कार्तिक माहात्म्य अध्याय 16 मूल संस्कृत में, अर्थ हिन्दी में

कार्तिक माहात्म्य - षोडशोऽध्यायः, कार्तिक माहात्म्य अध्याय 16

कार्तिक माहात्म्य के सोलहवें अध्याय में भगवान विष्णु द्वारा वृंदा के पातिव्रत्यधर्म को नष्ट करने और वृंदा द्वारा भगवान विष्णु को श्राप देकर अग्नि में प्रवेश करने की कथा है। जलंधर जब भगवान शिव का रूप धारण करके पार्वती के पास गया था तो पार्वती ने भगवान विष्णु को इस विषय में बताया, भगवान विष्णु ने कहा था कि जिस मार्ग का आश्रय जलंधर ने लिया है उसी मार्ग का अवलंबन करके उसके पत्नी का पातिव्रत्यधर्म नष्ट करना होगा क्योंकि जलंधर उसी से सुरक्षित है।सर्वप्रथम मूल माहात्म्य संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश ।

कार्तिक मास कथा : कार्तिक माहात्म्य अध्याय 16 हिन्दी में

नारद जी ने कहा : जलन्धर के नगर में जाकर विष्णु जी ने उसकी पतिव्रता स्त्री वृन्दा का पतिव्रत भंग करने का विचार किया। वे उसके नगर के उद्यान में जाकर ठहर गये और रात में उसको स्वप्न दिया। वह भगवान विष्णु की माया और विचित्र कार्यपद्धति थी और वृन्दा ने रात में एक स्वप्न देखा जिसमें उसका पति नग्न होकर सिर पर तेल लगाये महिष पर चढ़ा है। वह काले रंग के फूलों की माला पहने हुए है तथा उसके चारों हिंसक जीव हैं। वह सिर मुड़ाए हुए अन्धकार में दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है। उसने नगर को अपने साथ समुद्र में डूबा हुआ इत्यादि बहुत से स्वप्न देखे।

तत्काल ही वह स्वप्न का विचार करने लगी। इतने में उसने सूर्यदेव को उदय होते हुए देखा तो सूर्य में उसे एक छिद्र दिखाई दिया तथा वह कान्तिहीन था। इसे उसने अनिष्ट जाना और वह भयभीत हो रोती हुई छज्जे, अटारी तथा भूमि कहीं भी शान्ति को प्राप्त न हुई फिर अपनी दो सखियों के साथ उपवन में गई वहाँ भी उसे शान्ति नहीं मिली। फिर वह उपवन निकल गई वहाँ उसने सिंह के समान दो भयंकर राक्षसों को देखा, जिससे वह भयभीत हो भागने लगी।

उसी क्षण उसके समक्ष अपने शिष्यों सहित शान्त मौनी तपस्वी वहाँ आ गया। भयभीत वृन्दा उनके गले में अपना हाथ डाल उससे रक्षा की याचना करने लगी। मुनि ने अपनी एक ही हुंकार से उन राक्षसों को भगा दिया।

वृन्दा को आश्चर्य हुआ तथा वह भय से मुक्त हो मुनिनाथ को हाथ जोड़ प्रणाम करने लगी। फिर उसने मुनि से अपने पति के संबंध में उसकी कुशल क्षेम का प्रश्न किया।

उसी समय दो वानर मुनि के समक्ष आकर हाथ जोड़ खड़े हो गये और ज्यों ही मुनि ने भृकुटि संकेत किया त्यों ही वे उड़कर आकाश मार्ग से चले गये और शीघ्र ही जलन्धर का सिर और धड़ लिये मुनि के आगे आ गये, तब अपने पति को मृत हुआ जान वृन्दा मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी और अनेक प्रकार से दारुण विलाप करने लगी।

तत्पश्चात मुनि से कहा – हे कृपानिधे! आप मेरे पति को जीवित कर दीजिए। पतिव्रता दैत्य पत्नी ऐसा कहकर दुःखी श्वासों को छोड़कर मुनीश्वर के चरणों पर गिर पड़ी।

तब मुनीश्वर ने कहा – यह शिवजी द्वारा युद्ध में मारा गया है, जीवित नहीं हो सकता क्योंकि जिसे भगवान शिव मार देते हैं वह कभी जीवित नहीं हो सकता परन्तु शरणागत की रक्षा करना सनतन धर्म है, इसी कारण कृपाकर मैं इसे जीवित कर देता हूँ।

