फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम विजया एकादशी है। कथा के अनुसार जब सीताहरण के बाद सेना के साथ लंका विजय करने के लिए भगवान श्रीराम समुद्रतट पर पहुंचे तो अथाह समुद्र को देखकर विचलित हो गये। भाई लक्ष्मण के बताने पर निकट में स्थित वकदाल्भ्य मुनि के आश्रम पर गए तो उन्होंने विजया एकादशी व्रत करने का उपदेश दिया। भगवान श्रीराम ने मुनि की बताई विधि के अनुसार विजया एकादशी का व्रत किया और व्रत के प्रभाव से लंका विजय करके पुनः सीता और लक्ष्मण सही अयोध्या नगरी में वापस आये।
सर्वप्रथम विजया (फाल्गुन कृष्ण पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Vijaya ekadashi vrat katha
विजया एकादशी व्रत कथा मूल संस्कृत में
युधिष्ठिर उवाच
फाल्गुनस्यासिते पक्षे किन्नामैकादशी भवेत् । वासुदेवप्रसादेन कथयस्व ममाग्रतः ॥
श्रीकृष्ण उवाच
कथयिष्यामि राजेन्द्र कृष्णा या फाल्गुनी भवेत् । विजयेति च सा प्रोक्ता कर्तृणां जयदा सदा ॥
तस्याश्च व्रतमाहात्म्यं सर्वपापहरं परम् । नारदः परिपप्रच्छ ब्रह्माणं कमलासनम् ॥
फाल्गुनस्यासिते पक्षे विजया नाम या तिथिः । तस्याः व्रतं सुरश्रेष्ठ कथयस्व प्रसादतः ॥
इति पृष्टो नारदेन प्रत्युवाच पितामहः । ब्रह्मोवाच शृणु नारद वक्ष्यामि कथां पापहरां पराम् ॥५॥
पुरातनं व्रतं ह्येतत् पवित्रं पापनाशनम् । यन्न कस्यचिदाख्यातं मयैतद्विजयाव्रतम् ॥
जयं ददाति विजया नृणां चैव न संशयः । रामस्तपोवनं यातो वर्षाण्येव चतुर्दश ॥
न्यवसत् पञ्चवट्यां तु ससीतश्च सलक्ष्मणः । तत्रैव वसतस्तस्य राघवस्य महात्मनः ॥
रावणेन हृता भार्या सीता नाम्नी तपस्विनी । तेन दुःखेन रामोऽसौ मोहमभ्यागतस्तदा ॥
भ्रमञ्जटायुषं तत्र ददर्श विगतायुषम् । कबन्धो निहतः पश्चाद्भमतारण्यमध्यतः ॥१०॥
राज्ञे विज्ञाप्य तत्सर्वं सोऽपि मृत्युवशं गतः । सुग्रीवेण समं सख्यं रामस्य समजायत ॥
वानराणामनीकानि रामार्थं सङ्गतानि वै । ततो हनुमता दृष्टा लंकोद्याने तु जानकी ॥
रामसंज्ञापनं तस्यै दत्तं कर्ममहत् कृतम् । समेत्य रामेण पुनः सर्वं तत्र निवेदितम् ॥
अथ श्रुत्वा रामचन्द्रो वाक्यञ्चैव हनूमतः। सुग्रीवानुमतेनैव प्रस्थानं समरोचयत् ॥
स गत्वा वानरैः सार्द्धं तीरं नदनदीपतेः । दृष्ट्वाऽब्धिं दुस्तरं रामो विस्मितोऽभूत्कपिप्रियः ॥१५॥
प्रोत्फुल्ललोचनो भूत्वा लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत् । सौमित्रे केन पुण्येन तीर्यते वरुणालयः ॥
अगाधसलिलैः पूर्णो नक्रैर्मीनैः समाकुलः। उपायं नैव पश्यामि येनायं सुतरो भवेत् ॥
लक्ष्मण उवाच
आदिदेवस्त्वमेवासि पुराणपुरुषोत्तम । वकदाल्भ्यो मुनिश्चात्र वर्तते द्वीपमध्यतः ॥
