वरुथिनी एकादशी व्रत कथा – Varuthini ekadashi vrat katha

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा - Varuthini ekadashi vrat katha

वैशाख कृष्णपक्ष की एकादशी को वरूथिनी कहा जाता है। यह व्रत सुख, सौभाग्य और मोक्ष प्रदान करने वाला है। वरूथिनी का पालन करने से पाप मिटते हैं और भक्तजन स्वर्ग प्राप्त करते हैं। इस व्रत का महत्व इतना है कि यह यज्ञ, दान और तप के समान फल देता है। जो व्यक्ति श्रद्धा के साथ वरूथिनी का व्रत करता है, उसकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। यह सभी पापों को दूर करके जीवन में शांति और समृद्धि लाता है। अंत में, यह एकादशी भक्तों को विष्णुलोक में निवास का अवसर देती है।

कृष्ण ने बताया कि यह एकादशी सौभाग्य, सुख और मोक्ष प्रदान करती है। जो भक्त इस एकादशी का व्रत करते हैं, उनके पाप दूर होते हैं और पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है। व्रत को करने से दुर्भाग्य मिट जाता है और स्त्रियां भी सौभाग्यवती बन जाती हैं। वरूथिनी का व्रत दश हजार वर्षों की तपस्या के समान फल देता है।

सर्वप्रथम वरुथिनी (वैशाख कृष्ण पक्ष) एकादशी मूल माहात्म्य/कथा संस्कृत में दिया गया है तत्पश्चात हिन्दी में अर्थ, तत्पश्चात भावार्थ/सारांश एवं अंत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये हैं। Varuthini ekadashi vrat katha

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा हिन्दी में

युधिष्ठिर बोले – हे वासुदेव ! वैशाख कृष्णपक्ष की एकादशी का क्या नाम है? उसकी महिमा मुझसे कहिए।

श्रीकृष्ण बोले – हे राजन् ! वैशाख कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम वरूथिनी है, वह इस लोक और परलोक में सौभाग्य प्रदान करती है। वरूथिनी एकादशी का व्रत करने से सदा सुख रहता है, पाप की हानि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है । इस व्रत को करने से मन्द भाग्य वाली स्त्री भी सौभाग्यवती हो जाती है। यह मनुष्यों को दोनों लोकों का सुख प्रदान करती है, मनुष्यों के पापों को दूर करके पुनर्जन्म से मुक्ति देने वाली है अर्थात मोक्ष प्रदान करने वाली है।

वरूथिनी का व्रत करने से मान्धाता स्वर्ग को चले गये। धुन्धुमार आदि बहुत से राजा स्वर्ग को चले गये, भगवान् शिवजी ब्रह्मकपाल से मुक्त हो गये । दश हजार वर्ष तक तप करने से जो फल मिलता है, उसके समान फल वरूथिनी का व्रत करने से प्राप्त होता है ।

कुरुक्षेत्र जाकर सूर्य के ग्रहण में १ मन सोना दान करने से जो फल मिलता है वह फल वरूथिनी एकादशी का व्रत करने से मिलता है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक वरूथिनी का व्रत करता है, उसकी इस लोक और परलोक में इच्छायें पूरी होती है ।

हे नृपसत्तम ! यह एकादशी बहुत पवित्र है और व्रत करने वालों के पापों को दूर करने वाली, भुक्ति-मुक्ति को देने वाली और पवित्र करने वाली है। हे नृपश्रेष्ठ ! घोड़े के दान से हाथी का दान विशेष है, हाथी के दान से भूमि का दान, उससे अधिक तिल का दान है, उससे अधिक स्वर्ण दान और स्वर्णदान से अधिक अन्न दान का महत्व है। अन्न से उत्तम कोई दान न हुआ, न होगा, अन्न से पितृ-देव-मनुष्यों की तृप्ति होती है। हे नृपोत्तम! उसी के समान कवियों ने कन्यादान कहा है ।