नारद जी ने आगे कहा – वह मुनि साक्षात विष्णु ही थे जिन्होंने यह सब माया फैला रखी थी। वह वृन्दा के पति को जीवित कर के अन्तर्ध्यान हो गये। जलन्धर ने उठकर वृन्दा को आलिंगन किया और मुख चूमा। वृन्दा भी पति को जीवित हुआ देख अत्यन्त हर्षित हुई और अब तक हुई बातों को स्वप्न समझा। तत्पश्चात वृन्दा सकाम हो बहुत दिनों तक अपने पति के साथ विहार करती रही।

एक बार सुरत एवं सम्भोग काल के अन्त में उन्हीं विष्णु को देखकर उन्हें ताड़ित करती हुई बोली – हे पराई स्त्री से गमन करने वाले विष्णु! तुम्हारे शील को धिक्कार है। मैंने जान लिया है कि मायावी तपस्वी तुम्हीं थे। इस प्रकार कहकर कुपित पतिव्रता वृन्दा ने अपने तेज को प्रकट करते हुए भगवान विष्णु को शाप दिया –

“तुमने माया से दो राक्षस मुझे दिखाए थे वही दोनों राक्षस किसी समय तुम्हारी स्त्री का हरण करेगें। सर्वेश्वर जो तुम्हारा शिष्य बना है, यह भी तुम्हारा साथी रहेगा जब तुम अपनी स्त्री के विरह में दुखी होकर विचरोगे उस समय वानर ही तुम्हारी सहायता करेगें।”

ऐसा कहती हुई भगवान विष्णु के बारम्बार रोकते रहने पर भी पतिव्रता वृन्दा अग्नि में प्रवेश कर गई। तब भगवान विष्णु बार-बार वृन्दा का ही स्मरण करने लगे, वृंदा के चिताभस्म की धूलि लगा कर वहीं पड़े रहे। देवताओं, सिद्धों, मुनियों आदि के बहुत समझाने पर भी वो शांत नहीं हुये।

कार्तिक माहात्म्य अध्याय 16 भावार्थ/सारांश

कार्तिक माहात्म्य के सोलहवें अध्याय में भगवान विष्णु द्वारा वृंदा के पातिव्रत्यधर्म को नष्ट करने और वृंदा द्वारा भगवान विष्णु को श्राप देकर अग्नि में प्रवेश करने की कथा है। जलंधर जब भगवान शिव का रूप धारण करके पार्वती के पास गया था तो पार्वती ने भगवान विष्णु को इस विषय में बताया, भगवान विष्णु ने कहा था कि जिस मार्ग का आश्रय जलंधर ने लिया है उसी मार्ग का अवलंबन करके उसके पत्नी का पातिव्रत्यधर्म नष्ट करना होगा क्योंकि जलंधर उसी से सुरक्षित है।

ऐसा विचार कर भगवान विष्णु जलंधर के नगर वापस आ गये और एक विचित्र माया रचकर वृन्दा को दुःस्वप्न व अपशकुन दिखाया जिसके वृन्दा अशांत हो गयी और वन में भटकने लगी। फिर मुनि का वेष धारण कर उसका विश्वास जीता और जलंधर का मायावी मृत शरीर दिखाकर फिर जीवित कर दिया जो स्वयं विष्णु ही थे। तत्पश्चात वृन्दा का पातिव्रत्य नष्ट करने पर एक दिन वृन्दा को विष्णु का वास्तविक रूप दिखा जिसके पश्चात् उसने भगवान विष्णु को घनघोर श्राप देकर चिताग्नि में प्रवेश कर आत्मदाह कर लिया।

वृन्दा के आत्मदाह कर लेने के उपरांत भगवान विष्णु अशांत हो गये, बार-बार वृन्दा का ही स्मरण करने लगे, वृंदा के चिताभस्म की धूलि लगा कर वहीं पड़े रहे। देवताओं, सिद्धों, मुनियों आदि के बहुत समझाने पर भी वो शांत नहीं हुये।

इस अध्याय की कथा में दो मुख्य बिन्दु है :

  • प्रथम यह कि पातिव्रत्य धर्म की महत्ता।
  • द्वितीय यह कि छल/असत्य आदि के माध्यम से प्रहार करने वाले के लिये उसी प्रकार से प्रत्युत्तर देना चाहिये।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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