अस्मात्स्थानाद्योजनार्द्धमाश्रमस्तस्य राघव । अनेन दृष्टा ब्रह्माणो बहवो रघुनन्दनः ॥
तं पृच्छ गत्वा राजेन्द्र पुराणं ऋषिपुङ्गवम् । इति वाक्यं ततः श्रुत्वा लक्ष्मणस्यातिशोभनम् ॥२०॥
जगाम राघवो द्रष्टुं वकदाल्भ्यं महामुनिम् । प्रणमाम मुनिं मूर्ध्ना रामो विष्णुमिवापरः ॥
मुनिर्ज्ञात्वा ततो रामं पुराणपुरुषोत्तमम् । केनापि कारणेनैव प्रविष्टं मानुषीं तनुम् ॥
उवाच स ऋषिस्तत्र कुतो राम तवागमः । राम उवाच त्वत्प्रसादादहो विप्र वरुणालयसन्निधिम् ॥
आगतोऽस्मि ससैन्योऽत्र लंकां जेतुं सराक्षसम् । भवतश्चानुकूल्येन तीर्य्यतेऽब्धिर्यथा मया ॥
तमुपायं वद मुने प्रसादं कुरु सुव्रत । एतस्मात्कारणादेव द्रष्टुं त्वाहमुपागतः ॥२५॥
मुनिरुवाच
कथयिष्याम्यहं राम व्रतानां व्रतमुत्तमम् । कृतेन येन सहसा विजयस्ते भविष्यति ॥
लकां जित्वा राक्षसांश्च दीर्घां कीर्तिमवाप्स्यसि । एकाग्रमानसो भूत्वा व्रतमेतत्समाचर ॥
फाल्गुनस्यासिते पक्षे विजयैकादशी भवेत् । तस्याः व्रते कृते राम विजयस्ते भविष्यति ॥
निस्संशयं समुद्रं च तरिष्यसि सवानरः । विधिश्च श्रूयतां राम व्रतस्यास्य फलप्रदः ॥
दशमीदिवसे प्राप्ते कुम्भमेकं च कारयेत्। हैमं वा राजतं वापि ताघ्रं वाऽप्यथ मृण्मयम् ॥३०॥
स्थापयेत्स्थण्डिले कुम्भं जलपूर्णं सपल्लवम् । सप्तधान्यान्यधस्तस्य यवानुपरि विन्यसेत् ॥
तस्योपरि न्यसेद्देवं हैमं नारायणं प्रभुम् । एकादशीदिने प्राप्ते प्रातः स्नानं समाचरेत् ॥
निश्चले स्थापिते कुम्भे गन्धमाल्यानुलेपिते । गन्धैर्धूपैस्तथा दीपैर्नैवेद्यैर्विविधैरपि ॥
दाडिमैर्नारिकेलैश्च पूजयेच्च विशेषतः । कुम्भाग्रे तद्दिनं राम नेतव्यं भक्तिभावतः ॥
रात्रौ जागरणं चैव तस्याग्रे कारयेद्बुधः । द्वादशीदिवसे प्राप्ते मार्तण्डस्योदये सति ॥३५॥
नीत्वा कुम्भं जलोद्देशे नद्यां प्रस्रवणे तथा । तडागे स्थापयित्वा वा पूजयित्वा यथाविधि ॥
दद्यात् सदैवतं कुम्भं ब्राह्मणे वेदपारगे । कुम्भेन सहराजेन्द्र महादानानि दापयेत् ॥
अनेन विधिना राम यूथपैः सह सङ्गतः । कुरु व्रतं प्रयत्नेन विजयस्ते भविष्यति ॥
इति श्रुत्वा वचो रामो यथोक्तमकरोद्व्रतम् । कृते व्रते स विजयी बभूव रघुनन्दनः ॥
अनेन विधिना राजन् ये कुर्वन्ति नरा व्रतम् । इह लोके जयस्तेषां परलोके तथाऽक्षयः ॥४०॥
एतस्मात्कारणात्पुत्र कर्त्तव्यं विजयाव्रतम् । विजयायाश्च माहात्म्यं सर्वकिल्बिषनाशनम् ॥
पठनाच्छ्रवणात्तस्य वाजपेयफलं लभेत् ॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे फाल्गुनकृष्णा विजयैकादशीव्रतमाहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥७॥
विजया एकादशी व्रत कथा हिन्दी में
युधिष्ठिर बोले – हे भगवनन् ! फाल्गुन कृष्णा एकादशी का क्या नाम है सो कृपा करके मुझ से कहिए ।
