वीरभद्र को भूमि पर गिरा देख शिवगणों में हाहाकार मच गया और वो वहां चले गये जहां भगवान शंकर थे। तब स्वयं भगवान शंकर युद्ध करने आये एवं जलंधर के साथ उनका युद्ध होने लगा, जब जलंधर को प्रतीत हुआ कि भगवान शिव अजेय हैं तो उसने माया का प्रयोग किया और सभी अचेत से हो गये, और शिव का रूप धारण करके पार्वती पास गया किन्तु उसका भेद खुल गया तो पार्वती मानसरोवर जाकर भगवान विष्णु का आवाहन किया, भगवान विष्णु ने कहा है उसने जो मार्ग दिखाया है अब उसी के आधार पर उसका अंत होगा। सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 15 मूल संस्कृत में
नारद उवाच
पतितं वीरभद्रं तु दृंष्ट्वा रुद्रगणा भयात् । आगतास्ते रणं हित्वा क्रोशमाना महेश्वरम् ॥१॥
अथ कोलाहलं श्रुत्वा गणानां चंद्रशेखरः। अभ्ययाद्वृषमारूढः संग्रामं प्रहसन्निव ॥२॥
रुद्रमायां तमालोक्य सिंहनादैर्गणाः पुनः। निवृत्ताः संगरे दैत्यान्निजघ्नुः शरवृष्टिभिः ॥३॥
दैत्याश्च भीषणं रुद्रं दृष्ट्वा सर्वे विदुद्रुवुः। कार्त्तिकव्रतिनं दृष्ट्वा पातकानीव तद्भयात् ॥४॥
अथ जलंधरो दैत्यान्विद्रुतान्प्रेक्ष्य संगरे। रोषादधावच्चंडीशं मुंचन्बाणान्सहस्रशः ॥५॥
शुंभो निशुंभोऽश्वमुखः कालनेमिर्बलाहकः। खड्गरोमा प्रचंडश्च घस्मरश्च शिवं ययुः ॥६॥
बाणांधकारसंच्छन्नं दृष्ट्वा गणबलं शिवः। तद्बाणजालं विच्छिद्य स्वबाणैरावृणोन्नभः ॥७॥
दैत्याश्च बाणवात्याभिः पीडितानकरोत्तदा। प्रचंडजालबाणौघैरपातयत भूतले ॥८॥
खड्गरोम्णः शिरः कोपात्तथा परशुनाऽच्छिनत्। बलाहकस्य च शिरः खंट्वागेनाकरोद्द्विधा ॥९॥
बद्ध्वा च घस्मरं दैत्यं पाशेनाभ्यहनाद्भुवि। वृषभेण हताः केचित्केचिद्बाणैर्निपातिताः ॥१०॥
न शेकुरसुराः स्थातुं गजाः सिंहार्दिता यथा। ततः कोपपरीतात्मा वेगाद्रुद्रं जलंधरः ॥११॥
आह्वयामास समरे तीव्राशनिसमस्वनः ॥१२॥
जलंधर उवाच
युध्यस्वाद्य मया सार्द्धं किमेभिर्निहितैस्तव । यच्च किंचिद्बलं तेऽस्ति तद्दर्शय जटाधर ॥१३॥
नारद उवाच
इत्युक्त्वा दशभिर्बाणैर्जघान वृषभध्वजम् । तानप्राप्तान्शितैर्बाणैश्चिच्छेद प्रहसन् शिवः ॥१४॥
ततो हयान्ध्वजं छत्रं धनुश्चिच्छेद सप्तभिः । सच्छिन्नधन्वा विरथो गदामादाय वीर्यवान् ॥१५॥
अभ्यधावच्छिवस्तावद्गदाबाणैर्त्रिधाकरोत् । तथापि मुष्टिमुद्यम्य ययौ रुद्रजिघांसया ॥१६॥
तावच्छिवेन बाणौघैः क्रोशमात्रमपाकृतः । ततो जालंधरो दैत्यो मत्वा रुद्रं बलाधिकम् ॥१७॥
ससर्ज मायां गांधर्वीमद्भुतां रुद्रमोहिनीम् । ततो जगुश्च ननृतुर्गंधर्वाप्सरसां गणाः ॥१८॥
तालवेणुमृदंगांश्च वादयंतः परस्परम् । तं दृष्ट्वा महदाश्चर्यं रुद्रो नादविमोहितः ॥१९॥
पतितान्यपि शस्त्राणि करेभ्यो न विवेद सः । एकाग्रीभूतमालोक्यरुद्रं दैत्यो जलंधरः ॥२०॥
कामार्त्तः सञ्जगामाशु यत्र गौरी स्थिताऽभवत् । युद्धे शुंभनिशुंभाख्यौ स्थापयित्वा महाबलौ ॥२१॥