भगवान् ने स्वयं कहा है कि गोदान उसी (कन्यादान) के समान है और सभी दानों से अधिक महत्व विद्यादान का है। वरूथिनी का व्रत करने से मनुष्य विद्यादान के फल को प्राप्त करता है।

पाप से मोहित होकर जो मनुष्य कन्या के धन से निर्वाह करते हैं, वे मनुष्य महाप्रलय तक नरक में रहते हैं, इसलिए कन्या का घन कभी नहीं लेना चाहिए। जो कोई आभूषण पहिना कर यथाशक्ति धन सहित कन्या का दान करता है, उसके पुण्य की संख्या (गणना) करने में चित्रगुप्त भी समर्थ नहीं हैं । वही फल वरूथिनी का व्रत करने से मनुष्य को मिलता है।

  • काँसे के बर्तन में भोजन, मांस, मसूर, चना, कोदो अन्न, शाक, शहद, पराया अन्न, दुबारा भोजन और मैथुन ये व्रत करने वाले वैष्णव को दशमी के दिन वर्जित हैं।
  • जुआ खेलना, शयन करना, पान खाना, दातुन करना, दूसरे की निन्दा, चुगली और पापियों से भाषण (वार्तालाप), क्रोध और झूठ बोलना; ये सभी एकादशी को वर्जित हैं।
  • काँसे के पात्र में भोजन, मांस, मसूर, शहद, मिथ्या भाषण, व्यायाम, परिश्रम, दुवारा भोजन, मैथुन, हजामत, तेल लगाना, पराया अन्न ये द्वादशी को वर्जित हैं ।

हे राजन् ! इस विधि से वरूथिनी कही है, यह सब पापों को दूर करके अन्त में अक्षय गति को देती है । रात में जागरण करके जो जनार्दन का पूजन करते हैं, वे सब पापों से छूट कर परमगति को प्राप्त होते हैं। हे नरदेव! इस कारण पाप और यमराज से डरे हुए मनुष्यों को वरूथिनी का व्रत करना चाहिये । हे राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से सहस्र गोदान का फल मिलता है, और वे सब पापों से छूटकर विष्णुलोक में सुख भोगते हैं ।

वरुथिनी एकादशी व्रत कथा का सारांश या भावार्थ

वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम वरूथिनी एकादशी है। इस एकादशी की कथा में एकादशी व्रत की विशेष विधियों और नियमों का वर्णन किया गया है। यह एकादशी पुनर्जन्म के दुःख से मुक्ति प्रदान करती है। राजा मान्धाता, धुन्धुमार इसी व्रत के प्रभाव से स्वर्ग गये। भगवान शंकर भी इसी व्रत को करके ब्रह्मकपाल से मुक्त हुये।

सभी प्रकार के दानों में विद्यादान का अत्यधिक महत्व है, वरूथिनी एकादशी विद्यादान और रत्नों से अलंकृत कन्यादान के सामान पुण्य प्रदान करने वाली है। कांसे के बर्तन में भोजन, मांस, मसूर, चना, कोदो, शाक, शहद, परान्न, पुनर्भोजन रतिक्रिया ये सभी दशमी को भी वर्जित कहे गए हैं। जुआ खेलना, शयन करना, पान खाना, दातुन करना, परनिंदा, चुगली और पापियों के साथ सम्भाषण, क्रोध, असत्यभाषण एकादशी को निषिद्ध किया गया है।

कांस्यपात्र में भोजन, मांस, मसूर, शहद, मिथ्याभाषण,व्यायाम, परिश्रम, पुनर्भोजन, मैथुन, क्षौर, तेल लगाना और परान्न द्वादशी को वर्जित होता है।

  • वरूथिनी एकादशी वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में होती है।
  • इससे सभी प्रकार के पापों का नाश होता है।
  • यह एकादशी सौभाग्यकारक है।
  • जिसे यमराज का भय हो वह इस एकादशी को अवश्य करे।
  • इस कथा को पढ़ने-सुनने से सहस्र गोदान का पुण्य प्राप्त होता है।

कथा पुराण में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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