श्रीकृष्ण बोले – हे राजेन्द्र ! फाल्गुन कृष्णा एकादशी का नाम विजया है। यह व्रत करने वालों को सदा विजय देने वाला है, इसके व्रत का माहात्म्य सभी पापों को हरने वाला है। यह नारद जी ने कमल पर बैठने वाले ब्रह्माजी से पूछा था।
“हे सुरश्रेष्ठ ! फाल्गुन के कृष्णपक्ष में विजया तिथि का व्रत और माहात्म्य कहिए”
इस प्रकार ब्रह्माजी से नारदजी ने प्रश्न किया तब
ब्रह्माजी बोले – हे नारद ! पापों के हरने वाली उत्तम कथा को मैं कहता हूँ उसे सुनो। इस प्राचीन, पवित्र और पापों को नाश करने वाली विजया के व्रत को मैंने किसी से भी नहीं कहा है। विजया एकादशी निःसंदेह मनुष्यों को विजय देती है। जब रामचन्द्रजी चौदह वर्ष के लिए तपोवन को गये थे, तब सीता और लक्ष्मण के साथ पञ्चवटी में निवास किया था। उसी वन में उनकी स्त्री तपस्विनी सीता को रावण हर कर ले गया था ।
- उस दुःख से रामचन्द्रजी बहुत सन्तप्त हुए, वन में भ्रमण करते हुए आसन्न मृत्युवाले जटायु को देखा ।
- फिर वन में विचरते-विचरते कबन्ध नामक दैत्य को मारा। रामचन्द्रजी से सीता जी का वृत्तान्त कहकर जटायु भी मर गया ।
- फिर रामचन्द्रजी की सुग्रीव से मित्रता हो गयी, तब रामचन्द्र जी के लिए बन्दरों की सेना इकट्ठी हुई।
- फिर हनुमानजी ने लंका की अशोक वाटिका में जानकी जी को देखा। रामचन्द्र जी की दी हुई अँगूठी सीताजी को देकर बड़ा काम किया।
- फिर रामचन्द्रजी के पास आकर सीता जी का सब वृत्तान्त सुना दिया ।
तब रामचन्द्रजी ने हनुमानजी का वचन सुनकर सुग्रीव की सलाह से लंका को प्रस्थान किया । वानरों के साथ समुद्र के तट पर जाकर वानरों के प्रिय रामचन्द्रजी अथाह समुद्र को देखकर आश्चर्य करने लगे ! विस्फारित नेत्रों से लक्ष्मणजी से बोले –
“हे सौमित्रे ! किस पुण्य से समुद्र को पार किया जाय। क्योंकि मगर और मछलियों से भरा हुआ यह अथाह जल से परिपूर्ण है । मैं ऐसा उपाय नहीं देखता हूँ जिससे सुख से पार जा सकूँ।”
लक्ष्मण जी बोले – हे पुराणपुरुषोत्तम ! आप आदिदेव हैं, इस द्वीप में वकदाल्भ्य मुनि रहते हैं, हे राघव ! यहाँ से दो कोस उनका आश्रम है। हे रघुनन्दन ! उन्होंने बहुत से ब्रह्माओं को देखा है, हे राजेन्द्र ! उन्हीं प्राचीन श्रेष्ठ ऋषि से पूछिए । लक्ष्मणजी के इस सुन्दर वचन को सुनकर रामचन्द्रजी वकदाल्भ्य मुनि के दर्शन के लिए गये । दूसरे विष्णु के समान बैठे हुए मुनि को रामचन्द्रजी ने सिर से प्रणाम किया। तब रामचन्द्रजी को पुराणपुरुषोत्तम जान कर मुनि यह समझ गये कि किसी कारण से इन्होंने मनुष्यदेह धारण कर लिया है । फिर
ऋषि बोले – हे राम ! आप कहाँ से आये हैं ?