दशदोर्दंडपंचास्यस्त्रिनेत्रश्च जटाधरः । महावृषभमारूढः स बभूव जलंधरः ॥२२॥
अथ रुद्रं समायांतमालोक्य भववल्लभा । अभ्याययौ सखीमध्यात्तद्दर्शनपथेऽभवत् ॥२३॥
यावद्ददर्श चार्वगीं पार्वतीं दनुजेश्वरः । तावत्स वीर्यं मुमुचे जडांगश्चाभवत्तदा ॥२४॥
अथ ज्ञात्वा तदा गौरी दानवं भयविह्वला । जगामांतर्हिता तावत्सा तदोत्तरमानसम् ॥२५॥
तामदृष्ट्वा तदा दैत्यः क्षणाद्विद्युल्लतामिव । जवेनायात्पुनर्युद्धं यत्र देवो वृषध्वजः ॥२६॥
पार्वत्यपि महाविष्णुं सस्मार मनसा तदा । तावद्ददर्श तं देवं सोपविष्टं समीपगम् ॥२७॥
पार्वत्युवाच
विष्णो जलंधरो दैत्यः कृतवान्परमाद्भुतम् । तत्किं न विदितं तेऽस्ति चेष्टितं तस्य दुर्मतेः ॥२८॥
श्रीभगवानुवाच
तेनैव दर्शितः पंथा वयमप्यन्वयामहे । नान्यथा स भवेद्वध्यः पातिव्रत्यात्सुरक्षितः ॥२९॥
नारद उवाच
जगाम विष्णुरित्युक्त्वा पुनर्जालंधरं पुरम् । अथ रुद्रश्च गंधर्वानुगतः संगरे स्थितः॥३०॥
अंतर्द्धानगतां मायां दृष्ट्वा तु बुबुधे तदा ॥३१॥
ततः शिवो विस्मितमानसः पुनर्जगाम युद्धाय जलंधरं रुषा ।
स चापि दैत्यः पुनरागतं शिवं दृष्ट्वा शरौघैः समवाकिरद्रणे ॥३२॥
॥ इति श्रीपद्मपुराणे कार्तिकमाहात्म्ये कार्तिकामाहात्म्ये श्रीकृष्णसत्यभामासंवादे दैत्यकपटवर्णनोनाम पंचदशोऽध्यायः ॥
कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 15 हिन्दी में
नारद जी ने कहा : वीरभद्र को भूमि पर गिरा देखकर अन्य सभी गण रण भूमि से हाहाकार करते हुये भागकर भगवान शंकर के पास आये। कोलहार सुनकर और अपने गणों को भागते देख रौद्र रूप महाप्रभु शंकर नन्दी पर चढ़कर प्रसन्नतापूर्वक युद्धभूमि में आये। उनको आया देख कर उनके पराजित गण फिर लौट आये और सिंहनाद करते हुए आयुद्धों से दैत्यों पर प्रहार करने लगे।
भीषण रूपधारी रूद्र को देख दैत्य भागने लगे तब जलन्धर हजारों बाण छोड़ता हुआ शंकर की ओर दौडा़। उसके शुम्भ निशुम्भ आदि वीर भी शंकर जी की ओर दौड़े। इतने में शंकर जी ने जलन्धर के सब बाण जालों को काट अपने अन्य बाणों की आंधी से दैत्यों को अपने फरसे से मार डाला। खड़गोरमा नामक दैत्य को अपने फरसे से मार डाला और बलाहक का भी सिर काट दिया। घस्मर भी मारा गया और शिवगण चिशि ने प्रचण्ड नामक दैत्य का सिर काट डाला। किसी को शिवजी के बैल ने मारा और कई उनके बाणों द्वारा मारे गये।
यह देख जलन्धर अपने शुम्भादिक दैत्यों को धिक्कारने और भयभीतों को धैर्य देने लगा। पर किसी प्रकार भी उसके भय ग्रस्त दैत्य युद्ध को न आते थे जब दैत्य सेना पलायन आरंभ कर दिया, तब महा क्रुद्ध जलन्धर ने शिवजी को ललकारा और सत्तर बाण मारकर शिवजी को दग्ध कर दिया। शिवजी उसके बाणों को काटते रहे। यहां तक कि उन्होंने जलन्धर की ध्वजा, छत्र और धनुष को काट दिया। फिर सात बाण से उसके शरीर में भी तीव्र आघात पहुंचाया। धनुष के कट जाने से जलन्धर ने गदा उठायी।
