वयं सहित सौ पीढ़ी के पूर्वजों को विष्णुलोक में भेज दिया ।
जो कोई उपवास करके रात्रि में जागरण करते हैं, और निर्जला के दिन अन्न, जल, गौ, वस्त्र, शय्या, आसन, कमंडलु, छत्र, पादत्राण इनका सुपात्र को दान देते हैं, वे सोने के विमानों में बैठकर स्वर्ग को जाते हैं। जो कोई भक्ति से इस कथा को सुनते अथवा कहते हैं, वे दोनों, निःसंदेह स्वर्ग को जाते हैं। मनुष्य को सूर्यग्रहण में श्राद्ध करने से जो फल मिलता है, वह इसके सुनने वालों को मिलता है।
दातुन करके इसका नियम करना चाहिए । द्वादशी के दिन गन्ध, पुष्प, जल और दीपक से देवताओं के ईश्वर वामनजी का पूजन करना चाहिए। विधिपूर्वक पूजन करके इस मन्त्र का उच्चारण करे : हे देवों के देव ! हे इन्द्रियों के ईश्वर ! हे संसार समुद्र से पार करने वाले ! जल से भरे हुए कलश के दान करने से मुझको परम गति प्रदान कीजिये । ऐसा कहकर ब्राह्मणों के लिए शक्ति के अनुसार कलश देने चाहिए।
हे भीमसेन ! अन्न, वस्त्र, छत्र, उपानह (जूते), फल युक्त कलश देना चाहिए और भी दान देना चाहिए। जल और गौ का दान अवश्य करे। फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर मौन से आप भी भोजन करे । इस प्रकार जो पवित्र और पापों को दूर करने वाली एकादशी का व्रत करता है वह पापों से छूट कर परम पद को प्राप्त होता है।
निर्जला एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम निर्जला एकादशी है। इस एकादशी को भीमसेन ने भी किया था इसलिये इसका दूसरा नाम भीमसेनी एकादशी भी है। जो सभी एकादशी न कर सके उसे भी वर्ष में इस एक एकादशी का निर्जल व्रत अवश्य ही करना चाहिये। एकादशी के सूर्योदय से लेकर द्वादशी के सूर्योदय तक जल नहीं पीने पर निर्जला कहा जाता है।
स्नान और आचमन के लिये जल निषेध नहीं है किन्तु आचमन विधि के अनुसार ही करना चाहिये न कि बार-बार आचमन करके जल पीना चाहिये। इसके अतिरिक्त इसमें विशेषतः दान करने की विधि कही गयी है। अक्षय तृतीया और अक्षय नवमी को किया गया पुण्य कर्म जिस तरह अक्षयफल देने वाला होता है उसी तरह निर्जला एकादशी के दिन का पुण्य भी अक्षय होता है।
- निर्जला एकादशी ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में होती है।
- इसका एक अन्य नाम भीमसेनी एकादशी भी है।
- जो सभी एकादशी नहीं करते उन्हें भी यह एकादशी अवश्य करना चाहिये।
- निर्जला एकादशी को विधिवत करने से सभी एकादशियों को करने का पुण्य प्राप्त होता है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।