रामचन्द्रजी बोले – आपकी कृपा से राक्षसों सहित लंका जीतने को अपनी सेना लेकर समुद्र तट पर आया हूँ, आपकी अनुकूलता से समुद्र को पार कर सकूँगा। हे सुव्रत ! हे मुने ! आप कृपा करके वैसा उपाय बतलाइये । इसलिए आपका दर्शन करने मैं आया हूँ।
मुनि बोले – हे राम ! मैं सब व्रतों में उत्तम व्रत कहूँगा, जिसके करने से आपकी शीघ्र विजय हो जाएगी। राक्षसों सहित लंका को जीतकर विशेष कीर्ति होगी, आप एकाग्र मन से इस व्रत को करें। हे राम ! फाल्गुन के कृष्णपक्ष में विजया नाम की एकादशी होती है, उसका व्रत करने से आपकी जीत होगी और निःसंदेह वानरों समेत आप समुद को पार कर जायेंगे। हे राम ! इस व्रत की फलदायक विधि को सुनिए :
दशमी के दिन सोना, चाँदी, साँबा अथवा मिट्टी के कलश बनावे। स्थण्डिल के ऊपर सप्तधान्य रखकर उसके ऊपर जल से भरा हुआ कलश रखे , उसमें पंचपल्लव रखकर कलश के ऊपर सकोरे में जौ रखे, उसके ऊपर सुवर्ण की बनी हुई नारायण की प्रतिमा स्थापित करे।
एकादशी के दिन प्रातःकाल स्नान करे । उस कलश के ऊपर नारियल रखकर नारायण की मूर्ति का गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, अनेक प्रकार के नैवेद्य और अनार से भक्तिभाव से पूजन करे और दिन को व्यतीत करे। मूर्ति के सम्मुख रात को जागरण करें, द्वादशी के दिन सूर्य उदय होने पर नदी, सरोवर अथवा जलाशय के पास उस कलश को ले जाकर विधिपूर्वक पूजन करे।
हे राजेन्द्र ! मूर्ति समेत उस कलश को विद्वान् ब्राह्मण को देवे और उसके साथ ही महादान दे। हे राम ! इस विधि से सेना समेत यत्नपूर्वक इस व्रत को करें, इससे आपकी विजय होगी ।
इस वचन को सुनकर रामचन्द्रजी ने विधिपूर्वक इस व्रत को किया । इसके करने से रामचन्द्रजी की विजय हो गई । हे राजन् ! इस विधि से जो मनुष्य इस व्रत को करेंगे, उनकी इस लोक और परलोक में सदा विजय होगी। ब्रह्मा जी बोले – हे पुत्र ! इसलिए विजया एकादशी का व्रत करना चाहिये। विजया एकादशी का माहात्म्य सब पापों को नाश करता है और माहात्म्य पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है ।
विजया एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ
विजया एकादशी की कथा भगवान राम से संबंधित है, जहाँ उन्होंने इस व्रत के माध्यम से लंका पर विजय प्राप्त की। फाल्गुन कृष्णा एकादशी का व्रत उत्तम माना जाता है, जो सभी पापों को मिटाता है और विजय देने के लिए प्रसिद्ध है। फाल्गुन कृष्णा एकादशी का व्रत सभी पापों का नाश करता है और विजय दिलाने के लिए प्रसिद्ध है।
रामचन्द्रजी ने वकदाल्भ्य मुनि से इस व्रत का उपाय जाना और विधिपूर्वक इसका पालन किया। इस व्रत को करने वालों को लोक और परलोक दोनों में विजय मिलती है। इसे करने से रामचन्द्रजी ने लंका की विजय पाई। ब्रह्मा जी ने भी इस व्रत का महत्व बताया है, जिससे व्यक्ति को पापों का नाश और वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
- विजया एकादशी फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में होती है।
- इसके अधिदेवता नारायण हैं।
- विजया एकादशी विजय प्रदायक है।
- इस कथा को पढ़ने-सुनने से वाजपेय यज्ञ का पुण्य प्राप्त होता है।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।