शिवजी ने उसकी गदा के टुकड़े कर दिये तब उसने समझा कि शंकर मुझसे अधिक बलवान हैं। अतएव उसने गन्धर्व माया उत्पन्न कर दी अनेक गन्धर्व अप्सराओं के गण पैदा हो गये, वीणा और मृदंग आदि बाजों के साथ नृत्य व गान होने लगा। इससे अपने गणों सहित रूद्र भी मोहित हो एकाग्र हो गये। उन्होंने युद्ध बंद कर दिया।
फिर तो काम मोहित जलन्धर बडी़ शीघ्रता से शंकर का रूप धारण कर वृषभ पर बैठकर पार्वती के पास पहुंचा उधर जब पार्वती ने अपने पति को आते देखा, तो अपनी सखियों का साथ छोड़ दिया और आगे आयी। उन्हें देख कामातुर जलन्धर का वीर्यपात हो गया और उसके पवन से वह जड़ भी हो गया। पार्वती से उसका भेद छुपा न रहा और अन्तर्धान हो उत्तर की मानसरोवर पर चली गयीं तब पार्वती ने विष्णु जी का ध्यान किया तो तत्काल विष्णु आ गये।
फिर पार्वती ने भगवान विष्णु से पूछा दैत्यधन का वह कृत्य कहा और यह प्रश्न किया कि क्या आप यह नहीं जानते हैं।
भगवान विष्णु ने कहा – आपकी कृपा से मुझे सब ज्ञात है। उसने स्वयं ही हमारा मार्गदर्शन किया है, वह पतिव्रता धर्म से ही सुरक्षित है और उसने जो किया उसके साथ भी अब वैसा ही करूँगा, क्योंकि पातिव्रत्यधर्म से जब तक सुरक्षित रहेगा तब तक अवध्य है।
ऐसा कह कर भगवान विष्णु भी छल के प्रत्युत्तर में छल करने के लिए जलन्धर के नगर की ओर गये। उधर महादेव रणभूमि में ही खड़े थे। तब तक आसुरी माया भी समाप्त हो गयी और शंकर भगवान पुनः चेतना में आकर युद्ध करने आये व जलंधर भी बाणों की वर्षा करने लगा।
कार्तिक माहात्म्य अध्याय 15 भावार्थ/सारांश
कार्तिक माहात्म्य के पन्द्रहवें अध्याय में जलंधर के माया और छल वाली कथा है। वीरभद्र को भूमि पर गिरा देख शिवगणों में हाहाकार मच गया और वो कोलाहल करते हुये वहां चले गये जहां भगवान शंकर थे। तब स्वयं भगवान शंकर युद्ध करने आये एवं जलंधर के साथ उनका युद्ध होने लगा। जब जलंधर को प्रतीत हुआ कि भगवान शिव अजेय हैं और इनको जीतना संभव नहीं है तो उसने माया का प्रयोग किया और सभी अचेत से हो गये।
तत्पश्चात कामपीड़ित जलंधर शिव का रूप धारण करके पार्वती पास गया किन्तु वहां उसका भेद खुल गया तो पार्वती ने मानसरोवर जाकर भगवान विष्णु का आवाहन किया, भगवान विष्णु के आने पर उनसे कहा कि जलंधर ने जो किया है क्या आपसे छिपा है। भगवान विष्णु ने कहा उसने तो हमें अपने अंत का मार्ग ही बताया है। वह अभी तक पातिव्रत्य धर्म से ही सुरक्षित और अजेय है किन्तु अब उसने छल का प्रयोग करके हमारे लिये भी मार्ग खोल दिया है।
इस अध्याय में यह बड़ी सीख मिलती है कि यदि हम किसी के साथ छल-प्रपंच करते हैं तो स्वयं के लिये भी छल-प्रपंच को निमंत्रित कर देते हैं।
कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।